scorecardresearch
Thursday, 5 December, 2024
होममत-विमतकैसे दिप्रिंट के पत्रकारों ने Covid महामारी के खिलाफ जंग को साहस से कवर किया और जीता IPI पुरस्कार

कैसे दिप्रिंट के पत्रकारों ने Covid महामारी के खिलाफ जंग को साहस से कवर किया और जीता IPI पुरस्कार

हालांकि खबरें जुटाने के लिए क्षेत्र में जाने वाले सभी लोगों ने स्वीकार किया कि यह अनुभव अत्यंत दु:खदायी था; मगर, उन सबका मानना है कि इसके बाद वे बेहतर पत्रकार, और शायद इससे भी बेहतर इंसान बन गए हैं.

Text Size:

‘हर 10 मिनट में एक नयी लाश आती है’. अप्रैल 2021 में, ज्योति यादव ने पाया कि लखनऊ में अंतिम संस्कार के लिए लाये जाने वाले शवों की संख्या पूरे राज्य में एक दिन में हुई कोविड मौतों की कुल आधिकारिक संख्या से कहीं अधिक थी. इस बड़े से अंतराल को कैसे बेहतर समझाया जा सकता है? उसने इस बात की खोजबीन करने का फैसला किया.

सोनिया अग्रवाल और प्रवीण जैन ने अहमदाबाद में 6 श्मशान घाटों का दौरा किया, जहां कई सारे परिवार कोविड से मरने वाले अपने सगे-संबंधियों और रिश्तेदारों का अंतिम संस्कार करने के लिए घंटों इंतजार कर रहे थे. शोक-संतप्त लोग गुस्से में थे: इन मौतों को ‘बीमारी से हुई मौत’ के रूप में दर्ज किया गया था, न कि कोविड से हुई मौत के रूप में. तब अग्रवाल को एहसास हुआ कि कुछ तो गड़बड़ है.

जैन ने अहमदाबाद के एक अस्पताल के बाहर एम्बुलेंस और कारों की भीड़ लगी देखी. उनके अंदर मरीज पड़े हुए थे, कुछ तो मौत के बिल्कुल करीब थे, पर अस्पताल में उनके लिए कोई जगह नहीं थी. जैन जानते थे कि उन्हें क्या करना है. उनका हाथ खुद ही कैमरे पर जा पहुंचा.

भोपाल में एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के साथ हुई बातचीत में, फातिमा खान को एक असामान्य और परेशान करने वाली जानकारी मिली: कोविड प्रतिबंधों, जिसने किसी भी समारोह में उपस्थित होने वाले लोगों की संख्या को सीमित कर दिया था, की वजह से बाल विवाह के मामलों में वृद्धि हुई थी. सवाल किया – ऐसा क्यों? जवाब मिला- यह सस्ता होता है!

फोटो जर्नलिस्ट मनीषा मोंडल ने दिल्ली के अस्पतालों, मुर्दाघरों और श्मशान घाटों में वायरस का डटकर पीछा किया. उन्हें हर जगह दु:ख और निराशा ही देखने को मिली. वे कहती हैं, ‘मेरे पास उस उदासी का वर्णन करने के लिए कोई शब्द नहीं हैं.’ इसके बजाय, उन्होंने अपनी भावनाओं को दिल दहला देने वाली तस्वीरों के जरिए व्यक्त किया.

अनीशा बेदी कोविड के चलते घर में आइसोलेट थीं. उस समय महामारी की दूसरी लहर अपने उस चरम पर थी जब ऑक्सीजन की कमी एक बड़ी समस्या बनी हुई थी. इधर-उधर तलाश करने पर, बेदी को पता चला कि दिल्ली की आप सरकार और उपराज्यपाल के कार्यालय के बीच के आपसी कलह के कारण, राष्ट्रीय राजधानी में ऑक्सीजन की कमी की जांच के लिए नियुक्त पैनल कभी वास्तविक रूप ले ही नहीं सका.

और रायपुर में, सूरज बिष्ट ने अस्पतालों और कब्रगाहों के बाहर खड़े ट्रकों की कतार देखी: मृतकों को ले जाने के लिए पर्याप्त एंबुलेंस या मुर्दागाड़ियां थी हीं नहीं, इन ट्रकों को ही इस काम में लगाया गया था. उनकी एक खुरदुरी-सी दिखने वाली तस्वीर में आप एक ट्रक से एक बॉडी बैग को उतारे जाने के दौरान’ के इसके अंदर से एक महिला का चेहरा झांकते हुए देख सकते हैं.

ये कुछ ऐसी ख़बरें हैं जिन्हें पत्रकारों ने दिप्रिंट के लिए तब रिपोर्ट किया था जब उन्होंने 2021 में आई महामारी की दूसरी लहर के दौरान पूरे भारत की यात्रा की थी.

उनके कुछ कार्यों ने जनता की मदद की, कई अन्य को सरकारों द्वारा देखा गया, और कुछ ने सिविल ऑफिसर्स को नाराज भी कर दिया, लेकिन कोरोनोवायरस महामारी के दौरान उनके इस शानदार कवरेज ने उन्हें इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट अवार्ड्स फॉर एक्सिलेंस इन जर्नलिज्म (इंडिया) – भारत में पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय प्रेस संस्थान पुरस्कार – भी दिलाया.

इसलिए इस महीने का ‘रीडर्स एडिटर’ कॉलम दिप्रिंट के कोरोनावायरस कवरेज, खासकर दूसरी लहर के दौरान, को समर्पित है.


यह भी पढ़ें: मिलिए दिप्रिंट के डेस्क, यानी पत्रकारिता में सबसे अनचाहा काम करने वालों से


आईपीआई द्वारा मान्यता प्राप्त सात पत्रकारों में से पांच पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी पहली नौकरी पर थे. इनमें पांच महिलाएं भी हैं. उनमें से ज्यादातर अपने 20 के दशक की आयु में हैं. किसी महामारी की बात तो छोड़िए इन युवा पत्रकारों ने इससे पहले बमुश्किल किसी भी अहम चीज़ की कोई सूचना दी थी, लेकिन यहां वे उस वायरस के बारे में रिपोर्ट करने के लिए आगे बढ़ रहे थे, जिसने पूरी दुनिया को लगभग थाम सा दिया था.

दिप्रिंट के साथ जुड़े हुए इसी तरह के कई अन्य युवा और अनुभवहीन पत्रकार, देशभर में – कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, तमिलनाडु, बिहार, आंध्र प्रदेश और पूर्वोत्तर में- फैले हुए थे.

अंततः दिप्रिंट के संवाददाता कोविड की खबरों का पीछा करते हुए देश के लगभग हर राज्य में गए. मार्च 2020 में जब पहला लॉकडाउन लगा था तब मात्र अपने तीसरे वर्ष में रहे एक ऑनलाइन समाचार पोर्टल के लिए यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि है.

इसी वजह से इसके सात पत्रकारों को मिले आईपीआई पुरस्कार को दिप्रिंट में पूरी टीम द्वारा किए गए तमाम (जमीनी) कार्यों की स्वीकृति के रूप में देखा जाना चाहिए.

यह पत्रकारिता के मूल मूल्यों को भी मान्यता देता है: दिप्रिंट की कोरोनावायरस से जुड़ी ख़बरों ने हमें समाचार और विचार दिए– उन्होंने जानकारी प्रदान की, पत्रकारों द्वारा सामना की गई वास्तविकता को समझाया और पूरी तस्वीर को समेटने की कोशिश की.

दिप्रिंट के प्रधान संपादक और चेयरमैन, शेखर गुप्ता का मानना है कि आईपीआई पुरस्कार पत्रकारिता के तीन पहलुओं को रेखांकित करता है: ऐसी फील्ड रिपोर्टिंग का महत्व, ‘जहां आप ख़बरों की तलाश में उनके पीछे जाते हैं’, फोटो पत्रकारिता का ‘महत्व’ – टीम आईपीआई द्वारा तीन फोटो पत्रकारों को मान्यता दी गई है, और तीसरा, यह तथ्य कि युवा, प्रतिभाशाली, जिज्ञासु और ऊर्जावान पत्रकारों व अनुभव के साथ बड़े दिल वाले संपादकों का संयोजन क्या कुछ हासिल कर सकता है.

लगातार भय

दिप्रिंट के प्रबंध संपादक वाईपी राजेश, ने मुझे बताया कि यह एक जीवन भर में एक बार मिलने वाली कहानी थी, जिसे ‘जटिलता के अभूतपूर्व स्तर’ के साथ प्रत्येक व्यक्ति की वायरस के प्रति असुरक्षा और हालत के तकाजे – लॉकडाउन, वर्क-फ्रॉम-होम, चिंतित परिवार, अव्यवस्थित सरकारें, चरमराती स्वास्थ्य अवसंरचना और पहले और दूसरे गियर के बीच यात्रा के ठप होने- निरंतर दिलाये जा रहे स्मरण ने और भी विलक्षण बना दिया था.

पहली लहर के दौरान, लोग दुबक कर बैठ गए, अपने अपने घर पर ही रहे, और फर्श को पोंछने, खाना पकाने और सफाई करने के बीच जो भी काम संभव था, किया. पत्रकार भी इसे ट्रेंड से अलग नहीं थे. वायरस के बारे में की जा रही अधिकांश रिपोर्टिंग – प्रवासी मजदूरों की समस्याएं, आर्थिक कठिनाई और स्वयं बीमारी के बारे में ख़बरें – दिल्ली से ही आईं. दिप्रिंट के पास अपने कार्यालय में एक छोटी से टीम थी, जबकि कई मीडिया संगठन पूरी तरह से घर से काम कर रहे थे.

जब तक भारत और दुनिया भर में दूसरी लहर चली, तब तक दिप्रिंट टीम को बड़े पैमाने पर टीका लगाया जा चुका था, और वह इसके प्रति काफी साहसी भी थे. रिपोर्टिंग स्टाफ और वरिष्ठ संपादक वापस कार्यालय लौट आए थे, और खुद से आगे आने वालों को दिल्ली से बाहर खबरे जुटाने जाने के लिए कहा गया.

कई लोगों ने इसकी सहमति में हाथ खड़े किये, लेकिन उनमें से किसी को भी यह एहसास नहीं था कि यह असाइनमेंट कितना मुश्किल देने वाला होगा. संसाधनों के मामले में यह एक बुरे सपने जैसा था. कुछ ही उड़ानें या ट्रेनें चालू थीं, सड़कें ही एकमात्र खुला मार्ग थे, लेकिन कोविड प्रतिबंधों के कारण राज्यों की सीमाओं को पार करना कभी-कभी असंभव हो जाता था. गड्ढों वाली सड़कों पर अंतहीन कार यात्राएं करनी होती थीं.

इस सब के बाद, दिन के अंत में, ठहरने के लिए कोई जगह नहीं होती थी – होटल बंद पड़े थे; खाने को कुछ नहीं मिलता था – रेस्तरां और सड़क किनारे के ढाबे बंद पड़े थे. अधिकारियों, अस्पताल के कर्मचारियों और श्मशान स्थल के कर्मचारियों के बीच वास्तविक संख्या जाहिर करने के प्रति अनिच्छा थी, लेकिन बहुत से लोग अपने अनुभव साझा करने के लिए उत्सुक थे. और अंत में, पत्रकारों द्वारा महामारी के हॉटस्पॉट और घनी आबादी वाले इलाकों की यात्रा करने के दौरान उन्हें लगातार कोविड की चपेट में आने का डर लगा रहता था.


यह भी पढ़ें: शेखर गुप्ता कैसे करते हैं Cut the Clutter और लोगों ने इसके बारे में दिप्रिंट से क्या कहा


मौत से लगातार होती भिड़ंत

शारीरिक और भावनात्मक रूप से कोविड ने अपनी भरपूर कीमत वसूली. फोटो एडिटर प्रवीण जैन के लिए, ‘यह अब तक का सबसे कठिन काम था. मैंने भूकंप, दंगे और कारगिल कवर किए हैं, लेकिन यहां हर कोई शायद कोरोना बम लिए हुए था.’

2020 में संवाददाता सिमरन सिरूर के साथ दिल्ली से बाहर की यात्रा करने वाले और गुजरात को कवर करते हुए जैन, इस वायरस से संक्रमित होने वाले दिप्रिंट के पहले कुछ कर्मियों में से एक थे. 2022 के मध्य तक, लगभग पूरे संपादकीय स्टाफ को कोविड हो चुका था, कुछ को तो दो बार इसका सामना करना पड़ा था.

एक अन्य स्तर पर, ये पत्रकार जहां कहीं भी गए वहां उन्होंने जिंदंगियों के भारी नुकसान को देखा – याद रखें, उनमें से अधिकांश युवा थे. सोनिया अग्रवाल ने याद करते हुए कहा, ‘मैं इतनी सारी मौतें देखने के लिए तैयार नहीं थी.’ एक तरह से वे शायद सभी की तरफ से बात कर रहीं थीं.

फातिमा खान, जो अब दि क्विंट में एक वरिष्ठ संवाददाता हैं, ने कहा : ‘हर जगह एक ही कहानी थी: मौतें, अस्पतालों, श्मशान घाटों का दौरा, और दुखी परिवार जो अपनी कहानियां बताना चाहते हैं …’

मंडल ने स्वीकार किया, ‘मैं 45 दिनों तक लगातार सड़क पर थीं – मुझे नहीं लगता कि मैंने उन 45 दिनों को अभी तक प्रॉसेस किया है,’ उन्होंने कहा कि मुझे उस दौरान सन्नाटे में रोना, कराहना सुनाई देता था.’

ज्योति यादव ने उत्तर प्रदेश और बिहार का व्यापक तौर पर दौरा किया था. वह कहती हैं कि वह ‘कई बार टूट सी गईं थीं’. स्कूटी पर शराब के नशे में धुत लोगों द्वारा भी उन्हें परेशान किया गया था, और उन्हें लगता है कि इसी दौरान उन्हें कभी कोविड हुआ था – वह नारियल पानी के सहारे बच गईं.’

उधर, घर पर उनके परिवार वाले चिंतित रहते थे, जो सभी पत्रकारों के लिए एक बड़ी चिंता थी. माता-पिता लगातार संदेश भेजते, स्वास्थ्य संबंधी सुझाव साझा करते, और बार-बार जवाब मांगते – यह सब बस यह जानने के लिए था कि उनके बच्चे सुरक्षित हैं. और पत्रकारों को अपने उम्रदराज रिश्तेदारों से जितना हो सके खुद को अलग करना पड़ा था. दिप्रिंट को छोड़ने के बाद डब्ल्यूएचओ में शामिल हुईं अनीशा बेदी ने खुलासा किया, ‘यह खबर व्यक्तिगत लगी – मुझे कोविड हुआ था और घर पर मेरा पूरा परिवार संक्रमित हो गया था – यह सिर्फ एक खबर से बढ़कर बन गई थी.’

सोनिया अग्रवाल का परिवार इस बात से नाराज था कि उसने कोविड ड्यूटी के लिए अपनी मर्जी से काम किया. उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘मेरे काम के लिए यूट्यूब पर की गई बस एक प्रशंसा ने मुझे मेरे माता-पिता से बचा लिया.’

सूरज बिष्ट कहते हैं, ‘मेरा परिवार लगातार चिंता करता रहता था. शूटिंग के दौरान लाशों और लोगों को रोते देख पाना मुश्किल था. आप खुद से पूछते हैं, ‘मैं क्या कुछ कैमरे में कैद कर रहा हूं और क्यों?’ लेकिन मुझे एक पत्रकार के रूप में अपना फर्ज निभाना था.’

मौत से लगातार हो रही भिड़ंत ने पत्रकारों को बिना पलक झपकाए उससे आंखे मिलाने वाला बना दिया. अग्रवाल ने कहा कि इसने उन्हें और ‘मजबूत’ कर दिया. उन्होंने इसके बारे में और अधिक ‘संवेदनशीलता से’ लिखना सीखा. मोंडल को लगता है कि दुःख ने उन्हें ‘सहानुभूति’ की प्रासंगिकता सिखाई और उन्हें ‘एक बेहतर इंसान’ बनाया. लेकिन अन्य लोगों ने कुछ और भी महसूस किया और जैसा कि बेदी के शब्दों से बयां होता है, ‘इस कदर सुन्न हो जाना … मैं सो नहीं सकी, और भूल गई कि अपने काम से खुद को कैसे अलग किया जाए. मौत कितनी अचानक हो सकती है…’

जीवन में एक अहम मोड़

और उनके द्वारा सुनाई गई कहानियों के बारे में क्या? जब अनुभव लगभग एक समान होते हैं, तो भले ही वे कहीं भी यात्रा करते हों, पत्रकार अक्सर अपनी आंखों के सामने घटित होते मानवीय नाटक की वजह से अंधे हो जाते हैं. इसलिए जमीन पर काम करते हुए अस्पतालों, अंतिम संस्कार स्थलों, दवा, ऑक्सीजन और अस्पताल के बिस्तरों की कमी के बारे में कई कहानियां वापस भेजी गईं. टूटे दिल वाले परिवारों, अंतिम संस्कार की चिताओं और लाशों, व अन्य लाशों की बहुत सी तस्वीरें शूट की गईं. दिल्ली में बैठे संपादकों को पत्रकारों को बार-बार याद दिलाना पड़ता था कि वे अब ‘न्यू नॉर्मल’ हो चुकी चीजों से हटकर अलग-अलग कोणों से ख़बरों को देखने की कोशिश करें.

मैंने दिप्रिंट की कई कोविड से जुड़ी ख़बरें पढ़ीं, और जिस चीज ने मुझे प्रभावित किया वह था- विस्तृत विवरण पर दिया गया ध्यान, प्रवृत्तियों और पैटर्न को देखने का प्रयास और सामूहिक अनुभवों के भीतर व्यक्तिगत कहानियों का पता लगाना. यह आंकड़ों का उपयोग करते हुए और एक कहानी के सभी पक्षों को बताकर किया गया था.

खान ने याद करते हुए कहा, ‘हमें तत्काल त्रासदी से पॉज़ और ज़ूम आउट (अल्प विराम लेने और व्यापक रूप से ध्यान देने) करने के लिए अनूठी ख़बरों की तलाश करनी पड़ी.’ और उन्होंने ज़ूम आउट किया भी. नदी में तैरते शवों पर हमीरपुर से भेजी गई अपनी खबर में, उन्होंने लिखा कि कैसे इससे मछुआरों की आजीविका को नुकसान पहुंचा है.

आंध्र प्रदेश के एक गांव में मोंडल को एक पेड़ पर रहने वाली एक किशोरी मिली. यह उसका अस्थायी घर था जो उसे उसके परिवार से अलग-थलग (आइसोलेटेड) रखता था. दिप्रिंट ने कश्मीर से एक ऐसी खबर छापी थी कैसे सेना के जवानों को वैक्सीन लेते हुए देखने के बाद ही लोग वैक्सीन वाला इंजेक्शन लेने के लिए राजी हुए थे. मणिपुर में, दिप्रिंट ने पाया कि चर्च ने टीके के बारे में झिझक को दूर करने में मदद की, जबकि आदिवासियों ने मध्य प्रदेश के पन्ना में कोविड की जांच कराने से इनकार कर दिया था.

आंध्र प्रदेश से एक ‘चमत्कारिक दवा’ की खबर आई, और दिल्ली से एंटी-डिप्रेंटेंट्स के उपयोग में तेजी से उछाल की खबर आई…

खबरें जुटाने के लिए क्षेत्र में जाने वाले सभी लोगों ने स्वीकार किया कि यह अनुभव अत्यंत दु:खदायी था; मगर, उन सबका का मानना है कि इसके बाद वे बेहतर पत्रकार, और शायद इससे भी बेहतर इंसान बन गए हैं . बेदी ने इसे इस तरह से वर्णित किया, ‘यह जीवन का एक अहम मोड़ था.’

यह सब तो ठीक है, लेकिन क्या उनके काम से उन लोगों पर कोई फर्क पड़ा जिनके बारे में उन्होंने लिखा था? उनमें से ज्यादातर का मानना है कि ऐसा हुआ है – यादव ने कहा ‘कभी-कभी वास्तविक रूप से (फर्क पड़ा) चाहे ‘भले ही यह एक छोटे रूप में ही हो.’ इस सब में, दिल्ली में कार्यरत संपादकों की भूमिका को न भूलें, जिन्हें – फोन पर- बहुत सारा ढांढस बंधाना पड़ा, और संपादन टीम की भी तारीफ करनी होगी जिन्होंने धैर्यपूर्वक उन ख़बरों पर काम किया और उन्हें फिर से लिखा, उन ख़बरों को वह नया रूप दिया, जिन्हें आपने और मैंने पढ़ा था.


यह भी पढ़ें: राष्ट्रीय स्मारकों को लेकर नई उलझन इस बात की है कि ‘किसने क्या तोड़ा’


वायरस के बारे में दी जानकारियां

दिप्रिंट के प्रयास शानदार थे. यह बहुत कम मीडिया संगठनों में से एक था, जिसने इतने लंबे समय के लिए इतने सारे रिपोर्टर भेजे – यिमकुमला लोंगकुमेर और अंगना चक्रवर्ती 3 महीने के लिए पूर्वोत्तर में थे.

अब दिप्रिंट के प्रयासों को एक बड़े दृष्टिकोण में रखते हैं. थोड़ा पीछे जाएं और याद रखें: वायरस वायरल हो गया और हम सभी को इसकी कीमत चुकानी पड़ी. 2020 से, दुनिया भर में 6.5 मिलियन से अधिक लोग कोविड और इसकी जटिलताओं की वजह से काल के गाल में समा चुके हैं.

मुझे कोविड हो गया था, ऐसा ही मेरे परिवार और मेरे दोस्तों में से अधिकांश के साथ हुआ है. अधिकांश लोगों के बारे में यह सच है: हममें से हरेक ने हमारे बीच फ़ैल गए शांत भय और कई लॉकडाउन के दौरान हमारे शहरों की ख़ामोशी को अपनी यादों में बनाए रखा है.

हमने सारी दुनिया से खुद को अलग कर दिया था, खुद को अपने घरों और कमरों में बंद कर लिया. हमने प्रशिक्षित नर्सों की तरह अपने ऑक्सीजन के स्तर, अपने तापमान, अपनी नाड़ी की जांच की; हमने सतहों को साफ किया, हमने भोजन, पैकेट, काउंटर और अपने हाथों को साफ किया और अपनी त्वचा को उस हद तक साफ़ करते रहे जब तक कि वह छिल न जाये.

इससे पहले हम कभी इतने भ्रमित नहीं हुए थे या इतना अकेला और अलग-थलग महसूस नहीं किया था. पर इस सब के बावजूद हम अकेले नहीं थे – हमें अपने परिवार और दोस्तों – और निश्चित रूप से विज्ञान से भी – की काफी मदद मिली.

इसके अलावा, हमारे पास मीडिया था – इलेक्ट्रॉनिक प्रिंट मीडिया (अपने सही होशो-हवास में कोई भी अखबार के पास भी नहीं फटकता था), समाचार पोर्टल जैसे दिप्रिंट, टेलीविजन समाचार थे और निश्चित रूप से सोशल मीडिया तो था ही.

जब आपके द्वारा किया जाने वाला एकमात्र दौरा अस्पताल का था, तो मीडिया हमारा निरंतर साथी और संरक्षक बना हुआ  था. इसने हमें ‘थाली बजाओ’ से लेकर टीके से जुड़ी हिचकिचाहट तक, दैनिक कोविड मामलों की संख्या, मौतों और ठीक होने से लेकर नवीनतम दवाओं तक सब कुछ के बारे में बताया. इसने वैज्ञानिक और चिकित्सा ज्ञान के तूफान से ख़बरों को छांटा और आम आदमी की भाषा में समझाते हुए हम तक पहुंचाया- इन सब के बीच वह इस बात को कभी नहीं भूला कि इसके मूल में, यह एक मानवीय रुचि वाली कहानी थी जो सभी के लिए व्यक्तिगत थी.

अब अंतिम शब्द उस सबसे वरिष्ठ पत्रकार से सुनें जो देशभर में वायरस के फैलने के दौरान इसकी तलाश में आगे आये. यह वरिष्ठ पत्रकार, प्रवीण जैन, ने कहा, ‘मुझे पूरी टीम पर गर्व है, जो बाहर गए वे निडर थे, साहसी थे और उन्होंने कभी न नहीं कहा.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(शैलजा वाजपेयी दिप्रिंट की रीडर्स एडिटर हैं. कृपया अपनी राय, शिकायतें readers.editor@theprint.in पर भेंजे.)


यह भी पढ़ें: हिजाब विरोधी आंदोलन ईरान में असंभव बदलावों की एक शुरुआत है, इस्लामी कायदे नहीं मानना चाहते लोग


 

share & View comments