पिछले दिनों हैदराबाद में हुई भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश चुनावों के परिणामों से बहुत कुछ सीखाने की नसीहत देते हुए पसमांदा मुसलमानों पर काम करने का दिशा निर्देश दिया. खासतौर से उत्तर प्रदेश के रामपुर और आजमगढ़ जैसे मुस्लिम बहुल सीटों पर लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी को मिली जीत पर उनकी यह विशेष टिप्पणी थी. वाकई मुस्लिम बहुल और समाजवादी पार्टी का गढ़ कहे जाने वाले इन लोकसभा सीटों पर बीजेपी की जीत थोड़ी अप्रत्याशित तो जरूर थी लेकिन इसका अंदाजा चुनाव विश्लेषकों को पहले से ही था.
उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव में पहले से ही इस बात का अंदाजा लगाया जा रहा था कि मुस्लिम समाज की जातिगत/नस्ली विभेद और सामाजिक न्याय का मुद्दा एक निर्णायक फैक्टर के रूप में सामने आ सकता है. इसी को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने पसमांदा समाज से आने वाले अपने मंत्री दानिश आजाद को मैदान में उतार दिया था. युवा मंत्री की सभाओं में देशज पसमांदा नौजवानों की भीड़ ने विपक्षी पार्टियों को इस दिशा में सोचने पर मजबूत किया. खासतौर से आजमगढ़ में जहां पसमांदा आंदोलन मजबूत माना जाता रहा है समाजवादी पार्टी ने अपने मेरठ के एमएलए रफीक अंसारी और सीतापुर के रहने वाले एमएलसी जस्मीर अंसारी को स्थिति संभालने के लिए आगे बढ़ाया तो बहुजन समाज पार्टी ने भी किसी प्रतिकूल प्रभाव को न्यूट्रलाइज करने के लिए पूर्व राज्य सभा सांसद और उसी क्षेत्र के सालिम अंसारी को नियुक्त किया.
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पसमांदा बना ‘गेम-चैंजर’
रामपुर में जहां पसमांदा आंदोलन बहुत मजबूत नहीं है और कोई भी बड़ा पसमांदा कार्यकर्ता वहां सक्रिय नहीं था. वहां आंदोलन के बढ़ते हुए प्रभाव से पसमांदा समाज के अंदर दबी हुई सामाजिक न्याय की आस उभर कर सतह पर आ गई और ठीक बीच चुनाव के दौरान मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद पर आमतौर से चर्चा होने लगी जिसने आजम खान की चिंता बढ़ा दी.
गौरतलब है कि सपा ने रामपुर में अशराफ प्रत्याशी दिया था जो आजम खान के करीबी माने जाते हैं जिससे पसमांदा समाज में कुलबुलाहट थी कि क्या हमेशा यही लोग प्रतिनिधित्व करेंगे? आजम खान से नाराज पसमांदा वोटरों का रुख भांप कर आजम खान के धुर विरोधी समझे जाने वाले रामपुर के सैय्यद नवाब खानदान के लोगों ने इसे और हवा दी.
नतीजातन, पहले की तरह बीजेपी हराओ का जोश पसमांदा में नहीं दिखाई दिया जिसका सीधा असर मतदान प्रतिशत पर पड़ा और बहुत कम मतदान हुआ. एक तो पसमांदा वोट डालने के लिए घरों से बाहर ही नहीं निकले और जो आए भी तो उनमें से बहुतों ने एसपी के विपक्ष में वोट दिया. जिसकी वजह से रामपुर के चुनाव परिणाम पर पसमांदा आंदोलन का स्पष्ट प्रभाव दिखा और आमने सामने की लड़ाई में चौंकाने वाला रिजल्ट सामने आया.
आजमगढ़ में अशराफ के राजनैतिक कौशल और वरिष्ठ पसमांदा कार्यकर्ताओ के अदूरदर्शिता पूर्वक नीति ने मद्धिम पड़ रहे अशराफवाद को बल दिया है. आजमगढ़ लोकसभा के लिए अशराफ वर्ग की रणनीति थी की अखिलेश को उसके गढ़ में हरवाकर कर यह संदेश दिया जाए कि बिना हमारे (अशराफ मुसलमानों) आप कुछ नहीं हैं. इसके लिए बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के अशराफ उम्मीदवार के पीछे पूरी तरह मुस्लिम ध्रुवीकरण करने का सफल प्रयास किया गया और अशराफ के नेतृत्व वाली राजनैतिक पार्टियों ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) और उलेमा काउंसिल ने बीएसपी के अशराफ प्रत्याशी को समर्थन देने का ऐलान कर किया. इससे प्रभावित होकर पसमांदा नेतृत्व वाली पीस पार्टी ने भी बीएसपी के समर्थन में आ गई. इसके अलावा सभी प्रमुख अशराफ सामाजिक संगठनों और बुद्धिजीवियों द्वारा भी बीएसपी को अंदर खाने और खुल कर समर्थन दिया गया.
दूसरे पसमांदा समाज और उसके कार्यकर्ताओं को यह कह कर एसपी के विरोध में लगा दिया गया कि एसपी ने आप लोगों का सिर्फ वोट लिया है और भागेदारी नहीं दी गई इसलिए इनको चुनाव में शिकस्त दे कर सबक सिखाना है. इस से कुछ वरिष्ठ पसमांदा कार्यकर्ता भी भ्रमित हो गए और एसपी का खुल कर विरोध करने लगे. कुछ तो बीएसपी के अशराफ कैंडिडेट के लिए खुल कर प्रचार भी करने लगे यह कहते हुए हुए कि सालिम अंसारी की इज्जत की बात है जबकि पसमांदा कार्यकर्ता यह बात समझने में नाकाम रहे हैं कि उनका वोट तो बीएसपी ने भी लिया है लेकिन भागेदारी नहीं दी. बीजेपी ने तो बिना वोट दिए पसमांदा समाज को एक मंत्री दिया है. इस आधार पर तो पसमांदा वोटों पर बीजेपी का हक बनता था.
इन पसमांदा कार्यकर्ताओं को यह बात भी समझ में नहीं आई कि अगर बीएसपी ने सालिम अंसारी को टिकट दिया होता तो क्या अशराफ वर्ग खुल इस तरह गंभीर होकर बीएसपी के लिए प्रचार करता? मेरी समझ से कभी नहीं और ऐसी सूरत में वो खुल कर बीजेपी हराओ और कौम बचाओ का नारा देकर एसपी को जिताने का प्रयास करता और एसपी की जीत के बाद एसपी में अपना कद बढ़ा लेता.
पसमांदा कार्यकर्ताओ की टाइमिंग गलत थी और अनजाने में ही सही उन्होंने अपने शोषक को ही मजबूत किया जिसके दूरगामी परिणाम देशज पसमांदा समाज को आजमगढ़ और मऊ क्षेत्र में उठाना पड़ सकता है जहां से अब तक का यह इतिहास रहा है कि पसमांदा बहुल होने के बाद भी बाहरी अशराफ चुनाव जीतते आ रहे हैं.
पसमांदा आंदोलन के प्रभाव को देखते हुए आजमगढ़ उपचुनाव में पसमांदा वोटरों को रिझाने के लिए पार्टियों द्वारा पसमांदा मंत्री और नेताओ को आगे कर वोट लेने की रणनीति धरी की धरी रह गई. अशराफ की पुरानी मुस्लिम एकता और मजहबी धुर्वीकरण की नीति ही सब पर हावी रही और अशराफ वर्ग अपने रणनीति में कामयाब रहते हुए मनचाहा परिणाम हासिल किया. यह स्पष्ट रूप से पसमांदा आंदोलन की हार है और आजमगढ़ में बीजेपी की जीत के बावजूद अशराफवाद पहले से अधिक मजबूत हो कर सामने आया.
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रामपुर और आजमगढ़ के चुनाव का पसमांदा को संदेश
रामपुर और आजमगढ़ के चुनाव ने पसमांदा के लिए दो महत्वपूर्ण संकेत दिए हैं. पहला ये कि अगर पसमांदा चाहे तो अब उसके (पसमांदा) हिसाब से चीजें हो सकती हैं और वो बहुत बढ़िया नतीजे दे सकता है. इस बात को भाजपा ने समझा है. आगामी लोकसभा चुनाव में वो इसे भुनाने का पूरा प्रयास भी करेंगे. दूसरी चुनौती यह है कि इस बात को अशराफ वर्ग भी समझ रहा है कि पसमांदा के उभार से सबसे ज्यादा नुकसान अशराफ वर्ग को ही होगा जो मुसलिम नाम पर लगभग हर जगह पूरी तरह कब्जा किए हुए हैं. आने वाले दिनों में अशराफ वर्ग जो तमाम संसाधनों से संपन्न है वह बहुत आक्रामक होकर साम-दाम-दंड भेद के साथ अपने हितों की रक्षा के लिए काम करेगा. वो बहुत सारे पसमांदा कार्यकर्ताओ को भी मजहब के नाम पर बरगलाने की कोशिश करेगा जो इधर दिखाई भी दे रहा है.
हमारे बहुत सारे पसमांदा कार्यकर्ता इस बात को समझ नहीं पा रहें हैं और वे अशराफ की ही बोली बोलने लगते हैं. पसमांदा आंदोलन के सामने यह बड़ी चुनौती है कि अशराफ वर्ग की रणनीति को किस तरह से लगातार बेनकाब किया जाए और अपने पसमांदा साथियों में इस बात की जागरूकता बढ़ाई जाए.
(लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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