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Wednesday, 8 October, 2025
होममत-विमत‘आई लव मोहम्मद’ पैगंबर के नाम की सस्ती राजनीति है, इसे सड़कों पर न घसीटें

‘आई लव मोहम्मद’ पैगंबर के नाम की सस्ती राजनीति है, इसे सड़कों पर न घसीटें

मुसलमानों को सोचना चाहिए कि धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन सेक्युलरिज़्म — यानी वह विचार जिसमें उनका सबसे बड़ा हित है — को मज़बूत करता है या कमज़ोर.

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“आई लव मोहम्मद”. क्या यह मुसलमानों का “जय श्री राम” का जवाब है? अगर हां, तो यह कितना बेकार है! क्या वे टकराव की बजाय समझौते की राह नहीं अपना सकते थे? अगर वो कहते, “आई लव राम”, तो इसका असर ज़्यादा होता, लेकिन क्या वो कह सकते थे? क्या उनकी धर्मशास्त्र, विचारधारा, धार्मिक विमर्श, राजनीतिक दृष्टिकोण और सामाजिक सीमाएं उन्हें राम के प्रेम को खुले तौर पर दिखाने देतीं?

दूसरी तरफ, हिंदू अपने संस्कार के अनुसार पैगंबर मोहम्मद और अन्य सभी धार्मिक हस्तियों का उतना ही सम्मान करते हैं जितना वे अपने धर्म के लोगों का करते हैं. वे कभी भी पैगंबर का नाम बिना सम्मान सूचक शब्दों जैसे ‘हज़रत’ और ‘साहेब’ के नहीं लेते.

हिंदू कवियों की लंबी सूची है जिन्होंने पैगंबर मोहम्मद की स्तुति में उर्दू कविता की शैली नात में बड़ी रचनाएं छोड़ी हैं. चंद्र प्रकाश जौहर बिजनौरी की यह दोहा इस बात को स्पष्ट कर देता है:

मैं हिंदू हूं मगर ईमान रखता हूं मोहम्मद पर;
कोई अंदाज़ तो देखे मेरी काफिर अदाई का.

एक अन्य कवि, चौधरी दिल्लू राम कौसरी, ने 1924 में हिंदू की नात और मनकबत नामक संग्रह प्रकाशित किया. सिख कवि कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी सेहर ने पैगंबर को इस तरह प्यारे शब्दों में सराहा:

इश्क हो जाए किसी से कोई चारा तो नहीं;
सिर्फ मुस्लिम का मोहम्मद पे इजारा तो नहीं.

यह सोचना मुश्किल है कि हिंदू को मुसलमान के अपने पैगंबर के प्रति प्रेम के इस भाव में कोई आपत्ति हो और भले ही इब्राहिमी धर्मों द्वारा उसे बहुदेववादी माना जाता हो, हिंदू को सबसे अच्छा ‘पॉलीमॉर्फिक मोनॉथिस्ट’ कहा जा सकता है. वह एक ही सर्वोच्च सत्ता को मानता है, जो कई रूपों, देवी-देवताओं या आध्यात्मिक वास्तविकताओं में प्रकट होती है, बजाय इसके कि उसका कठोर, एकल रूप हो. दिव्यता की इस विविधता को स्वीकार करने की भावना ऋग्वेद के इस सूत्र में संक्षेपित है:

“एकम सत विप्रा बहुधा वदन्ति” (सत्य एक है, ज्ञानी लोग इसे कई रूपों में कहते हैं).

भक्ति या युद्ध घोष?

हिंदू और मुसलमान में एक बड़ा फर्क यह है कि हिंदू यह नहीं देखता कि कौन क्या मानता है और कौन कैसे पूजा करता है. मुसलमान, दूसरी तरफ, दूसरों के विश्वास और पूजा में दखल देता है और उन्हें अपनी राह पर लाने का प्रयास करता है.

हिंदू हर धर्म को उसके अनुयायियों के लिए उतना ही सही मानता है जितना वह अपने धर्म को अपने लिए सही मानता है. वह हर धार्मिक व्यक्ति का सम्मान करता है और किसी की तिरस्कार नहीं करता.

तो फिर ये ‘आई लव मोहम्मद’ वाले मुसलमान अपने पैगंबर के प्रति सार्वजनिक प्रेम (पीडीए) दिखाकर किसे प्रभावित करना चाहते हैं? क्या यह सच्ची भक्ति है या राजनीतिक संकेत? अगर यह राजनीतिक है, तो क्या इसे उसी सम्मान के साथ लेना चाहिए, जैसा हिंदू संस्कृति में इस्लामी भक्ति को देती आई है? क्या उन्होंने जब मस्जिद या दरगाह के पास से गुज़रे हैं, बिना सोचे-समझे हाथ जोड़कर सिर झुकाया नहीं? क्या उन्होंने रेलवे प्लेटफॉर्म पर या ट्रेन की गली में नमाज़ करने वालों के लिए जगह नहीं बनाई? क्या रमजान के दौरान रोज़ा रखने वाले कर्मचारी के प्रति नरमी नहीं दिखाई? क्या वे कव्वालियों को सुनकर सम्मोहन में नहीं चले जाते जिनमें से अधिकांश पैगंबर मोहम्मद और इस्लामी आध्यात्मिकता की स्तुति में डूबी होती हैं, जैसे ताजदार-ए-हरम या भर दो झोली मेरी या मोहम्मद? कुछ में तो कुरान की आयतें भी होती हैं, जो अल्लाह की सर्वशक्तिमत्ता दिखाती हैं, जैसे कुन फया कुन.

और नहीं, यह इस्लाम की वर्चस्वता को मान लेना नहीं है, जैसा कोई आम मुसलमान सोच सकता है. यह भारतीय संस्कृति की सार्वभौमिकता और हिंदुओं के बड़े दिल की निशानी है.

तो जब हिंदुओं ने पैगंबर के नाम का इतना सम्मान किया है कि वह किसी विवाद से ऊपर है, तो अचानक ये ‘आई लव मोहम्मद’ जुलूस, प्रदर्शन, बैनर, स्टिकर, सोशल मीडिया पोस्ट और व्हाट्सएप डीपी क्यों निकल रहे हैं?

कोई पूछ सकता है कि यह कथित प्रेम व्यक्त करना भक्ति का कार्य है, विश्वास की पेशकश है, या युद्ध घोष? क्या “अल्लाहु अकबर”, जिसका अर्थ है “ईश्वर महान है”, इस्लाम की शुरुआत से ही युद्ध घोष नहीं रहा है?

मुसलमानों के दिल में गुस्सा

इस्लाम मोहम्मद के बारे में है. उनके बिना इस्लाम नहीं है. हर कोई, हर धार्मिक इंसान, भगवान में यकीन रखता है; लेकिन मुसलमान वह है जो मोहम्मद में भी यकीन करता है. इस्लाम की प्रमुख विदुषी Annmarie Schimmel की किताब And Muhammad is His Messenger का सबटाइटल है, The Veneration of the Prophet in Islamic Piety.

पैगंबर के नाम का उच्चारण एक पवित्र अनुष्ठान है, जो हर नमाज़ के दौरान गंभीरता के साथ किया जाता है. यह सुझाव दिया जाता है कि इसे बोलते समय व्यक्ति पाक हो, यानी वज़ू किया हुआ हो. हर बार उनका नाम लेते समय दरूद और सलाम के साथ कहा जाता है. उनका नाम ऐसे ही नहीं लिया जाता और उनके बारे में यूं ही बात नहीं की जाती.

तो फिर इस सड़क छाप इमोजी वाले प्रेम का क्या मतलब है? अगर यह मोहम्मद के नाम की सस्ती राजनीति नहीं है, तो और क्या है?

क्या यह #I_Love_Muhammad उस हवा में तिनके जैसा संकेत है, जो मुसलमानों के दिल में सरकार के खिलाफ उबाल दिखाता है, जिसे वे अपनी विचारधारा के मुताबिक स्वीकार नहीं कर सकते और जिसके खिलाफ वे हमेशा विद्रोह के लिए तैयार रहते हैं?

क्या यह एक और बेतुकी, निरर्थक मुहिम बनने वाली है, जैसे सीएए के खिलाफ हुई थी? उस अधिनियम ने केवल पड़ोसी मुस्लिम देशों से धार्मिक उत्पीड़न से भाग रहे लोगों को तेज़ नागरिकता देने का विकल्प दिया था. इसमें भारतीय मुसलमानों के खिलाफ कुछ भी नहीं था.

क्या सेक्युलर राज के दौरान आम रहे सांप्रदायिक संघर्ष को फिर से जगाने की ज़मीन तैयार की जा रही है? आखिरकार, हिंदू इस्लामिस्ट—लेफ्ट-लिबरल प्रतिक्रियावादी—की यह पुरानी आशा रही है कि वे मुसलमानों को मोदी सरकार के खिलाफ बड़े विद्रोह के लिए उकसाएं. अगर प्रतिक्रिया हुई, जैसा कि अनिवार्य रूप से होती, तो सरकार को बहुमतवादी और फासीवादी बताया जा सकता है. इससे सरकार की वैधता पर सवाल उठ सकता है और लोकतंत्र के राजवंशियों और गणराज्य के शाहों की वापसी का रास्ता खुल सकता है.

जैसा कि वे सत्ता में लौटने के लिए बेताब हैं, यह स्थिति उन्हें उपयुक्त लगती है. नेपाल में सरकार का गिरना उन्हें यह उम्मीद देता है कि वे यहां भी इमोजी अभियान के माध्यम से ऐसा कर सकते हैं. उन्हें परवाह नहीं कि इस साहसिक कदम से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच संघर्ष हो और गृह युद्ध जैसी स्थिति बन जाए.

एक भयावह अभियान चल रहा है, जिसमें ‘वोट चोरी’ जैसे नारे देकर चुनावी प्रक्रिया में संदेह बोया जा रहा है. इसके साथ ही सनकी डॉनल्ड ट्रंप द्वारा भारत के खिलाफ टैरिफ युद्ध ने ऐसा माहौल बना दिया है, जिसमें विरोधी-मोदी ताकतें धार्मिक कवच में सुरक्षित होकर आक्रामक होने में सहज महसूस कर रही हैं.

दारुल हरब मानसिकता

यह साफ है कि मुसलमानों के दिल में मोदी सरकार के खिलाफ काफी नाराज़गी है, लेकिन यह जानना भी ज़रूरी है कि क्या उनकी कोई खास शिकायत है जिसे हल किए जाने की ज़रूरत है? क्या उनके साथ कोई भेदभाव हो रहा है, या उन्हें दोयम दर्जे पर ला दिया गया है? या उनकी पूरी शिकायत यह है कि यह सरकार, चाहे उनके वोट बैंक के बावजूद चुनी गई हो, उनके सामने चापलूस बनने की ज़रूरत नहीं समझती? पहले प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री उन्हें राजा बनाने वालों की तरह सम्मान देते थे. अगर यही उनकी शिकायत है, तो उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि खुश करने की उम्मीद न केवल असंवैधानिक और गैर-लोकतांत्रिक है, बल्कि अब यह यथार्थवादी भी नहीं है.

जो कोई भी भारतीय इतिहास को ध्यान से पढ़ता है, वह गवाह होगा कि ‘आई लव मोहम्मद’ आंदोलन के इर्द-गिर्द जो धार्मिक रट बन रही है, वह 2014 से पहले के धर्मनिरपेक्ष राज में मुसलमानों के कथाकारों का आम तरीका था. उस समय मुसलमान नेतृत्व को बहुत सम्मान मिला, लेकिन उनकी राजनीतिक भाषा इतनी ही इस्लामी शक्ति शास्त्र में डूबी हुई थी, जितनी अब है—मुस्लिम युवाओं की चेतना के व्यापक इस्लामीकरण के बाद.

उनकी बातों की प्रवृत्ति, चाहे सार्वजनिक हो या निजी बातचीत में, हमेशा राज्य-विरोधी रही है—यानी भारतीय राज्य के खिलाफ. यह अनिवार्य है, क्योंकि मुसलमान विचारों का धर्मनिरपेक्षीकरण न होने के कारण आधुनिकता को फिकह या इस्लामी तौर-तरीकों/कानून के नज़रिए से ही देखते हैं. इस लिहाज़ से, मुसलमान उस राज्य के साथ खुद को जोड़ नहीं पाते जो मुस्लिम शासन के अधीन नहीं है.

यह एक युद्धभूमि है, दारुल हरब, जहां वे हमेशा युद्ध की स्थिति में रहते हैं—मनोवैज्ञानिक रूप से, अगर शारीरिक रूप से नहीं. हालांकि, अब इसे खुले तौर पर नहीं बताया जाता, इसका तर्क मुस्लिम मनोविज्ञान में गहराई से बैठा है. इसलिए हैरानी नहीं कि उनकी राजनीतिक भाषा हमेशा श्रेष्ठतावादी, आक्रामक और सैन्यतावादी रही है. मानसिक रूप से, वे हमेशा हिंदू धर्म के खिलाफ और इसलिए हिंदुओं और भारतीय राज्य के खिलाफ युद्ध की मुद्रा में रहते हैं, जो लोग इस स्थिति को सहानुभूतिपूर्वक देखते हैं, उसे उनकी ‘घेराबंदी मानसिकता’ कहते हैं.

मुसलमानों की पीड़ित भावना

भारत में मुसलमानों के शासन के अंत और राष्ट्र राज्य की स्थापना ने न केवल मुसलमानों को राज्य के साथ जुड़ाव की भावना से अलग कर दिया, बल्कि उन्हें गहरी पीड़ित भावना से भी भर दिया. संविधान द्वारा गारंटीकृत समानता को वे श्रेष्ठता के पद से गिरावट के रूप में समझते हैं.

मुसलमानों ने पीड़ित होने की भावना को आत्मसात किया है, न कि इसलिए कि वास्तव में उनका उत्पीड़न हो रहा है, भेदभाव किया जा रहा है या उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता से वंचित किया जा रहा है, बल्कि इसलिए कि भारत एक मुस्लिम राज्य नहीं है. चूंकि, इस्लामी राजनीतिक सिद्धांत गैर-मुसलमानों को समानता नहीं देता, इसलिए इसके अनुयायी आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष राज्य द्वारा दी गई समानता को विचारधारात्मक रूप से स्वीकार करने में असमर्थ हैं.

हालात के दबाव में, मुसलमानों के भारतीय राज्य के प्रति धार्मिक विरोध को कम करने के कुछ व्यावहारिक, हालांकि, अधूरे प्रयास किए गए. कुछ कानूनी बदलाव करके भारत के चरित्र को दारुल हरब से बदलकर दारुल अमान (शांति भूमि) या दारुल अहद (सहमति भूमि) बनाने की कोशिश की गई. ये प्रयास असफल साबित हुए क्योंकि उनमें दृढ़ता और सैद्धांतिक आधार की कमी थी. यह केवल दिखावा था. असली दरकार थी इस्लामी सोच को बहुलवादी दृष्टिकोण के अनुसार पुनर्गठित करने की, इस्लाम की श्रेष्ठतावादी भावना को त्यागने और धर्मों की समानता को स्वीकारने की. तभी कोई सुधार अर्थपूर्ण हो सकता था.

एक मूल सवाल उठता है. भारत पर इस्लामी नज़र क्यों होनी चाहिए, और देश के चरित्र को किसी बाहरी धर्म के मानदंडों से क्यों आंका जाना चाहिए? बल्कि, क्यों इस्लाम को भारतीय दृष्टि से नहीं देखा जा सकता और भारतीय धर्म की कसौटी पर परखा नहीं जा सकता? ऐसा नहीं हो सका क्योंकि इस्लाम और भारत के बीच सदियों तक सत्ता का असंतुलन रहा, जहां इस्लाम शासक था और भारत शासित. इस्लाम ने भारत को काफी बदल दिया, लेकिन खुद अपरिवर्तित रहा. इसलिए हमें ताराचंद की Influence of Islam on Indian Culture (1936) जैसी किताबें मिलती हैं, लेकिन शायद ही कोई किताब मिले जिसका शीर्षक Influence of India on Islam हो. रोचक बात यह है कि जो भी भारतीयता इस्लाम में समाई, उसे बिद‘अत माना गया—एक नवाचार जो इस्लाम के मूल रूप को विकृत करता है. दूसरी तरफ, इस्लाम का भारतीय संस्कृति पर कथित प्रभाव—समानता का सिद्धांत सबसे प्रचारित है—को भारत की मुक्ति के रूप में मनाया जाता है.

इन संस्थाओं के बीच सत्ता का यह असंतुलन आज तक जारी है, जो विद्रोही झड़पें हम समय-समय पर देखते हैं, वे उनके अधिकारों की विरासत—एक बार शासक रहने के लिए पेंशन की रक्षा के लिए स्वचालित प्रतिक्रियाएं हैं. इन अधिकारों में शामिल हैं सार्वजनिक स्थान पर इस्लाम का दावा—सड़क किनारे बड़ी मस्जिदें, सड़क पर नमाज़, शहरों की गलियों में धार्मिक जुलूस, लाउडस्पीकर पर अज़ान, इस्लामी साहित्य में हिंदू धर्म का अपमानजनक चित्रण, और पहचान आधारित राजनीति की आक्रामक भाषा.

पैगंबर के नाम को हथियार न बनाएं

‘आई लव मोहम्मद’ आंदोलन के पीछे का अनकहा एजेंडा भारत में सार्वजनिक स्थानों पर इस्लाम के बिना विवाद के दावे को स्थापित करना है. यह सदियों के शासन की विरासत है. हालांकि, मुसलमानों को यह सोचना ज़्यादा समझदारी होगी कि धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन सेक्युलरिज़्म को मज़बूत करता है या कमज़ोर—उस विचार में जिसमें उनका सबसे बड़ा हित है.

भले ही उनके लेफ्ट-लिबरल संरक्षक उनसे जो अपेक्षा रखते हों, मुसलमानों को यह आत्म-परीक्षण करना चाहिए कि क्या पैगंबर मोहम्मद के नाम को सड़क राजनीति में हथियार बनाना सही है. अगर किसी पवित्रता का राजनीतिकरण किया जाता है, तो यह अनिवार्य रूप से एक विरोधी कहानी को भी जन्म देगा और इससे नियंत्रण में मुश्किल वाली डाउनवर्ड स्पाइरल शुरू हो सकती है. यहां तक कि इस्लामिस्ट, जो इस्लाम को राजनीतिक धर्म मानते हैं और पैगंबर को राजनीतिक हस्ती समझते हैं, कभी इतने लापरवाह नहीं हुए कि उनका नाम इस तरह की नीच सड़क राजनीति में खींचा जाए.

सच्चे मुसलमान के लिए पैगंबर मोहम्मद का नाम बहुत ही उच्च स्थान रखता है. कुरान (94:4) में उनके बारे में कहा गया है: “Wa Raf’ana Laka Zikrak” (हमने तुम्हारा नाम ऊंचा किया). इसलिए प्रिय मुसलमानों, इसे नीचा मत गिराइए.

(इब्न ख़ल्दून भारती इस्लाम के छात्र हैं और इस्लामी इतिहास को भारतीय नज़रिए से देखते हैं. उनका एक्स हैंडल @IbnKhaldunIndic है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

संपादक का नोट: हम लेखक को अच्छी तरह से जानते हैं और छद्म नामों की अनुमति तभी देते हैं जब हम ऐसा करते हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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