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Monday, 6 May, 2024
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मिलिए दिप्रिंट के डेस्क, यानी पत्रकारिता में सबसे अनचाहा काम करने वालों से

फटाफट और अपुष्ट सूचनाओं के इस दौर में पत्रकारिता के कालजयी सिद्धांतों पर जोर देने की दरकार, और डेस्क का काम ही ‘पॉज’ बटन दबाना और सवाल दागना है.

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पुराने दिनों में वे अपना ज्यादातर समय सीट पर ही बिताया करते थे, अमूमन उनके बगल में सिगरेट के टुकड़ों से भरी एश-ट्रे हुआ करती थी. वे बमुश्किल अपना सिर या कीबोर्ड से उंगलियां उठाते हैं. लेकिन जब वे सिर उठाते हैं, तो टीवी के परदे पर खबरिया सुर्खियां देखने के लिए, या फिर चाय-कॉफी के लगातार चलते दौर की चुस्कियां लेने के लिए ही. रिपोर्टर, लेखक उनको और उनके सब कुछ जानने-समझने की हवाबाजी को प्यार से ही खारिज करते हैं, बदले में वे रिपोर्टर में हताशा भर देते हैं, वे हैरान रह जाते हैं कि कब उन्होंने यह जाना-समझा.

इन लोगों के हाथ दूसरों की गलतियां सुधारने का दुनिया में सबसे अनचाहा काम होता है. वे सब कुछ बेदाग-बेहतर, चमकदार, झोल और उलझाव को दूर करने की कोशिश करते हैं. मूलरूप से बैकरूम बॉयज (एक वक्त वे बेसमेंट तक सीमित रहते थे), अनजान और ज्यादातर बिना पहचान वाले उन्हें सामूहिक तौर पर लकड़ी का ढेर यानी डेस्क कहा जाता है, क्योंकि वे अपने कामकाजी घंटे उसी के पीछे बिताते हैं.

डेस्क पर कॉपी को सजा-संवार रहे ये लोग कभी सुर्खियों में नहीं आते, जो उन्हीं की कलम या उंगलियों से लिखी जाती हैं.

लेकिन अब तक आपको अंदाजा हो गया होगा कि इस महीने रीडर्स एडिटर स्तंभ का विषय वे संपादक और उप-संपादक हैं, जो लो-प्रोफाइल, चुपचाप, शर्मीले या गंभीर व सीधे-सादे लोग होते हैं, जिनके बिना पत्रकारिता फेसबुक पोस्ट या ज्यादा से ज्यादा ब्लॉग बनकर रह जाती.

उनके बारे में अब क्यों लिखना? तो, वजहें कई हैं. बतौर रीडर्स एडिटर, मैं खुश हूं कि मुझे दिप्रिंट में तथ्य या व्याकरण संबंधी वाजिब शिकायतें बेहद थोड़ी ही मिली हैं. ज्यादातर मेल, पाठकों की राय दूसरे मत-विमत स्तंभों या खबरी घटनाओं से संबंधित मिले. यह दिप्रिंट के लिए खुशी की बात है क्योंकि हम ज्यादा गलतियां नहीं करते. और अगर ऐसा है तो यह मोटे तौर पर डेस्क की वजह से है, जो अंतिम जवाबदेही उठाता है कि क्या पब्लिश होना है.

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फटाफट और अपुष्ट खबरों के इस दौर में, खासकर सोशल मीडिया या व्हाट्सऐप चैट ग्रुपों पर, पत्रकारिता के कालातीत (तय नियम) सिद्धांतों, यानी संतुलन और निष्पक्षता पर जोर देने की जरूरत है, न कि छोड़ देने की. और, यह डेस्क का काम है कि वह ‘पॉज’ बटन तब तक दबाए रखे, जब तक कुछ भी सार्वजनिक होने के पहले समीक्षा, सवालों और त्रुटियों से मुक्त होने की कसौटी पर खरा न उतरे.

दिप्रिंट के प्रबंध संपादक वाईपी राजेश कहते हैं, ‘यह सोच-समझ की पत्रकारिता के मानदंडों का कड़ाई से पालन करते हैं और इसके अलावा, आपको कानूनी पहलुओं पर भी साफ-सुथरा रहने की जरूरत है.’


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द्वारपाल (गेट कीपर्स)

संपादन से जुड़े संपादक सरल लेकिन वाकपटु होते हैं, उन्हें अपनी भूमिका पर गर्व भी होता है. जैसा कि कुछ की जुबानी पेश है: ‘हम मिमिक हैं’; ‘हम शांत जनरेटर हैं जो शो को जारी रखते हैं’; ‘हम सर्जन हैं जो खराब हिस्सों को अलग कर देते हैं’; ‘हम हर आवाज के पीछे का दिमाग हैं’; ‘हम पहरुए हैं’; ‘हम आखिर चेक-पाइंट हैं’, ‘हम कॉपी चमकदार बना देते हैं.’
खैर, वे यह सब करते हैं और इसके अलावा भी बहुत कुछ करते हैं.

पत्रकारिता के द्वारपाल (गेटकीपर्स) के रूप में अगर संपादक कोई महत्वपूर्ण तथ्य जोड़ने से लिंक करने, बयान या उद्धरण जोड़ने में नाकाम रहते हैं, तो मुश्किल में पड़ जाते हैं. रिपोर्टर फटकार पाकर छुट्टी पा सकता है लेकिन मामला हमेशा संपादक की मेज पर आ धमकता है. उसे चीख-चिल्लाहट झेलनी पड़ती है, अगर ए) किसी खबर या लेख से उठाई गई है, बी) शीर्षक खराब है, सी) तथ्यात्मक त्रुटियां हैं, डी) बहुत लंबा या बहुत छोटा है, चलताऊ है, उसमें पक्षपात है, कोई मायने नहीं रखता है, या बदतर तो यह कि सरासर गलत है. इसलिए उनकी एक आदर्श सीख यह है कि ‘सब कुछ को झूठ मानकर चलो.’

एक संपादक ने कुछ थके हुए अंदाज में कहा, ‘यह मुश्किल, नाशुक्रा काम है.’ ओह, यही वजह है कि संपादक लंबे समय तक काम करते हैं. अखबारों में उनका दिन शाम 5 बजे ही शुरू होता है और उनकी रात सुबह के तड़के तक खिंच सकती है. ऑनलाइन समाचार पोर्टलों में उनकी शिफ्ट 24×7 होती है; दिप्रिंट में भी, उनकी शिफ्ट होती है, लेकिन वे सभी आपको बताएंगे कि वे अपने समय से ज्यादा देर तक काम करते हैं.

उनका चित्र खींचें: डेस्क पर झुके हुए, त्रुटियों और गलतियों को लेकर ‘कॉपी’ में नजरें गड़ाए- कोई भी लेख हमेशा उनके लिए ‘कॉपी’ होती है. संपादकों और उप-संपादकों को यह देखना होता है कि कोई स्टोरी क्या कहानी बयान करती है और साफ-साफ कहती है, ताकि पाठक, कोई भी पाठक उसे समझ पाए.

वे वर्तनी, व्याकरण, भाषा, तथ्यों, नामों, स्थानों, तिथियों, डेटा, उद्धरणों की पुष्टि करके ठीक करते हैं; रिपोर्ट को फिर से लिखते हैं और कई बार पूरी रिपोर्ट, मत-विमत, फीचर खुद ही लिख डालते हैं. वे ‘लाइन एडिट’ करते हैं, हर एक शब्द को ध्यान से पढ़ते हैं, जो पहले के प्रूफ रीडर किया करते थे.

अखबारों में वे पेज भी डिजाइन करते हैं; ऑनलाइन और दिप्रिंट में वे हेडलाइन स्ट्रैप लाइन, की-वर्ड्स देते हैं, संबंधित स्टोरियों के लिंक जोड़ते हैं, वे उन लेखों को पब्लिश भी करते हैं, जिनका संपादन करते हैं.

महत्वपूर्ण बात यह है कि दिप्रिंट में, मत-विमत और फीचर सेक्शन के संपादक, लेखकों के साथ ‘आइडिया’ साझा करते हैं, समझने की कोशिश करते हैं कि वे आखिर कहना क्या चाहते हैं और अक्सर, उनकी ओर से लिख देते हैं. यकीनन वे सचमुच हमारे मुंह में अपने शब्द डाल देते हैं. इसी मामले में वे मिमिक या नकल कर रहे होते हैं.

पांच साल तक दिप्रिंट में काम कर चुकीं संपादक नीरा मजूमदार कहती हैं, ‘आपको दूसरों में प्रवेश करने में महारत हासिल करनी होगी, और कुछ नकल में माहिर होना होगा. आपको लेखकों की भाषा और शैली भी अपनानी होगी और उनके विचारों की भी नकल उतारनी होगी. हमें लेख को बेहतर बनाने के लिए उसके भाव को भी पकड़ना होगा.’

संपादकों को अपने किए परिवर्तनों और बार-बार फोन कॉल या मेल का जवाब न देने की फितरत के लिए रिपोर्टरों के नखरे और आपत्तियों से निपटना पड़ता है; रिर्पाटर डेस्क वालों का ‘संपादक सर्वज्ञ हैं’ कहकर मजाक उड़ाते हैं.

मूल सूत्र: धैर्य और लगन

संपादकों के साथ मेरा अनुभव बेहतरीन रहा है. मैं हमेशा आभारी हूं कि किसी की नजरें मुझ पर रही हैं, सही पर सिर हिला देता है या गलतियों पर गुर्राने लगता है. मुझे पता है कि जब लेख प्रकाशित होगा, तो बिल्कुल ठीक होगा क्योंकि वह संपादकों की छानबीन पर खरा उतरा है. जब मैं यह लेख भी लिख रही हूं, तो मुझे यह सोचकर सुकून मिल रहा है कि दूसरी आंखें इसे देखेंगी, मुझे बताएंगी कि कैसे सुधारें, इसकी बेतुकी बातें हटाएं, पुनरावृत्ति न हों और विचारों को धारदार बनाएं. साथ ही, मैं अपने लिए यह चुनौती भी मानती हूं कि कैसे बिना गलती की कॉपी भेजूं. जिस दिन ऐसा होगा, मैं कलाबाजियां मारने लगूंगी.

लेकिन यह बातचीत आइडिया पर है. और जैसा कि दिप्रिंट के संपादक लोग कहते हैं, लेख का ‘लाजवाब तर्क’ ही अहमियत रखता है, इससे मेरा दिमाग साफ होता है.

बहरहाल, दिप्रिंट जैसे ऑनलाइन समाचार पोर्टल के लिए संपादन और भी कुछ मांग करता है. यहां रफ्तार ही मायने रखती है. दिप्रिंट के संपादक आपको बताएंगे कि हर लेख या रिपोर्ट में शुरुआत धांसू होनी चाहिए. उसका मुख्य संदेश कुछ शुरुआती पैराग्राफ्स में ही होना चाहिए, वाक्य छोटे हों, शैली में बहाव हो और जोशीली हों और बहुत सारे की-वर्ड्स हों. इसमें ‘बकवास’ की कोई गुंजाइश नहीं है, अगर ऐसा है तो संपादक उसे हटा देंगे.

इसके अलावा, दिप्रिंट अपेक्षाकृत नया है. इसके कई रिपोर्टर अपनी पहली नौकरी कर रहे हैं और उम्र के बीसेक साल में हैं. उनमें ऊर्जा और उत्साह भरपूर है लेकिन अनुभव की कमी हैं. इसलिए डेस्क उनकी कॉपी को पब्लिश करने योग्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. इसके लिए काफी धैर्य और लगन की दरकार होती है. आपको उनका सम्मान करना होगा और दिप्रिंट में इसका एक तरीका यह है कि उनके द्वारा संपादित रिपोर्ट या लेख के अंत में उनकी बाइलाइन दी जाती है.


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सब कुछ अच्छी पत्रकारिता की खातिर

दशकों से पत्रकारिता बाइलाइन साम्राज्य बन गई है जिस पर रिपोर्टर राज करता है. लेकिन संपादक ही उसके सिंहासन के पीछे की ताकत होता है और अब भी है. मुख्य उप-संपादक तय किया करते हैं कि क्या छपेगा और क्या नहीं. डेस्क ही वस्तुत: स्टोरी को ‘धार’ देता है. वही तय करता है कि किन रिपोर्टों को उठाना है और किन्हें ‘न्यूज ब्रीफ’ में डाल देना है.
इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाओं में, रिपोर्टर की रिपोर्ट के अंशों को चुनकर उसे समाचार-पत्रिका की शैली में पिरो दिया जाता है, अमूमन प्रकाशित लेख की मूल कॉपी से कोई समानता नहीं होती.

फिर भी आपने सोचा कि आपका काम कठिन था?

इससे कुछ सवाल उभरते हैं: एक, किन गुणों से संपादक बनते हैं? सबसे पहला ’अहंकार शून्य’ हो, कोई चंचल प्रवृत्ति का शख्स आवेदन न करे. खबर की समझ, सही भाषा/व्याकरण का जुनून, सही रहने की जिद, ब्यौरों की गहरी ललक और साधु-संत जैसा धैर्य है तो ये गुण काम आ सकते हैं. वरना, हाई ब्लड प्रेशर के लिए तैयार रहें!

तो, ठीक-ठाक दिमाग वाला भला कोई संपादक क्यों बनना चाहेगा? कुछ को शब्दों से प्यार है, कुछ को खबरों, कुछ को अच्छा लेख छापने की संतुष्टि, कुछ को इसलिए कि वे ज्यादातर लोगों से ज्यादा पढ़ते-जानते हैं, यकीनन रिपोर्टरों से तो ज्यादा ही. कुछ सीधे-सादे शर्मीले होते हैं और पर्दे के पीछे रहकर काम करना पसंद करते हैं: वे खूब पढ़ते हैं: मोटी-मोटी किताबें, अखबार-पत्रिकाएं, और रॉयटर्स, पीटीआई, एएनआई जैसी एजेंसी की खबरें. वे ‘बड़े कैनवास’, दुनिया की खिड़की का मजा लेते हैं.

उन्हें प्रसिद्धि और नाम की नहीं, बल्कि साफ-सुथरी कॉपी लुभाती है. फिर भी, उनके बिना भला अच्छी पत्रकारिता कहां मिलेगी?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(शैलजा वाजपेयी दिप्रिंट की रीडर्स एडिटर हैं. कृपया अपनी राय, शिकायतें readers.editor@theprint.in पर भेंजे.)


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