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Saturday, 21 December, 2024
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कैसे हो ‘राष्ट्र प्रथम, सदैव प्रथम’, जब प्रधानमंत्री के ‘अपने’ ही उनकी नहीं सुनते

प्रधानमंत्री को खुद को इस सवाल के सामना करना होगा कि अगर उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री और निर्वाचित सरकारें तक ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के उनके विचार के विरुद्ध जाने से बाज नहीं आतीं, तो वे आईपीएस अधिकारियों से यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं.

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क्या इसको संयोग भर कहकर दरकिनार किया जा सकता है कि गत शनिवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैदराबाद पुलिस अकादमी में प्रशिक्षण ले रहे भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के प्रशिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए उन्हें ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का झंडाबरदार बता और कह रहे थे कि उन्हें अपने हर काम और कवायद में ‘राष्ट्र प्रथम, सदैव प्रथम’ की भावना रखनी चाहिए, तो उनकी पार्टी की गठबंधन सरकार द्वारा नियंत्रित मिजोरम पुलिस खुद को इस भावना की विलोम सिद्ध कर रही थी?

पड़ोसी राज्य असम के साथ जारी सीमा विवाद को लेकर ‘तू बड़ा कि मैं’ के खेल में उलझते हुए उसने जवाबी कार्रवाई के तौर पर उसके मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा व वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हथियार कानून के उल्लंघन और हत्या के लिए उकसाने जैसे मामलों में एफआईआर दर्ज कर ली थी. चूंकि उससे भी पहले असम ने मिजोरम के राज्यसभा सदस्य वनलालवेना और अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज कर उन्हें थाने में तलब कर लिया था, इसलिए इस सिलसिला में उसे भी दूध का धुला नहीं ही कहा जा सकता.

इस सबको इसलिए संयोग नहीं कहा जा सकता कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री काल के पिछले सात साल गवाह हैं कि जब भी वे कोई भली नजर आने वाली बात कहते हैं, उनकी पार्टी की राज्य सरकारों को वह हजम नहीं होती. इसलिए वे चोरी से या सीनाजोरी से, जैसे भी बने, उसे पलीता लगाने में लग जाती हैं.

गोरक्षकों को विरुद्ध कार्रवाई की बात भी राज्यों ने नहीं मानी थी

याद कीजिए, गोरक्षकों के बढ़ते उत्पातों के बीच मोदी ने 2016 में सात अगस्त को उनकी कड़ी आलोचना करते हुए राज्य सरकारों को उनके विरुद्ध सख्ती बरतने के निर्देश दिये थे तो भाजपा शासित राज्यों की सरकारों ने उसे कितनी अनिच्छा या अवज्ञापूर्वक लिया था. तब मोदी विरोधियों ने यह तक कहना पड़ा था कि प्रधानमंत्री के निर्देश देने और भाजपाई राज्य सरकारों द्वारा उसकी अवज्ञा के पीछे उनकी मिलीभगत है, जिसके तहत राज्य सरकारों को मालूम है कि उनके कौन से निर्देश पालन करने के लिए हैं और कौन से इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देने के लिए.

एक-दूसरे से भिड़े असम मिजोरम

असम और मिजोरम सीमा विवाद पर लौटें तो पिछले दिनों दोनों राज्यों के पुलिस अधिकारी ही नहीं, मुख्यमंत्री और सरकारें भी प्रधानमंत्री की ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की सीख के विरुद्ध काम करते दिखाई दिये हैं. न करते तो यह संभव ही नहीं था कि इस सीमा विवाद के बहाने दोनों राज्यों की पुलिस दो देशों की सेनाओं की तर्ज पर अस्त्र-शस्त्रों के साथ आमने सामने आकर हिंसक भिड़ंत को अंजाम देने लगे. इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि उक्त भिड़ंत में असम पुलिस के 6 जवानों की जानें चली जाने के बाद भी दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों का रवैया सौहार्द बढ़ाने वाला न होकर टकराव आमंत्रित करने वाला ही दिख रहा था.

इन मुख्यमंत्रियों ने, और तो और, सोशल मीडिया पर एक दूजे से भिड़ने से भी परहेज नहीं किया. असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा तो यह कहने की हद तक चले गये कि उनके पूलिस जवानों ने भले ही अपनी जानें दे दीं, लेकिन अपनी एक इंच भूमि भी मिजोरम के कब्जे में नहीं जाने दी. जैसे कि मिजोरम कोई अलग देश हो और उससे अपनी इंच-इंच भूमि की रक्षा करना असम की आन का सवाल हो.


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बात इतने तक पर ही रुक जाती तो भी गनीमत थी, लेकिन असम की सरकार ने एक एडवाइजरी भी जारी की, जिसमें अपने नागरिकों को मिजोरम यात्रा को लेकर कुछ इस तरह सचेत किया, जैसे वह कोई दुश्मन देश हो और वहां जाना खतरे से खाली न हो.

डबल इंजन की सरकार भी काम ना आई

काबिलेगौर है कि प्रधानमंत्री जब भी किसी राज्य के विधान सभा चुनाव में प्रचार करने जाते हैं, जोर देकर कहते हैं कि मतदाता उनकी पार्टी की सरकार चुनेंगे तो ‘डबल इंजन सरकार’ चुनेंगे. इससे केन्द्र सरकार की योजनाओं का लाभ उठाने के रास्ते की वे सारी बाधाएं स्वतः दूर हो जाएंगी, जो गैर-भाजपा राज्य सरकारें केन्द्र सरकार से नाहक टकराव बढ़ा कर पैदा करती रहती हैं. इससे दोनों सरकारों को मिलकर डबल इंजन की तरह उनका कल्याण सुनिश्चित करने में बहुत सुभीता होगा. लेकिन असम और मिजोरम के मुख्यमंत्रियों ने डबल इंजन सरकारों से ज्यादा जनकल्याण होने की उनकी अवधारणा को भी धूल चटाने में संकोच नहीं किया.

हम जानते हैं कि केन्द्र और असम में तो भाजपा की चुनी हुई सरकार है ही, मिजोरम में भी भाजपा गठबंधन की सरकार है. यानी डबल की जगह वहां ट्रिपल इंजन सरकारें हैं. फिर भी, न केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक साथ बैठाकर पुराने सीमा विवाद को लेकर उनके बीच खूनी टकराव टाल सके और न उनके मुख्यमंत्रियों में इतनी सद्बु़द्धि पैदा कर सके कि वे परस्पर दोषारोपण करते हुए ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की भावना को करारी ठेस लगाने के प्रयत्नों से पूरी तरह बाज आ सकें. असम के मुख्यमंत्री तो तब हद करते दिखे जब मिजोरम के मुख्यमंत्री से उलझते भी रहे और यह सफाई भी देते रहे कि उनके बीच कोई राजनीतिक विवाद नहीं है. भला क्या अर्थ है इसका?

क्या आश्चर्य कि भाजपा विरोधी पार्टियां इसे इस रूप में देख रही हैं कि वह भले ही चुनावी लाभ उठाने के लिए बार-बार राष्ट्रवादी नारे उछालती रहती है, उसके शासन में देश की एकता सुरक्षित नहीं हैं और उसे लेकर नाना प्रकार के अंदेशे पैदा हो रहे हैं? कौन कह सकता है कि अगर असम और मिजोरम में किसी विपक्षी पार्टी की सरकारें होतीं तो राष्ट्रीय एकता व अखंडता की राह में रोड़े डालने वाले उनके रवैये के लिए भाजपा उनको बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग न कर रही होती या कि उसकी केन्द्र सरकार इन सरकारों को अपनी हद में रहने को न चेता रही होती.

लेकिन क्या किया जाय कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की भरपूर फजीहत कराने के बाद भी असम व मिजोरम के मुख्यमंत्रियों को अपनी सीमाओं का ठीक से भान नहीं है और उन्हें इतनी ही ‘सद्बुद्धि’ आई है कि वे अपने-अपने राज्यों में दुर्भावनापूर्वक दर्ज एफआईआर रद्द करने, सीमा विवाद को वार्ता के रास्ते सुलझाने और स्थिति को और न बिगड़ने देने पर सहमत हो गये हैं. लेकिन इस सहमति तक पहुंचने से पहले के उनके कृत्यों और कवायदों को लेकर कई सवालों के जवाब मिलने अभी भी बाकी हैं.

6 पुलिसकर्मियों की जान की कीमत नहीं?

मसलन, जब पहले से पता था कि विवाद अंततः वार्ता करके ही हल किया जाना है या किया जा सकता है तो उसे लेकर इस कदर आसमान सिर पर उठाये फिरने की क्या जरूरत थी कि सारा देश चिंतित हो जाय? क्या उन पुलिसकर्मियों की जानों की कोई कीमत नहीं थी जो अलानाहक जटिल बना दिये गये इस विवाद में हिंसक टकराव की बलि चढ़ा दिये गये? यह सवाल तो खैर केन्द्र सरकार से पूछा जाना चाहिए कि उसने उपग्रह की मदद से उत्तर पूर्वी राज्यों की सीमाओं के निर्धारण का जो निर्णय अब किया है, उसे समय रहते क्यों नहीं लिया, जिससे न सिर्फ इन दोनों बल्कि सीमा विवाद झेलने वाले दूसरे राज्यों में भी अमन-चैन बरकरार रहता और उद्वेलनों को जगह नहीं मिल पाती.

निस्संदेह, इस सिलसिले में प्रधानमंत्री को खुद को इस सवाल के सामना करना होगा कि अगर उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री और निर्वाचित सरकारें तक ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के उनके विचार के विरुद्ध जाने से बाज नहीं आतीं, तो वे केवल आईपीएस अधिकारियों से ही यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वे अपने हर काम में ‘राष्ट्र प्रथम, सदैव प्रथम’ की भावना रखें? खासकर जब भाई लोगों ने पहले से ही इस देश के भीतर कई ऐसे देश बना रखे हैं, जिनमें साधन सम्पन्न और विपन्न किसी मोड़ पर मिल ही नहीं पाते.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)


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