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Thursday, 31 October, 2024
होममत-विमतनागालैंड में उग्रवाद जब चरम पर था तब मैं वहां तैनात था, और तब ‘AFSPA’ भी लागू नहीं था

नागालैंड में उग्रवाद जब चरम पर था तब मैं वहां तैनात था, और तब ‘AFSPA’ भी लागू नहीं था

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में नागा शांति समझौते पर दस्तखत तो हो गए मगर ‘आफ़स्पा’ अब भी वहां लागू है, और हम खुद को सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं!

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि नागालैंड में सुरक्षा बलों के एक ऑपरेशन में हुई चूक के कारण 14 नागरिकों के मारे जाने और इसके बाद हुई हिंसा पर सरकार को अफसोस है. हालांकि, बेहतर तो यह होता कि सरकार उस कानून को लागू करने पर पुनर्विचार करती जिसके कारण देश के उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में इस तरह की वारदात हो जाया करती है. नागालैंड में हुई हिंसा ने सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफ़स्पा) के तहत सुरक्षा बलों को हासिल अनियंत्रित अधिकारों की ओर फिर से ध्यान आकर्षित किया है.

मैं यहां अपने उन अनुभवों को साझा करूंगा, जो मैंने भारतीय सेना को अपनी सेवाएं देते हुए नागालैंड में उग्रवाद विरोधी ऑपरेशनों में शामिल होकर हासिल किए थे, जबकि वहां ‘आफ़स्पा’ लागू नहीं था.

जब नागालैंड में आफ़स्पा लागू नहीं था

1960 के दशक में थोड़े समय के लिए सेना को अपनी सेवाएं देते हुए मुझे म्यांमार की सीमा पर नागालैंड के फेक जिले और मणिपुर के उखरुल जिले में चलाए जा रहे उग्रवाद विरोधी अभियानों में शरीक होने का मौका मिला था. यह 1957 के अंतिम दिनों से लेकर 1968 के मध्य तक की बात है, जब उग्रवाद अपने चरम पर था. पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से हथियारबंद भूमिगत नागा उग्रवादी ट्रेनिंग लेने के लिए म्यांमार होते हुए चीन जाते थे और भारतीय सेना से लड़ने के लिए और बेहतर हथियार तथा गोला-बारूद से लैस होकर लौटते थे.

आफ़स्पा’ मणिपुर में लागू था मगर नागालैंड में नहीं. उग्रवाद विरोधी अभियानों में हमारा सामना इन प्रशिक्षित और हथियारबंद ‘भूमिगत दुश्मनों’ से हुआ करता था. हमें इन्हें पकड़ने और उनके हथियार जब्त करने का आदेश मिला था, उन्हें मारने का नहीं. हमने कई सफल अभियान चलाए थे, और हमें भयानक ‘आफ़स्पा’ कानून की कभी जरूरत नहीं महसूस हुई.

एक समय ऐसा था जब सेना हथियारबंद उग्रवादियों तक को मारना नहीं चाहती थी. और आज, निहत्थे लोग मारे जा रहे हैं. मणिपुर में छह दशकों से और नागालैंड में पांच दशकों से लागू ‘आफ़स्पा’ की क्या यही उपलब्धि है? भारतीय सेना के लिए एक सिद्धांत तय है, जो राष्ट्रीय हितों की रक्षा और बाहरी खतरों से भारत की संप्रभुता, भौगोलिक अखंडता तथा एकता की सुरक्षा के लिए प्रतिकार या युद्ध करने की उसकी भूमिका को परिभाषित करता है. इसकी दूसरी भूमिका सरकारी एजेंसियों को ‘प्रॉक्सी वॉर’ और दूसरे आंतरिक खतरों से निबटने में उनकी सहायता करना या असैनिक अथॉरिटी द्वारा इस काम के लिए बुलाए जाने पर उन्हें मदद करना है. सिद्धांत स्पष्ट है. दूसरी भूमिका तभी निभानी होती है जब किसी रूप में आंतरिक खतरा पैदा होता है, जैसे गंभीर दंगों के दौरान या कानून-व्यवस्था भंग होने पर थोड़े समय के लिए कार्रवाई करना और आतंकवादियों या अलगाववादियों के खिलाफ उग्रवाद विरोधी अभियानों में मध्यावधि के लिए भूमिका निभाना. किसी भी परिभाषा से, उसकी भूमिका दीर्घकालिक नहीं हो सकती.

नागालैंड के मोन जिले में हुई इन मौतों ने उस समय जारी हॉर्नबिल त्योहार के खुशी के माहौल को भंग कर दिया. इस समारोह के केंद्र किसामा गांव में जबकि खुशी से झूमते मेहमानों और पर्यटकों का जमावड़ा लगा होता, वहां इस तरह के पोस्टर लगे थे— ‘खून की प्यासी भारतीय सेना को नागालैंड से हटाओ’, ‘सेना द्वारा बेकसूर लोगों की हत्या की हम निंदा करते हैं’, ‘हमें इंसाफ चाहिए.’ खोखले वादों से असंतुष्ट नागालैंड के लोग ‘आफ़स्पा’ को रद्द करने की एकमत से मांग कर रहे हैं, क्योंकि इसे ही वे इस तरह की हिंसा का मूल कारण मानते हैं.

नागालैंड पुलिस ने इस घटना को ‘इरादतन हत्या’ बताया है. इस मामले में दायर एफआइआर कहती है— ‘करीब 3.30 बजे दोपहर में ओटिंग गांव के कोयला खान मजदूर बोलेरो पिक-अप वाहन में तीरू से अपने गांव की ओर लौट रहे थे. ये लोग ऊपरी तीरू और ओटिंग गांव के बीच लोंखाओ पहुंचे थे तभी सुरक्षा बलों ने बिना किसी कारण उनके वाहन पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं, जिसके फलस्वरूप ओटिंग के कई ग्रामीण मारे गए और कई अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए… गौरतलब है कि वारदात के समय वहां कोई पुलिस गाइड नहीं था और न ही सुरक्षा बलों ने अपने ऑपरेशन के लिए पुलिस थाने से पुलिस गाइड की मांग की थी. इसलिए, जाहिर है कि सुरक्षा बलों का इरादा नागरिकों की हत्या करना और उन्हें घायल करना था.’


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‘आफ़स्पा’ और उसकी पृष्ठभूमि

‘आफ़स्पा‘ को रद्द करने की मांग क्यों की जा रही है, इसे समझने के लिए इतिहास में जाना होगा.

‘आफ़स्पा‘ 1942 में अंग्रेजों द्वारा जारी किए गए अध्यादेश पर आधारित है, जिसका मकसद दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को दबाना था. भारत सरकार ने इस कानून को 1958 में संसद से मंजूर करवा के लागू किया. शुरू में यह केवल उत्तर-पूर्व के असम और मणिपुर में लागू किया गया था और इसका मकसद नागा उग्रवादियों के सशस्त्र विद्रोह को दबाना था. 1972 में इस कानून को उत्तर-पूर्व के मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, मिजोरम, और अरुणाचल प्रदेश में भी लागू कर दिया गया. 1985 से 1994 के बीच पंजाब में आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के लिए इसी तरह का कानून लागू किया गया. ‘आफ़स्पा‘ का एक रूप जम्मू-कश्मीर में भी 1990 से लागू है.

‘आफ़स्पा’ की धारा 3 के तहत किसी क्षेत्र को जब ‘अशांत’ घोषित कर दिया जाता है तब सेना को इस कानून के तहत सारे अधिकार मिल जाते हैं. इस घोषणा की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती. इस कानून की धारा 4(ए) सेना को यह अधिकार देती है कि वह कानून लागू करने की स्थितियों में हत्या के लिए गोली चला सकती है और इस तरह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘जीने के अधिकार’ का उल्लंघन कर सकती है. ‘आफ़स्पा’ की धारा 4(सी) वैयक्तिक स्वतंत्रता तथा सुरक्षा के अधिकार का उल्लंघन करती है. संविधान प्रदत्त यह अधिकार सेना को किसी को महज इस शक के आधार पर मनमर्जी से गिरफ्तार करने का अधिकार देता है कि किसी ने ‘संज्ञेय अपराध’ किया है या भविष्य में करने वाला है.

संवैधानिक उपचार के अधिकार का उल्लंघन ‘आफ़स्पा’ की धारा 6 से होता है, और यह इस कानून के तहत हासिल अधिकारों का दुरुपयोग करने वाले अधिकारियों को कानूनी जवाबदेही से मुक्त करती है. यह धारा राज्य सरकारों को भी केंद्र सरकार की अनुमति के बिना, अपने लोगों की ओर से सेना के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने से रोकती है. चूंकि ‘आफ़स्पा’ बिना वारंट के किसी को गिरफ्तार करने और उसे अनिश्चित काल तक हिरासत में रखने के अधिकार देता है, इसलिए पूछताछ के दौरान यातनाएं देने के कई मामले पाए गए हैं.
इस तरह के क्रूर अधिकारों का दुरुपयोग तो होना ही है.

‘अशांत क्षेत्रों’ में एनकाउंटरों के दौरान हुई मौतों के लिए सुरक्षा बलों को ‘आफ़स्पा’ के तहत गोपनीयता और सुरक्षा हासिल है. सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2016 के अपने एक फैसले में आफ्स्पा के जरिए दिए गए इस इम्युनिटी और गोपनीयता के अधिकार को खत्म कर दिया. जुलाई 2017 में कोर्ट ने उग्रवाद-प्रभावित मणिपुर में सेना, असम राफल्स, और पुलिस द्वारा की गईं एक्स्ट्रा-ज्युडिशियल हत्याओं की सीबीआइ जांच का आदेश दिया था. उसने सीबीआइ के निदेशक को इन कथित हत्याओं की जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआइटी) गठित करने का निर्देश दिया था. यह आदेश एक जनहित याचिका (पीआइएल) के जवाब में दिया गया था जिसमें 2000 से 2012 के बीच मणिपुर में हुई 1,528 एक्स्ट्रा-ज्युडिशियल हत्याओं की जांच करने और मुआवजा देने की मांग की गई थी. इसका क्या नतीजा निकला यह पता नहीं है.

इस कानून से होने वाले खतरों का अनुमान लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमिटी गठित की जिसे ‘आफ़्स्पा’ की समीक्षा करने का काम सौंपा गया. इस कमिटी ने 2005 में ही इस कानून को रद्द करने की सिफ़ारिश की थी. कमिटी ने 147 पेज की अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘यह कानून कई दृष्टियों से काफी अधूरा, नीरस, और अपर्याप्त है… जो भी कारण हो, यह कानून अत्याचार का प्रतीक बन गया है, नफरत की वजह और भेदभाव तथा मनमानी का साधन बन गया है.’

‘आफ़स्पा’ को बनाए रखने के पक्ष में सेना ने जो तर्क पेश किया था उसे खारिज करते हुए कमिटी ने कहा कि अच्छी मंशा से काम करने वाले सैनिकों को 1967 के ‘यूएपीए’ कानून की धारा 49 के तहत सुरक्षा हासिल है. कमिटी ने इस कानून में ऐसे संशोधन के सुझाव भी दिए ताकि ऐसे उपाय शामिल किए जाएं जिनके जरिए, सेना द्वारा आतंकवादी गतिविधियों से लड़ने और आम लोगों को संभावित उत्पीड़न से बचाने के लिए की गई तैनाती के दौरान की जाने वाली मंजूरशुदा कार्रवाइयों का नियमन किया जा सके.

क्या हम सबसे बड़े लोकतंत्र हैं?

लंबे समय तक ‘आफ़स्पा’ के अधीन रहने के कारण हमारे सीमावर्ती राज्य सेना के कब्जे में हो चुके हैं. इतने सालों से राजनीतिक नेता सेना को एक निरंकुश राज्यसत्ता स्थापित करने का साधन बनाते रहे हैं. ऐसा लगता है कि सेना के कुछ बड़े अधिकारी भी ‘फौजी देशभक्ति’ के भ्रम में ऐसे नेताओं की मदद कर रहे हैं. यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में हुए 2015 के नागालैंड शांति समझौते के बावजूद यह कठोर कानून कायम है. और हम दावा करते हैं कि हम दुनिया के ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ हैं!

(एमजी देवसहायम एक रिटायर्ड आईएएस ऑफिसर और पीपल-फर्स्ट के चेयरमैन हैं. उन्होंने भारतीय सेना के लिए भी अपनी सेवाएं दी हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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