ताइपाई में बतौर मैंडारीन भाषा की छात्रा मुझसे अमूमन कहा जाता है कि मैं बीजिंगर जैसे शब्दों में नाहक ‘र’ लगा देती हूं. मेरे टीचर टोकते हैं, ‘ताईवान में हम ऐसा नहीं बोलते.’
यह तो महज एक मिसाल है कि मैं लगभग हर रोज वाकिफ होती हूं कि ताईवानी और चीनी में कैसे बारीक फर्क है. बाइसाइकिल, घंटे, छुट्टियां, सब-वे तक के लिए जो मैंने पहले सीखा था, वह सब अलग-सा है. यह ताईवानी लोगों की विनम्र कोशिश है, ताकि मैं जान सकूं कि यह वैसा ही है, जैसा हम भारतीय भाषाओं के मामले में कहते हैं, ‘एक जैसा, मगर अलग.’
मुझे मैंडारीन के कुछ शब्द सीखने का पहला सबक अप्रैल 2019 में बीजिंग के दोंगझीमन इलाके के एक बेसमेंट लैंग्वेज स्कूल में मिला था. मेरी टीचर अनहुई प्रांत की चीनी महिला थीं. वे बीजिंग की एक यूनिवर्सिटी में यह सीख कर आई थीं कि विदेशियों को मैंडारिन कैसे सिखाई जाए. उनका उच्चारण उत्तर का था और मेरा अंदाजा है कि उनकी वजह से मेरा भी वैसा ही था.
करीब दो साल तक वे मेरी करीबी दोस्त रही हैं. मैं उनसे कहा करती कि कितनी कठिन भाषा है और वह मुझे अपने खराब रिश्तों के बारे में बताती है. इन दिनों वे पारंपरिक चीनी लिपि में चुटकुले मुझे टेक्स्ट करती हैं-ताईवान में चीन की सरलीकृत लिपी के बदले इसी लिपि को पसंद किया जाता है-फिर मैं उन चुटकुलों को ताईवानी दोस्तों को बढ़ा देती हूं. वे पारंपरिक लिपि इसलिए नहीं लिखती हैं कि उन्हें कुछ साबित करना है, बल्कि किसी अच्छी टीचर की तरह वे चाहती हैं कि मेरी पढ़ाई आसान हो.
ट्रेन में बातचीत
इस पिछले सोमवार को सुर्य नव वर्ष की पूर्व-संध्या पर मैं द्वीप के पश्चिमी तट के साथ ताइपाई से दक्षिण की ओर जाने वाली हाइ-स्पीड रेलगाड़ी में एक ताईवानी आंटी से मिली. वे मुझसे अनवरत बात किए जा रही थीं, जैसे पूरी एशिया में सह-यात्रियों के साथ लोग किया करते हैं. हमसे आगे अगली कतार में बैठी उनकी बेटी बार-बार मुडक़र अपनी मां को टोकती रही कि कोई ‘विदेशियों’ से इतने सवाल पूछता है क्या.
हम पूरी तरह मैंडारिन में ही बातें कर रहे थे. जवाब देने में मैं लडख़ड़ाने लगती तो वे बड़े प्यार से कई बार मेरा ग्रामर भी ठीक कर दे रही थीं. हमने यात्रा, संस्कृति, भोजन और कपड़ों पर बातें कीं और एक मौके पर यह कहकर कि मैं ‘हेल बेरी’ जैसी दिखती हूं, उन्होंने हम दोनों की सेल्फी उतारी और अपनी एक दोस्त की सोशल मीडिया ग्रुप में डाल दिया. बस एक बार मैंने पूर्वी एशियाई टूर ग्रूप के बारे में कुछ कहा तो उन्होंने प्यार से कहा, ‘लेकिन मैं चीनी नहीं, ताईवानी हूं.’
जब मैं दक्षिणी ताईवान के चियायी में ट्रेन से उतरी, जहां एक दोस्त के परिवार के साथ नव वर्ष के जश्न में शामिल होना था, तो मुझे ख्याल आया कि यह बातचीत उससे कितनी अलग है, जब मैं शांक्सी प्रांत के पिंगयाओ में हाइ-स्पीड ट्रेन में सह-यात्री से मिली थी. 2019 में मेरी मैंडारिन भाषा की जानकारी अभी शुरुआती ही थी. मैं और मेरा सह-यात्री वीचैट के जरिए बात करने को राजी हो गए. हम एक-दूसरे के बगल में चुपचाप बैठे टेक्स्ट करते रहे. उसने कहा, ‘आप चाय लेना चाहती हो तो ट्रेन के डिब्बे के अगले हिस्से में गरम पानी है.’
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भाषा के साथ संघर्ष
यही स्थिति जुली के साथ थी. वह चीन के छोटे-से कस्बे में रियल स्टेट एजेंट है और उसने विचित्र स्वाद वाले पूर्वी एशियाई सोया मिल्क से मेरा परिचय कराया. मैं उसके गृह-शहर हेबी प्रांत के कांगझू में भारतीय मेडिकल छात्रों से बातचीत करने गई थी, जो एक बड़े सरकारी अस्पताल में इंटर्नशिप कर रहे थे. वह उनमें से एक के साथ लगातार बैडमिंटन खेला करती थी और खुशी-खुशी मेरी मेजबानी के लिए तैयार हो गई.
जून 2019 में मैं बड़े बेमन से सोया मिल्क की चुस्की लेते हुए उसकी कई मंजीली ऊंची इमारत की खिडक़ी से नीचे एक अंतिम संस्कार को देख रही थी. जुली और मैं दोनों ही अलग-अलग भाषाएं सीखने के दौर में थे, वह अपनी अंग्रेजी को लेकर असहज थी और मैं मैंडारिन को लेकर. लेकिन मुझे मालूम था कि वह कड़ी महनत कर रही थी, जो उसके कोच की अंग्रेजी की मोटी टेक्स्टबुक से जाहिर हो रहा था, जिसमें कई जगह लकीरें खींची हुई थीं और छोटी-छोटी टिप्पणियां लिखी हुई थीं. अंग्रेजी उसे उस नौकरी से छुटकारा दिल देती, जिससे वह नफरत करती है. उस वक्त तक मैं जुली से मैंडारिन में पानी तक भी बमुश्किल ही मांग पाती थी, दूसरी बातों या उसकी आंकांक्षाओं के बारे पूछना तो दूर की बात थी.
पूर्वी एशिया में-2019 में चीन और 2021 में ताईवान-के दो दौरों में मैं पृष्ठभूमि के शोर-शराबे जैसा जो सुना करती थी, वह पूरे मायने के साथ पूरे वाक्य में तब्दील हो गया है. अब, बातचीत में एक सहजता है, जिससे मैं ग्रामर संबंधी तमाम गलतियों के बावजूद भाषा के जरिए संस्कृति की समझ पा सकती हूं.
बतौर पत्रकार मैं स्वीकार करूंगी कि चीन के मुकाबले ताईवान के एकदम अपरिचित लोगों से राजनैतिक बातचीत करना ज्यादा आसान है. विदेशी ताईवान को ज्यादा ‘सहज’ बताते हैं, फिर भी मैंने खुद से यह देखा कि उनका भरोसा जीतने के लिए इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप कहां से हैंं. मसलन, बीजिंग में मेरी मैंडारिन टीचर को ही लें. हाल में उन्होंने चीनी लोगों को यह बताने के लिए ऑनलाइन काफी समय जाया किया कि ‘सभी भारतीय एक जैसे नहीं होते.’ चीनियों का मानना है कि भारतीय विदेश में अच्छे हाउसमेट नहीं होते. उन्होंने फिर मुझे पारंपरिक लिपि में टेक्स्ट किया, ‘लोग कैसे ऐसी बातें कर सकते हैं!’
(सौम्या अशोक पत्रकार और लेखक हैं. वे 2019 में बीजिंग में इंडियन एक्सप्रेस की संवाददाता थीं. फिलहाल वे नेशनल ताईवान यूनिवर्सिटी में चीनी भाषा पढ़ रही हैं और ताईवान के ताइपाई में रहती हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @sowmiyashok.)
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