अधिकांश आईएएस अधिकारी को अपने योगदान पर भरोसा नहीं होता और वह केवल एक लिपिक और आलोचक बन कर रह जाते हैं
भारत सरकार ने खुले बाजार से 10 उत्कृष्ट व्यक्तियों को निम्नलिखित क्षेत्रों में विशेषज्ञता के साथ भर्ती करने का निर्णय लिया हैः-
(i) राजस्व; (ii) वित्तीय सेवाएं; (iii) आर्थिक मामले; (iv) कृषि, सहयोग और किसानों के कल्याण; (v) सड़क परिवहन और राजमार्ग; (vi) शिपिंग; (vii) पर्यावरण, जंगलों और जलवायु परिवर्तन; (viii) नई और नवीकरणीय ऊर्जा; (ix) नागरिक विमानन; और (x) वाणिज्य।
उनकी प्रारंभिक नियुक्ति तीन साल तक के लिए होगी और उनके प्रदर्शन के आधार पर पाँच साल तक विस्तारित होगी। वे संयुक्त सचिव के स्तर पर काम करेंगे, जो कि आमतौर पर भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) या केंद्रीय सेवा अधिकारियों द्वारा अधकृत पद होता है। यह भारत सरकार के वरिष्ठ प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण स्तर है, क्योंकि संयुक्त सचिव नीति निर्माण एवं डिजाइन कार्यक्रम का नृत्व करते हैं और उनके कार्यान्वयन की निगरानी करते हैं।
क्या यह गेम चेंजर होगा?
18 से 25 वर्ष की वरिष्ठता वाले मध्यम स्तर के आईएएस अधिकारियों की गंभीर रूप से कमी है, क्योंकि 1990 के दशक में आईएएस अधिकारियों की वार्षिक भर्ती लगभग 180 प्रति बैच की वर्तमान भर्ती के मुकाबले लगभग 60 से 70 हो गई थी। यह एक भ्रम के तहत किया गया था कि आर्थिक उदारीकरण केंद्रीय कर्मचारियों की आवश्यकता को काफी कम करेगा। हालांकि, विपरीत राजस्व के साथ, भारत सरकार ने न केवल सामाजिक क्षेत्र में गरीबी विरोधी कार्यक्रमों, शिक्षा, स्वास्थ्य और आदिवासी कल्याण के लिए अपनी भूमिका का विस्तार किया, बल्कि दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, जलवायु परिवर्तन, और सड़क परिवहन जैसे कई नए उभरते क्षेत्रों में भी अपनी भूमिका का विस्तार किया।
कुल कमी के कारण, अधिकांश राज्य केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को कार्यमुक्त करने के इच्छुक नहीं हैं, जिससे एक विचित्र स्थिति उत्पन्न होती है जहाँ एक रेलवे यातायात अधिकारी संयुक्त सचिव, स्वास्थ्य अधिकारी के रूप में कार्य करता है और एक आयुध सेवा कर्मचारी खुद को जनजातीय मामलों के मंत्रालय में पाता है!
आईएएस अधिकारियों का कार्य प्रदर्शन
अस्थाई कमी से अलग, बड़ा मुद्दा यह हैः क्या नीति सलाहकार के रूप में आईएएस अधिकारियों की भूमिका में गिरावट आई है? क्या इन अधिकारियों को प्रभावी नीति निर्माण और उसके वितरण के लिए अनिवार्य क्षेत्र का ज्ञान प्राप्त इतना आवश्यक है?
शुरूआती क्षमता और उत्साह के बावजूद, एक सच्चाई यह है कि अपने करियर के 30 सालों के दौरान कई प्रशासनिक अधिकारी अपनी गतिशीलता और नवीनता खो देते हैं, और सार्वजनिक कल्याण में अपने योगदान में कोई विश्वास न रखते हुए केवल स्याही निचोड़ने वाले और चिड़चिड़े आदमी के रूप में समाप्त (सेवानिवृत्त) होते हैं।
पेशेवर क्षमता का निम्न स्तर ही भारतीय नौकरशाही की घातक विफलता रहा है। प्रशासनिक अधिकारी अपना आधे से अधिक कार्यकाल केवल पॉलिसी (नीति निर्माण) डेस्क पर ही बिता देते हैं जहाँ क्षेत्र का ज्ञान एक महत्वपूर्ण शर्त है। हालांकि, कई राज्यों में एक पद से दूसरे पद पर स्थानांतरण सीखने की इच्छा को कम कर देता है। उत्तर प्रदेश में पिछले 10 सालों में प्रशासनिक अधिकारियों का औसतन कार्यकाल छह महीने के रूप में कम माना जाता है। भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) में यह और भी कम है, और मज़े की बात यह है कि “अगर कुछ हफ्तों के लिए ही तैनात किया जाता है तो हम लोग केवल एक ही काम कर सकते हैं और वह है हफ्ता वसूली।“
कई राज्यों में प्रचलित इसी माहौल के साथ, एक युवा प्रशासनिक सेवक के लिए ज्ञान प्राप्त करने और कौशल में सुधार करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है। इस प्रकार, उनकी अज्ञानता और अहंकार दोनों में ही घातीय रूप से बढ़ोतरी हुई है। ऐसा कहा जाता है कि एक प्रशासनिक अधिकारी के घर में तीन ही किताबें मिलेंगीः रेलवे समय सारिणी, क्योंकि उनको हमेशा एक पद से दूसरे पद पर तैनात किया जाता है, एक करेंट अफेयर्स की पत्रिका क्योंकि यह उनकी दिलचस्पी का स्तर है और सेवा पदानुक्रम का वर्णन करने वाली सिविल सूची।
बाजार मूल्य की कुल कमी और वैकल्पिक रोजगार क्षमता की कमी ही ऐसा कारक है जो राजनेताओं के सामने वरिष्ठ अधिकारियों के आत्मसमर्पण में योगदान देने वाला एक अहम कारक है। सरकार से हटकर उनके पास कोई और भविष्य नहीं है, क्योंकि उनकी प्रतिभाएं बहुत ही कम हैं। इस प्रकार, अधिकांश प्रशासनिक अधिकारियों का सेवा में शामिल होने के कुछ सालों के भीतर ही महत्व समाप्त हो जाता है, और उनकी प्रतिभा केवल सरकार के भीतरी पदों में हेरफेर और धोखाधड़ी में ही समाप्त हो जाती है।
विश्वसनीय रिपोर्टिंग
हालांकि कई मोर्चों पर प्रशासनिक अधिकारी असफल रहे हैं, यहाँ पर किसी को केवल दो मुद्दों पर ही ध्यान केन्द्रित करना होगा जो विशेष रूप से अपने डोमेन के अंतर्गत ही हैः कार्यक्रमों की निगरानी करना और धन का प्रवाह।
वर्तमान में, सभी स्तरों के अधिकारी सूचनाओं को एकत्रित करने और जमा करने में काफी समय व्यतीत करते हैं लेकिन इस सूचनाओं का उपयोग सुधारात्मक और उपचारात्मक कार्यवाई या विश्लेषण के लिए नहीं बल्कि केवल उच्च स्तर पर भेजने या संसद/विधानसभा में सवालों के जवाब में किया जाता है। इसके अलावा, परिणामों पर शायद ही कभी ध्यान दिया जाता हो और यह प्रणाली गैस भरे गुब्बारे की तरह दूर चली जाती है।
आवंटित धन खर्च करने के लिए फील्ड स्टाफ पर बहुत दबाव है लेकिन दीर्घकालिक परिणामों के संदर्भ में ऐसा नहीं है क्योंकि उनकी निगरानी नहीं की जा रही है। इस प्रकार, वित्तीय नियोजन से भौतिक नियोजन अलग है। इसी प्रकार, राज्य सरकारें जिलों से बढ़े हुए आँकड़ों की रिपोर्टिंग को समर्थन देने से इनकार नहीं करती हैं जो पुनः निगरानी/ नियंत्रण को अप्रभावी कर देते हैं। यदि डेटा को निर्दलीय स्रोतों के माध्यम से अक्सर सत्यापित या एकत्र नहीं किया जाता है, तो फर्जी रिपोर्टिंग में शामिल अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती है।
संभवतः वरिष्ठ अधिकारियों की सहमति के साथ यह प्रकिया सभी राज्यों में इतनी व्यापक है कि संयुक्त राष्ट्र बाल निधि (यूनिसेफ) के सर्वेक्षण में 9.4 प्रतिशत की रिपोर्ट की तुलना में, 0-3 आयु समूह में गंभीर रूप से कुपोषित (ग्रेड III और IV) बच्चों का कुल प्रतिशत राज्यों से भारत सरकार तक पहुँचने वाले आंकड़ों के मुताबिक केवल 2 प्रतिशत ही है। इस प्रकार क्षेत्रीय अधिकारी कुपोषण को कम करने की जवाबदेही के किसी भी अनुभव से बचने में सक्षम हैं।
एक जिला प्रमुख जब इन फर्जी आँकड़ों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने मुझे बताया कि सही डेटा की जानकारी देने में “जोखिम ज़्यादा है और वाहवाही कम है”।
फंड का प्रवाह
कई राज्य सरकारें, खासतौर पर कमजोर सरकारें, न तो भारत सरकार से आधिकारिक फंड को प्राप्त करने और न ही समय पर जिलों / गांवों में इसे जारी करने में सक्षम हैं। इसका नतीजा यह होता है कि भारत सरकार प्रायः उस अनिवार्य फंड को बेहतर प्रदर्शन करने वाले राज्यों में बाँटने के लिए बाध्य होती है।
बिहार, ओडिशा, यूपी और असम द्वारा खराब प्रदर्शन का कारण अक्सर सभी स्तरों पर कर्मचारियों की व्यापक कमी होती है, जो कार्यक्रमों के क्रियान्वयन और पर्यवेक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। राज्यों में, केंद्रीय फंड का उपयोग करने में बिहार का रिकॉर्ड बहुत ही खराब है। यहाँ 1994 से 2005 के दौरान केवल त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम में केंद्रीय सहायता के 540 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। यहाँ तक कि नीतीश कुमार (वर्तमान में राज्य के मुख्यमंत्री) युग के पहले के समय में बिहार में वेतन का भुगतान नहीं किया गया था।
उलटा पिरामिड
यदि समानांतर प्रवेश के मुद्दे की बात की जाए तो इस डर को प्रतिबद्धता नौकरशाही के सन्दर्भ के पारिपेक्ष में देखना पड़ेगा कि क्या नए प्रवेशों का वर्तमान सरकार के प्रति वैचारिक झुकाव होगा। (मैं राज्यवार अधिकारीयों की कुल संख्या का 25 प्रतिशत से 50 प्रतिशत इनका स्थान रखूंगा) इन कारणों में से सबसे महत्वपूर्ण कारण राज्य और केंद्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण पदों के लिए आईएएस अधिकारियों की आपा धापि है।
आईएएस वर्ग के सिस्टम पर नियंत्रण के कारण, अतिकाल और सुपीरियर वेतनमानों में एक बड़ी संख्या में अनावश्यक पदों को जल्द पदोन्नत करने के लिए बनाया गया है। अक्सर एक वरिष्ठ पद को विभाजित किया जाता है, इस प्रकार पद से जुड़ी जिम्मेदारियाँ कम कर दी जाती हैं। उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश में, एक मुख्य सचिव के पद के लिए, 18 अधिकारी हैं जो समकक्ष हैं लेकिन समान वेतन वाले निचले पदों पर नियुक्त हैं। यह उलटा पिरामिड (शीर्ष पर बहुत से लोग और मध्य और निचले स्तर पर बहुत कम लोग) स्पष्ट रूप से विकासहीनता के कारण नैतिक पतन से बचने के लिए बनाया गया है, लेकिन शुद्ध परिणाम इसके विपरीत हैं।
सबसे पहले, सेवा में महत्वपूर्ण जगह पाने के लिए कठिन प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। पुराना भाईचारा गायब हो गया है। दूसरा, इस बिना नियम की प्रतिस्पर्धा के कारण राजनेताओं द्वारा एक दूसरे के ख़िलाफ़ खेल खेले जाते हैं, जिससे अधिकारी कमज़ोर हो जाते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद के आराम की नौकरी की लालसा उन लोगों की संख्या को और बढ़ा देती है जो मुड़ने के लिए पूछे जाने पर घिसटने के इच्छुक होंगे।
हालांकि, खुले बाजार से केवल 10 संयुक्त सचिव प्राप्त करना सिविल सेवा को मूल रूप से प्रोफेशनल बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है। सरकारों को राज्यों में स्थिर कार्यकाल पर जोर देकर आंतरिक विशेषज्ञता को बढ़ावा देने की जरूरत है ताकि आईएएस को अपने चुने हुए क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल करने में प्रोत्साहन मिले।
सेवा के पहले 10 वर्षों के बाद, प्रत्येक आईएएस अधिकारी को केवल एक या दो चुने हुए क्षेत्रों में विशेषज्ञ होने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए न केवल उन्हें लंबे कार्यकाल देकर, बल्कि उन्हें अकादमिक या शोध संगठनों में शामिल होने की इजाजत देनी चाहिए जहां वे अपने बौद्धिक कौशल में सुधार कर सकते हैं। आईएएस अधिकारियों को 10 बाहरी लोगों को एक चुनौती के रूप में लेना चाहिए क्योंकि यदि वे अपने प्रदर्शन में सुधार नहीं करते हैं, तो हर साल ऐसी भर्ती की पुनरावृत्ति हो सकती है।
संक्षेप में खुले बाजार से 10 विशेषज्ञों का कोई भी स्वागत करेगा, लेकिन शेष 390 संयुक्त सचिवों को प्रोफेशनल बनाने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता होती है। राज्य और जिला स्तर पर शासन के मुद्दों को संबोधित करके इसमें व्यापक प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता है।
लेख पहली बार इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित किया गया था। यह लेख का एक संपादित संस्करण है।
नरेश चंद्र सक्सेना (naresh.saxena@gmail.com) को आठ साल तक आईएएस अकादमी में तैनात किया गया था और इन्होंने आईएएस के कई बैचों को प्रशिक्षित किया था। वह 2002 में योजना आयोग के सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे।
Read in English : IAS officers see tremendous growth in two areas: Ignorance and arrogance