उत्तर प्रदेश के कई जनपद बुनकर बहुल हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी, मऊ, आजमगढ़, अंबेडकर नगर, बस्ती और गोरखपुर आदि जनपदों में बुनाई एक प्रकार से बुनियादी आर्थिक गतिविधि है. यह सेक्टर सरकारों की नज़र से हमेशा दूर रहा है. यह अलग बात है कि बुनकर अपने दम पर इसी हुनर के भरोसे जैसे तैसे दाल-रोटी और कपड़ा-मकान की व्यवस्था करते रहे हैं. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ने रिवायती हुनरमंदों की आजीविका पर गहरी चोट की थी, फिर भी बिना किसी राजकीय सहायता के यह उद्योग किसी ना किसी प्रकार लाखों परिवारों के लिये आजीविका का साधन बना हुआ था.
नोटबंदी से बुनकरों को हुआ भारी नुकसान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस दिन नोटबंदी का एलान किया, उसके बाद यह उद्योग बरबादी के कगार पर पहुंच गया. इस सेक्टर में कार्यरत अधिकतर लोग नक़दी पर निर्भर होते हैं. इसी कारण इससे संबंधित लोग समान्यत: बैंकिंग व्यवस्था से दूर थे. नोटबंदी के बाद बदली हुई स्थिति में बुनकरों का सारा कारोबार बैठ गया. महाजनों के पास मज़दूरों को देने के लिये नये नोट नहीं थे और बैंकिंग से दूर रहने की वजह से पुराने नोटों को बदलवाने में भी समस्या रही. इसका नतीजा अंतत: बड़े पैमाने पर काम बंद हो जाने के रूप में सामने आया.
जीएसटी ने बुनकरों को तबाह किया
इसी प्रकार जीएसटी लागू होने से भी बुनकरों को नुकसान हुआ. अपने काम को पूरी तरह से स्थानीय स्तर पर करने वाले लोग जीएसटी से जुड़े प्रावधानों को समय से पूरा करने में असफल रहे. इसके अलावा जीएसटी की दरें भी बुनकरों के हित में नहीं हैं. सूरत, अहमदाबाद और भीलवाड़ा जैसे शहरों मे कार्यरत मिल मालिकों ने इस समस्या से छुटकारा जल्दी ही पा लिया, परन्तु जिन जनपदों का उदाहरण प्रारम्भ में दिया गया है, वहां के लोग इस समस्या ने निपटने में असफल रहे. चूंकि यह सेक्टर अधिकतर असंगठित है, इसलिये नोटबंदी या जीएसटी से कितने स्तर पर और कितना नुकसान हुआ है, इसका सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.
मेरा संबंध उसी इलाक़े से है और मैं खुद उसी बिरादरी का हूं, इसलिये यह मुझे मालूम है कि असंख्य बुनकर परिवार पलायन कर कर्नाटक, तेलंगाना, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जा चुके हैं. इसी प्रकार इस तबके के नौजवान हज़ारों की संख्या में रोज़गार के लिये अरब देशों में चले गए.
आम चुनाव, गठबंधन और बुनकर
वैसे तो कांग्रेस और भाजपा नेतृत्व हर तरह के समुदाय और उनके पुश्तैनी कारोबार के संदर्भ में बात कर रहा है. जैसे कि अगली सरकार ऐसे उद्योगों को सहायता प्रदान करेगी, जीएसटी को आसान बनाया जायेगा और स्पेशल पैकेज इत्यादि का प्रावधान किया जाएगा. जैसे, कांग्रेस ने अपने 2019 के मेनिफेस्टो में इस बात का उल्लेख किया है कि वह ट्रेडिशनल उद्योगों जैसे हैंडलूम आदि के उत्पादों के निर्यात के नियम को आसान बनायेगी.
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इस संदर्भ में गठबंधन के नेताओं की तरफ से अभी तक कुछ ठोस सुनने मे नहीं आया है. समाजवादी पार्टी ने जीएसटी को लेकर अपना मत ज़ाहिर किया है, लेकिन बुनकरों के संबंध में उनके पास अलग से कोई योजना नहीं है. बहुजन समाज पार्टी अपना मेनफेस्टो जारी नहीं करती इसलिये उसका बुनकरों के संबंध मे नज़रिया भी साफ नहीं है.
यह बात इन दोनों दलों के पिछले शासनकाल से भी सिद्ध होती है क्योंकि दोनों दलों ने बहुमत में होने के बाद भी बुनकरों को कोई ठोस लाभ नहीं पहुंचाया. समाजवादी पार्टी ने अपने शासनकाल (2012-2017) में बुनकरों को फिक्स रेट पर बिजली देने आदि के संबंध में ज़रूर प्रयास किया था, लेकिन यह भी आधा अधूरा प्रयास था.
सामान्यत: बुनकरी उत्तर प्रदेश मे पिछड़े लोगों की आजीविका का साधन है. इस तबक़े की धार्मिक पहचान मुस्लिम है. यह भी स्पष्ट होना चाहिये यह तबका भाजपा को हराने की मुहिम में कांग्रेस को लंबे समय तक वोट देता रहा है. 1990 के बाद से यह लोग समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को वोट देते आ रहे हैं.
बुनकरों ने खो दिया अपना नेतृत्व
भाजपा हराओ की सिंगल लाइन पालिसी ने इस समुदाय का कई स्तरों पर नुकसान किया है. पहले स्तर पर तो यह हुआ कि इनकी आजीविका से संबंधित समस्यायें कभी मुख्यधारा के विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकीं और ना ही इनके शुभचिंतक दलों ने इनकी समस्याओं को कभी अपने मेनिफेस्टो का हिस्सा बनाया. इन्हें हमेशा सेकुलर-कम्युनल बहस के दायरे में समेट दिया गया.
दूसरे स्तर पर यह नुकसान हुआ कि इनका नेतृत्व भी औरों के हाथ में चला गया. आज़ादी के पहले और बाद में भी बुनकर नेतृत्व किसी ना किसी प्रकार मौजूद रहा है. इसका असर यह था कि हर बुनकर बाहुल्य इलाक़ों में स्थापित बुनकर नेता नज़र आते थे, जिनकी अपनी स्वतंत्र पहचान होती थी.
भाजपा हराओ के चक्कर मे लड़ाई हिन्दू बनाम मुस्लिम हो गयी. यह लगभग तय है कि हिन्दू-मुस्लिम समीकरण मे नेतृत्व हमेशा दोनों तबकों के सवर्णों को ही मिलना है. जब अशराफ़ मुस्लिमों ने तमाम मुस्लिमों के नेता के तौर पर मोर्चा संभाला तो बुनकरों के अपने सवाल हाशिये पर चले गये, जिससे उनकी स्थिति और दयनीय बन गयी. मुस्लिमों के सवर्ण नेतृत्वकर्ता बुनकरों की समस्याओं से परिचित नहीं थे और होना भी नहीं चाहते थे. इस तरह बुनकरों की समस्या बनी रही, क्योंकि उनके प्रतिनिधियों की तरजीहात में बुनकरों के सवाल थे ही नहीं.
बुनकर और भविष्य के सवाल
आज जबकि गठबंधन सारी वंचित ताकतों अर्थात पिछड़ों, दलितों और मुस्लिमों आदि का समर्थन प्राप्त होने का दावा कर रहा है तो क्या वह इस बात का भी आश्वासन देगा कि उसकी मनचाही सरकार बनती है तो.
– वह बुनकरों की समस्याओं को दूर करेगा या सरकारी स्तर पर इन तबकों की भलाई के लिये ठोस प्रयास किये जायेंगे?
-क्या उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की मार झेल रहे इस तबके के पुश्तैनी कार्य को राजकीय सहायता मिलेगी?
-क्या आधुनिकीकरण के द्वारा बुनकरों की रिवायती हुनरमंदी को बढ़ावा दिया जायेगा.
-क्या मशीनों को आधुनिक बनाने के लिए सरकारी अनुदान दिया जायेगा.
-क्या ये सुनिश्चित किया जाएगा कि बुनकरों के बच्चों को उनके आस पास के इंजीनियरिंग कॉलेजों, आईटीआई, विश्वविद्यालयों समेत केन्द्रीय स्कूलों एवं नवोदय स्कूलों में विशेष अवसर प्रदान किया जाएंगे. इस तरह के संस्थानों को तरजीही तौर पर बुनकर बहुल इलाकों में स्थापित किया जा सकता है.
-इस तबके की महिलाओं में एनीमिया और बच्चों में कुपोषण जनित रोग बेहद आम हैं. इसलिये स्वास्थ्य योजनाओं में इस वर्ग के वृद्धों एवं महिलाओं की भागीदारी भी एक बड़ा सवाल है.
गठबंधन से उत्तर प्रदेश के लोगों को बड़ी आशायें हैं. इसी तरह यहां का बुनकर भी आशावान है. यह गठबंधन के नेताओं के लिये सुनहरा अवसर कि वह बुनकरों की समस्याओं पर भी अपना विचार प्रकट करें और उनकी समस्याओं के निदान मे किस तरह उनकी सरकार सहायक बनेगी इस पर भी प्रकाश डालें. मैं यहां इस बात को दोहरा देना ज़रूरी समझता हूं कि बुनकर अब भाजपा हराने की सिंगल लाइन पालिसी के जाल मे फंसने वाले नहीं हैं. वे अब हर दल से अपना हक मांगने के मूड में हैं.
(लेखक भारतीय भाषा केंद्र जेएनयू में शोधार्थी हैं.)