इन दिनों देश का माहौल इतना दमघोंटू हो गया है, जितना पहले शायद ही कभी रहा हो. कारण यह कि कुछ लोगों की धार्मिक भावनाओं को बार-बार ठेस लगने लगी है. विडम्बना यह कि जब भी उन्हें ठेस लगती है, वे खूब चीखती-चिल्लाती हैं, फिर भी संभलकर चलना नहीं सीखतीं. न ही ऐसी सावधानियां बरतती हैं, जो आगे उन्हें ठेस न लगने दें. शायद इसलिए कि उन्हें सहूलियत हासिल है कि जब भी ठेस लगे, उनके पैरोकार हाईकोर्टों या सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने पहुंच जायें.
गौरतलब है कि ये ऐसे कोर्ट हैं, बेतरह नाइंसाफी के शिकार होने के बावजूद देश के आम लोग जिन्हें खटखटाने की हिम्मत नहीं कर पाते. क्योंकि उनके पास कोर्ट और वकीलों की फीस की रकम नहीं होती. लेकिन वे यह रकम जुटा भी लें तो कोर्ट आमतौर पर उनके मसलों पर गौर फरमाने का वक्त ही नहीं निकाल पाते, जबकि कुछ लोगों की याचिकाएं दायर होने से पहले ही उन पर सुनवाई की तारीख मुकर्रर कर देते हैं.
देशवासियों का डर
तिस पर धार्मिक भावनाओं के पैरोकारों की सहूलियत इतनी ही नहीं है. न्यूज चैनलों और अखबारों के दरवाजे तो उनके लिए कभी बन्द ही नहीं होते. धार्मिक भावनाओं को ठेस लगने का अंदेशा भर भी हो जाये तो उनके प्राइमटाइम और पन्ने दर पन्ने इन भावनाओं के नाम हो जाते हैं और हरचन्द कोशिश करते हैं कि उन्हें दुर्भावनाओं में बदल दें. उन्हें असली मजा ही तभी आता है, जब धार्मिक भावनाओं को लगी ठेस दूसरों के क्लेश का रूप धर ले और टकराव का कारण बन जाये.
दूसरी ओर महंगाई है कि गरीबी की रेखा के नीचे रहने को अभिशप्त देश की तीस प्रतिशत से ज्यादा आबादी की जिन्दगी दूभर किये हुए है. फिर भी वह समझ नहीं पा रही कि अपना दुःखड़ा रोने के लिए किसके आगे जाये? अंधों के आगे रोते-रोते तो खैर, उसके आंसू पहले ही सूख चुके हैं. सूखें भी क्यों नहीं, देश की किसी भी छोटी या बड़ी अदालत में महंगाई के खिलाफ कोई अर्जी दायर नहीं हो सकती और ज्यादातर न्यूज चैनलों व अखबारों को उसकी चर्चा में कोई संभावना नहीं दिखती. इसलिए उन्होंने उसके लिए अपने दरवाजे यों बन्द कर रखे हैं कि जैसे उन्होंने दरवाजा खोला नहीं कि वह उन्हें भी अपने संक्रमण की जद में ले लेगी.
जहां तक सरकार और उसके समर्थकों की बात है, उन्होंने महंगाई को ‘राष्ट्रवाद’ का ऐसा चोला पहना दिया है कि बहुत से देशवासियों को डर सताने लगा है कि कहीं उसकी शिकायत करने पर देशद्रोही न करार दे दिये जायें.
उनसे यह न पूछा जाने लगे कि जब सरकार देश की सुरक्षा व मजबूती के लिए दिन-रात एक कर रही है और प्रधानमंत्री 18-18 घंटे काम कर रहे हैं तो तुम देश के लिए सौ रुपये लीटर डीजल और पेट्रोल भी नहीं खरीद सकते? कई लोग तो स्वेच्छया एलान कर रहे हैं कि वे देश के लिए किसी भी दर पर पेट्रोल खरीद लेंगे. यह याद दिलाते हुए कि पड़ोसी देश में तो एक ऐसे भी प्रधानमंत्री हुए, जो पेट में पत्थर बांधकर भारत से हजार साल लड़ने की बात किया करते थे. उनके देश के लोग उनका कहा मानते थे तो भला तुम अपने प्रधानमंत्री का कहा क्यों नहीं मानते?
कौन पूछ सकता है उनसे भला कि भारत से हजार साल लड़ने की बात करते करते आज वे और उनपका देश किस हाल में चले गये हैं और इस देश की क्या मजबूरी है कि उनके नक्श-ए-कदम पर चलते हुए उनकी ही गति को प्राप्त होने लग जाये?
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बढ़ते दाम
बहरहाल, कोई नहीं पूछ सकता और महंगाई के क्लेश से किसी की भी धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं लगती. इसलिए सरकार निश्चिंत है ओर उसके माथे पर कतई बल नहीं पड़ रहे. उसने गत बुधवार की सुबह लोगों को महंगाई एक और जोर का झटका दे दिया है-14.2 किलो के घरेलू रसोई गैस सिलेंडर का दाम 50 रुपये बढ़ाकर. इसी तरह पांच किलो वाले घरेलू सिलेंडर के दाम में 18 रुपये की बढ़ोतरी की गई है. इससे पहले जीएसटी परिषद दही, पनीर, शहद, मांस और मछली जैसे डिब्बा बंद और लेबल-युक्त खाद्य पदार्थों पर भी जीएसटी लगाकर उन्हें महंगा करने का इंतजाम कर चुकी है. उसके फैसले के अनुसार सूखे मखाने, सोयाबीन, मटर जैसे उत्पाद, गेहूं और अन्य अनाज, गेहूं के आटे, मुरी, गुड़, और जैविक खाद जैसे उत्पादों पर पांच प्रतिशत जीएसटी लगेगा, जिससे ये सारी उपभोक्ता सामग्रियां महंगी हो जाएगी और जिस तीस प्रतिशत आबादी का पहले जिक्र कर आये हैं, उसकी दुश्वारियां कुछ और बढ़ जाएंगी.
इस अर्थ में कुछ ज्यादा ही कि आज की तारीख में उसके पास ऐसा कोई मंच या संस्था बची ही नहीं है जहां जाकर वह इन दुश्वारियों की बाबत बता सके. पूछे कि जिस जीएसटी को आधी रात को लागू करते हुए प्रधानमंत्री ने आर्थिक आजादी बताया था, अब वही उसे अपने शिकंजे में क्यों जकड़ ले रही है. कांग्रेस ने पूछा भी है कि क्या सरकार भीषण महंगाई के वक्त आटे, गुड़, या छाछ पर पांच प्रतिशत जीएसटी लगाकर लोगों का जीवनस्तर खत्म कर देना चाहती है, तो सरकार को अपनी आदत के अनुसार इस सवाल को सम्बोधित करना गवारा नहीं है.
शायद इसलिए कि वह अपने अनुभव से जानती है कि लोग इसी तरह एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाते रहें तो उन्हें अपनी जिन्दगी की महंगाई, बेरोजगारी व गरीबी और गिरानी जैसी दुश्वारियों का दर्द महसूस नहीं होता. फिर कौन कह सकता है कि इस बहुधर्मी-बहुभाषी देश में ऐसी धार्मिक भावनाओं की कमी है, जिन्हें ठेस लगाई या लगवाई जा सके या फिर उसकी बिना पर धर्मभीरुता, धर्मांधता व कट्टरता वगैरह को भडकाकर उसे लोगों को टकरावों व बंटवारों के हवाले किया और नेकनीयती से देशसेवा करते हुए जनविश्वास अर्जित करने का ‘विकल्प’ बनाया जा सके?
ऐसे में क्या आश्चर्य कि सरकार ‘आग लगाकर जमालो दूर खड़ी’ की शैली में बाड़ ही खेत खाने लगी वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए लोगों की दुश्वारियों से परदा किये अपने रास्ते पर ही बढ़ी जा रही है. अकारण नहीं कि इस रास्ते पर नूपुर शर्मा उसकी अकेली सहयात्री नहीं हैं और भी बहुत से हैं, जो प्यादे से फर्जी होते ही ‘टेढ़ो-टेढ़ो’ चलने लग जाते हैं.
कोर्टों का वह समय, जो अन्यथा आम लोगों के जीवनमरण से जुड़े विवाद निपटाने में इस्तेमाल होता, नष्ट करने से लेकर सड़कों को हंगामों से सुरक्षित न रहने देने और ‘धर्म की रक्षा’ से मिलने वाले राजनीतिक लाभ में सबसे बड़ा हिस्सा अपने नाम कर लेने में उन्हें महारत हासिल है.
काश, सरकार समझती कि इस रास्ते पर चलकर वह न रोजी-रोटी के अभाव व महंगाई से जन्मा त्रास कम कर सकती है और न ही धार्मिक भावनाओं को घायल होने से ही बचा सकती है. क्योंकि धार्मिक भावनाएं परस्पर संदेह के नहीं, स्वामी विवेकानन्द द्वारा शिकागो की ऐतिहासिक विश्व धर्म संसद में उल्लिखित इस मान्यता के समादर में ही सुरक्षित महसिूस कर सकती हैं कि जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है, ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं.
बहरहाल, सरकार जो भी करे, देशवासियों को पहले कभी यह समझने की उतनी जरूरत नहीं थी, जितनी आज है कि वे सरकार के नियोक्ता हैं और जब चाहें उसे हटाकर दूसरी नियुक्त कर सकते हैं, लेकिन सरकार अपने लिए दूसरे देशवासी कतई नहीं चुन सकती.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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