जो खबरें आ रही हैं उनसे तो यही लगता है कि चीन पैंगोंग झील के किनारे अपनी सेना को भेजना जारी रखे हुए है और तिब्बत के नगारी में पहली बार पक्की छावनी तैयार कर रहा है. यानी साफ है कि तमाम वार्ताओं के बावजूद वह जाड़े में वहां जमे रहने की तैयारी कर रहा है. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा है कि भारत के खिलाफ वहां 60 हज़ार सैनिक जमा हैं. यह इस बात की पुष्टि करता है कि यह कोई छोटा-मोटा संकट नहीं है. भारत में सामरिक योजनाएं बनाने वाले विशेषज्ञ तमाम संभावनाओं के बारे में विचार कर रहे होंगे और दूसरे मंत्रालय तेल का भंडार तैयार करने, फौजी साजोसामान की खरीद कर रहे होंगे और विश्व समुदाय को भी हालात से अवगत कराया जा रहा होगा.
ऐसी स्थिति से निपटने के लिए भारत और नरेंद्र मोदी की सरकार क्या कर सकती है इस पर हजारों शब्द लिखे जा सकते हैं. यह काम विशेषज्ञों का है. लेकिन फैसले करने वालों और जानकार जनता को तो कुछ पन्नों में ही अंतिम समाधान चाहिए, जो उपलब्ध तथ्यों और आंकड़ों पर आधारित हो. यहां मैंने सभी विकल्पों पर विचार करते हुए संक्षेप में यह बताने की कोशिश की है कि सबसे पसंदीदा विकल्प क्या हो सकते हैं.
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एक सीमित युद्ध
सबसे पहले उस विकल्प का जिक्र जिसकी बहुत चर्चा हो रही है. यह विकल्प है भारत और चीन के बीच एक सीमित युद्ध, जिसे एक ऐसी टक्कर के रूप में देखा जाता है जिसका पैमाना, समय, प्रयोग किए जाने वाले हथियार और लक्ष्य कुछ सीमित दायरे में सिमटे होते हैं, जिसे लॉरेंस फ्रीडमैन ‘जान-बूझकर बरता गया संयम’ कहते हैं. ये सीमाएं दोनों पक्षों के राजनीतिक लक्ष्यों से तय होती हैं. इस मामले में घोषित लक्ष्य ये हैं कि भारत अप्रैल से पहले वाली यथास्थिति की बहाली चाहता है और चीन अपनी ‘1959 वाली क्लेम लाइन’ को मान्यता दिए जाने की मांग कर रहा है.
जमीनी तौर पर देखें तो दोनों देश एक संकरी-सी पट्टी पर दावे कर रहे हैं जो चीन को उत्तर के ‘सब-सेक्टर’ और सियाचिन ग्लेशियर तक जाने वाले रास्ते पर नियंत्रण करने की क्षमता प्रदान करेगा. अक्साई चीन के मामले में भारत के इरादों को चीन संदेह की नज़र से देखता है. यह उसके इस ताज़ा बयान से साफ है कि वह ‘अवैध रूप से बनाए गए’ केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख को मान्यता नहीं देता. राजनीतिक लक्ष्य असपष्ट हैं, खासकर चीन के. सहज रूप से यह माना जा सकता है कि उसका लक्ष्य भारत को उसकी औकात बताना, राष्ट्रपति शी जिंपिंग को और ताकतवर बनाना हो सकता है या यह फिर कई मोर्चों पर बुरी नीति का उदाहरण भी हो सकता है. भारत की बात करें तो कोई भी लोकतांत्रिक नेता मात खाने और राजनीति से बाहर होने का जोखिम मोल नहीं लेना चाहेगा. इसलिए केवल ‘सीमित’ लक्ष्य ही नहीं बल्कि युद्ध के कारण होने वाले नुकसान भी कठोर सीमाएं तय कर सकते हैं.
सीमित युद्ध के एक माकूल मिसाल करगिल युद्ध के सटीक आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं लेकिन 1971 के युद्ध को आधार मानते हुए शेखर गुप्ता और रवि रिखे ने 1990 में जो अध्ययन किया था उसके मुताबिक पाकिस्तान के साथ 1000 घंटे के युद्ध में करीब 27,000 करोड़ रुपये मूल्य के नुकसान का अनुमान लगाया गया था. यह राशि कोई छह मंत्रालयों के कुल बजट के बराबर है और यह नुकसान हमें एक दशक पीछे ले जा सकता है. यह सच है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अब फिसड्डी नहीं है बल्कि ‘पीपीपी’ के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी तीन अर्थव्यवस्थाओं में गिनी जाती है लेकिन यह पाकिस्तान से मुकाबले की स्थिति में ही कारगर है. चीन आज दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है. उसके साथ सीमित युद्ध भी दोनों देशों को कमजोर कर सकता है. अपना अंतिम युद्ध उसने 1979 में वियतनाम से लड़ा था लेकिन शायद उसे इसका एहसास नहीं है. यह दोनों देशों के लिए सबसे बुरा विकल्प है.
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बस डटे रहें
दूसरी संभावना यह है कि दोनों तरफ की सेनाएं वर्षों तक डटी रहें और इंतज़ार करें. इस तरह एक नयी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) बन जाए. याद रहे कि सुमदोरोंग चू पर 1986 में जो तनाव शुरू हुआ था उसका 1995 में जाकर निपटारा हुआ. भारतीय सेना सियाचिन में जमी है जो कि 1984 से विवादित इलाका बना हुआ है. जाहिर है हम इंतज़ार करने में माहिर हैं.
लेकिन एक पेच है. विवादित इलाके की भौगोलिक स्थिति के कारण वहां पहुंचना भारतीय सेना से ज्यादा चीन की सेना ‘पीएलए’ के लिए आसान है. भारत के लिए यह एक भारी जद्दोजहद है. इसके अलावा, चीन कभी भी अचानक अपनी सेना का जमावड़ा बढ़ाकर भारत पर दबाव बढ़ा सकता है और इसके बारे में मीडिया को गुप्त खबरें लीक की जा सकती हैं. और यह ऐसे मौके पर किया जा सकता है कि भारत अपने विदेशी साथियों के शरण में जाने की कोशिश न करे. देखिए कि टोक्यो में हाल में ‘क्वाड’ की बैठक में क्या हुआ. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने वहां चीन का नाम तक नहीं लिया. सो, यह चीन के लिए कम खर्चीला मगर ज्यादा फायदेमंद विकल्प है जबकि भारत के लिए बिल्कुल उलटा है.
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‘क्वाड’ को मजबूत करें
तीसरा और दूसरे से जुड़ा विकल्प यह है कि भारत यह मानते हुए ‘क्वाड’ को मजबूत करे कि इसके दूसरे सदस्य—ऑस्ट्रेलिया, शिंजो आबे के बाद का जापान और राष्ट्रपति चुनाव के बाद का अमेरिका— इसके लिए राजी होगा. वे क्वाड के सहयोगियों की ओर से ‘दो मोर्चों’ पर चीन को मुश्किल में डालेंगे— एक तो ‘दक्षिण चीन सागर’ क्षेत्र में सेनाओं की तैनाती करके और दूसरे वियतनामी बंदरगाहों पर तैनाती करके या ताइवान को अहम मदद देकर. चीन के दरवाजे पर हाल में तीन अमेरिकी युद्धक विमानों की तैनाती से संकेत मिलता है कि यह मुमकिन है और यह चीन को नुकसान पहुंचा सकता है.
दबाव की रणनीति के रूप में यह भारत के लिए निश्चित ही फायदे की बात है. लेकिन वास्तविक संकट के समाधान के रूप में क्वाड सदस्यों को दबाव इतना ज्यादा बढ़ाना पड़ेगा कि वह अपनी फौजी ताकत पूरब में केंद्रित करे. यह मुमकिन है, हालांकि तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक नाटो जैसी सख्त सुरक्षा गारंटी की व्यवस्था नहीं बन जाती. भारत में फैसले करने वाले इसमें संकोच कर सकते हैं क्योंकि ‘पश्चिम’ पर उनका ऐतिहासिक रूप से भरोसा नहीं रहा है और इसकी कोई ‘मिसाल’ उपलब्ध नहीं है.
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भारतीय नौसेना को आगे बढ़ाएं
चौथा विकल्प है- जिसकी वकालत विश्लेषक लोग करते हैं कि भारतीय नौसेना को मलक्का जलडमरूमध्य से आगे बढ़ाया जाए ताकि चीन को ‘नापा-जोखा संदेश’ दिया जाए. लेकिन संकट की स्थिति में यही काफी नहीं होगा अगर बात धक्के देने से आगे बढ़े तो भारत को इससे थोड़ा बढ़चढ़कर ही जवाब देना होगा. यह वास्तविक रूप से मुमकिन नहीं है. इसके अलावा मलक्का जलडमरूमध्य में चीन के पोतों की भारी आवाजाही है.
यह मान भी लें कि इंडोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर की आपत्तियों की भारत अनदेखी भी कर दे लेकिन नौसेना मामलों के जानकार चेतावनी देते हैं कि ‘दुश्मन की जहाजरानी को कमजोर’ करके उसे ‘नुकसान’ पहुंचाने में लंबा समय लगता है. जैसे ईरान पर आर्थिक प्रतिबंधों को असरदार बनाने में लगा. चीन की सामरिक तैयारी में 83 दिनों तक तेल की मांग पूरी करने का भंडार शामिल है. भारतीय अर्थव्यवस्था इसके एक चौथाई दिनों के लिए भी ‘हॉट वार’ को झेल नहीं सकती. वैसे, असैनिक व्यापारिक पोतों के आवागमन की सूचनाओं और उपग्रह आंकड़ों के गुप्त आदान-प्रदान के मद्देनज़र लंबे तनाव के दौर में यह संभव है.
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मिले-जुले किस्म का युद्ध
पांचवां विकल्प है- मिले-जुले किस्म का युद्ध (हाइब्रिड वार). जिसमें भारत में टीवी पर हंगामी बहसें, आला फौजी अफसरों के उद्बोधन आदि शामिल हैं. यह सेना की गलती नहीं होती. सीधी बात यह है कि ‘हाइब्रिड’ का अर्थ है गुप्त गतिविधियां, जैसे बगावत, मनोवैज्ञानिक युद्ध, धोखा, साइबर युद्ध आदि. यह सब दुश्मन से सीधा मुकाबला किए बिना उसे हराने के लिए किया जाता है. इसके लिए ‘पूरी सरकार’ को मिलकर काम करना होता है जो कि नौकरशाही के अंदर के झगड़ों के कारण हमेशा मुश्किल होता है.
चीन ने ‘थ्री वारफेयर स्ट्रेटेजी’ (टीडब्ल्यूएस) के जरिए इस तरीके को 2013 में आगे बढ़ाया. इसमें देश के अंदर और बाहर जनमत को प्रभावित करना, दुश्मन के मन में यह खौफ पैदा करना शामिल है कि वह ‘ज्यादा ताकतवर’ दुश्मन से लड़ने में अक्षम है, ‘दक्षिण चीन सागर’ हो या लद्दाख, सब जगह चीनी दावों की वैधता पर ज़ोर देने के लिए कानूनी जंग छेड़ना भी इसमें शामिल है. जब भारत में कोई अखबार चीन की तारीफ में एक पन्ने का लेख छपता है तो यह ‘टीडब्ल्यूएस’है. कोई रिटायर्ड जनरल जब भारत की हार की भविष्यवाणी करता है तब यह भी ‘टीडब्ल्यूएस’ ही है. ऐसा ही उस राजनीतिक नेतृत्व के बारे में कहा जाएगा जो पूरे मामले को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश करता है.
चीन कई मामलों को लेकर दबाव में है चाहे वह तिब्बत हो, शिंजियांग हो या फिर हांगकांग. और इसमें भारत उसके खिलाफ अपनी ‘टीडब्ल्यूएस’ रणनीति अपना सकता है. भारत को बस अपना फोकस तय करना है, सही औज़ार अपनाने हैं और सही दिशा तथा सही गति से अपने प्रयासों को आगे बढ़ाना है. व्यवस्थाएं मौजूद हैं, बस उनका इस्तेमाल करना है.
सीधी-सी बात यह है कि चीन लद्दाख की स्थिति को लेकर हमारे साथ खेल कर रहा है और अपने मनोवैज्ञानिक प्रहारों को मजबूती दे रहा है. ऐसी स्थिति में ‘वार्ता’ से हमें बस अतिरिक्त समय मिल सकता है और कुछ नहीं. लेकिन इस समय का उपयोग ऐसी लचीली रणनीति बनाने में किया जा सकता है जिसमें उपरोक्त अनुकूल विकल्पों को आजमाया जा सके. लफ़्फ़ाजियों और ‘पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशनों’ को भूल जाइए, यह समय चीन को उसकी ही चालबाजियों के मुताबिक जवाब देने का है जबकि हमारे पास उस पर हमले करने के कई मुद्दे उपलब्ध हैं.
(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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