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Saturday, 21 December, 2024
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भारत की वैक्सीनेशन नीति पर PM मोदी के दावे कितने सही, वैक्सीन को लेकर ‘अवैज्ञानिक दावे’ खतरनाक

क्या कोरोना की पहली लहर से निपटने के लिए अंधविश्वास का इसलिए सहारा लिया गया कि विज्ञान के डोमिनेंट डिस्कॉर्स से इतर किसी धर्म विशेष के अंधविश्वास की प्रथा को सेलिब्रेट किया जा सके?

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कोरोना की दूसरी लहर ने ऐसा कहर बरपाया कि देर से ही सही लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने थाली-ताली जैसे कार्यक्रमों के बजाए वैज्ञानिक समाधान यानि वैक्सीन और ऑक्सीजन की उपलब्धता पर बल देना शुरू किया.

मोदी ने पिछले साल रात 9 बजे 9 मिनट तक दिया जलवा कर लोगों से कोरोना को हराने का आह्वान किया था वहीं अब वैक्सीन को लेकर वैज्ञानिक अनुसंधान का भी क्रेडिट लेने को वो व्याकुल जान पड़ते हैं. बेकरारी ऐसी है कि उन्हें तथ्य को भी उलटने पलटने से परहेज़ नहीं.

प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दिनों राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा, ‘यदि आप भारत में टीकाकरण के इतिहास को देखें, चाहे वह चेचक, हेपिटाइटिस बी या पोलियो का टीका हो, तो आप देखेंगे कि भारत को विदेशों से टीके प्राप्त करने के लिए दशकों तक इंतज़ार करना पड़ा. जब अन्य देशों में टीकाकरण कार्यक्रम समाप्त हो गए, तो हमारे देश में शुरू भी नहीं हो सका था.’

जबकि सच्चाई यह है कि स्वतंत्रता से पहले ही स्मॉल पॉक्स महामारी के कुछ ही वर्षों के बाद देश मे स्वदेशी टीके की खोज कर ली गयी थी. 2012 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित डॉक्टर चंद्रकांत लहारिया के पेपर– ‘हिस्ट्री ऑफ वैक्सीनेशन इन इंडिया ‘ के अनुसार वर्ष 1802 में ही तीन वर्ष के बच्चे को स्मॉल पॉक्स का टीका लगाया गया था. मालूम हो कि स्मॉल पॉक्स का पहला सफल टीका एडवर्ड जिनर ने 1796 में दिया था. यानि मात्र 6 वर्ष बाद ही भारत में स्मॉल पॉक्स के टीके का इस्तेमाल किया गया. 1892 मे कम्पल्सरी वैक्सीनेशन एक्ट भी पास किया गया था.

स्वतंत्र भारत में वर्ष 1948 में मद्रास में टीबी की वैक्सीन बनाने के लिए स्वदेशी प्रयोगशाला किंग इंस्टीट्यूट, गिंडी की स्थापना की गयी. 1948 में ही टीबी वैक्सीन बनाकर टीकाकरण भी शुरू कर दिया गया. 1957 मे भारत ने स्वदेशी इन्फ़्लूएंज़ा वैक्सीन भी बना ली. 1971 तक भारत मे वैक्सीन रिसर्च इंस्टीट्यूट और वैक्सीन उत्पादन केंद्र भी बनकर तैयार हो गए थे.


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हमेशा केंद्र द्वारा वित्त पोषित रही है भारत की वैक्सीन नीति

देश में चार दशक से राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है. यूनिवर्सल इम्युनाइजेशन प्रोग्राम (यूआईपी) की शुरुआत भारत सरकार द्वारा वर्ष 1985 मे किया गया. इसी के तहत देश में बड़े पैमाने पर पोलियो उन्मूलन के लिए टीकाकरण अभियान भी चलाया गया था. 2009 में एच1एन1 फ्लू से उत्पन्न महामारी से निपटने के लिए कम समय में ही वैक्सीन बना ली गई थी.

भारतीय वैक्सीन खरीद प्रणाली हमेशा से केंद्र द्वारा वित्त पोषित रहा और इसे राज्यों के माध्यम से लोगों तक फ्री में वितरित भी किया गया. लेकिन केंद्र सरकार ने इस नीति को बिना किसी कारण के छोड़ दिया.

कुल मिलाकर वैक्सीन के क्षेत्र में लंबे समय से लगातार वैज्ञानिक प्रयास किया जा रहा है. आज जिस भारत बायोटेक ने कोरोना की वैक्सीन बनायी है उसकी स्थापना भी 1996 में हुई थी. इसी तरह नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी की स्थापना 1952 में की गयी थी. यानि देश मे वैक्सीन और इससे जुड़े रिसर्च पर लंबे समय से काम किया जा रहा है. देश आज इन्हीं दीर्घकालिक और वैज्ञानिक नीति के कारण कोरोना वैक्सीन बनाने में कामयाब हुआ है.


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‘अवैज्ञानिक दावे’

इन सब तथ्यों के बावजूद भी सोशल मीडिया में भारत बायोटेक द्वारा बनायी गयी कोवैक्सीन का संपूर्ण श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को दिया जा रहा है. ऐसा बताया जा रहा है कि मोदी के सत्ता संभालने के बाद ही भारत ने टीका बनाना शुरू किया. क्या ऐसा झूठ और दुष्प्रचार इसलिए किया जा रहा है कि विगत कुछ दिनों में भाजपा नेताओं और समर्थकों द्वारा अवैज्ञानिक प्रचार के पापों का प्रायश्चित हो सके?

भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा ने कहा था कि गोमूत्र से कोरोना नहीं होता और उन्होंने अपने आपको उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत भी किया. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने कहा कि गंगा मैया की कृपा से कोरोना नहीं फैलेगा. वहीं देश के स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कोरोनिल की सराहना की. हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री ने तो बाकायदा ट्वीट कर कोरोनिल किट लोगों में बांटने की घोषणा भी कर दी थी.

असम के भाजपा विधायक सुमन हरिप्रिय ने तो विधानसभा में यह दावा भी किया कि गोबर से कोरोना को ठीक किया जा सकता है. मेरठ शहर में हवन और शंख बजाकर संक्रमण को रोकने का दावा किया गया. इतना ही नहीं सरकार और भाजपा के करीबी माने जाने वाले बाबा रामदेव ने तो खुलेआम कह दिया था कि वो वैक्सीन नहीं लेंगे और उनको कोरोना बीमारी भी नहीं होगी. हालांकि, अपने पुराने स्टैंड को बदलते हुए रामदेव ने वैक्सीन लगवा ली है.

एक ऐसा देश जहां वैक्सीन को लेकर पहले से ही भ्रांतियां रहीं हो वैसे में संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले अवैज्ञानिक बातों से लाखों लोगों की जान जा सकती हैं. भारत में कोरोना की दूसरी लहर की एक वजह कुछ खास धार्मिक कार्यक्रम रहे जिसमें लाखों लोग जुटे.

अब सवाल यह उठता है कि इस विरोधाभास को कैसे समझा जाए. क्या अंधविश्वास और अवैज्ञानिक बातें राजनीतिक फायदों के लिए की गयी? क्या महामारी को भी शुभ मुहूर्त से देखने और टोटके से समाधान करने की कोशिश की गयी?

क्या कोरोना की पहली लहर से निपटने के लिए अंधविश्वास का इसलिए सहारा लिया गया कि विज्ञान के डोमिनेंट डिस्कॉर्स से इतर किसी धर्म विशेष के अंधविश्वास की प्रथा को सेलिब्रेट किया जा सके?

क्या इस नैरेटिव के असफल होने और कोरोना से लड़ने में वैक्सीन की महत्ता के मद्देनज़र प्रधानमंत्री मोदी को कैसे इस वैक्सीन के केंद्र में लाया जाए, इसकी कोशिश की जा रही है? क्या यही वजह है कि देश में 2014 से पहले किए गए वैक्सीन से जुड़ी सफलताओं को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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