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Saturday, 28 December, 2024
होममत-विमतवाराणसी में कैसे बह गई करोड़ों की नहर, आखिर कब तक गंगा को चुकानी पड़ेगी विकास की कीमत

वाराणसी में कैसे बह गई करोड़ों की नहर, आखिर कब तक गंगा को चुकानी पड़ेगी विकास की कीमत

नहर गंगा की घोषणा से उत्साहित भक्तों की तालियों की गूंज थमी भी नहीं थी कि बाढ़ आई और नहर बह गई, साथ ही सपनों का वह शहर भी बह गया, जो स्विस कॉटेज चेन से नहर किनारे आकार लेने वाला था.

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करीब 12 करोड़ की लागत से वाराणसी में एक नहर बनाई गई थी, जिसका उद्देश्य पर्यटन गतिविधियां चलाना था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछले वाराणसी दौरे के समय इस नहर को नई आर्थिक परिभाषा लिखने वाली नहर बताया गया था. प्रधानमंत्री ने यहां रो-रो पेक्स (कमरों और रेस्तरां से सुसज्जित जहाज) और जलयान के लिए बत्तीस करोड़ रुपए से भी ज्यादा जारी किए थे.

सोच कर देखिए– एक नदी जैसी नहर, जिसके दोनों किनारों पर रेत के टीले और उनमें लगे स्विस टेंट. खाने-पीने की पूरी छूट और क्या चाहिए इस आइलैंड में. रामनगर में रेती पर ‘सी-बीच’ जैसा माहौल बनाया जाएगा. पर्यटक पैराग्लाइडिंग, स्कूबा डाइव, ऊंट, हाथी और घोड़े की सवारी का लुत्फ ले सकेंगे.

नहर गंगा की घोषणा से उत्साहित भक्तों की तालियों की गूंज थमी भी नहीं थी कि बाढ़ आई और नहर बह गई, साथ ही सपनों का वह शहर भी बह गया, जो स्विस कॉटेज चेन से नहर किनारे आकार लेने वाला था.

नहर में बालू भर गया तो प्रशासन ने अपने सुर बदल लिए. अब कहा जा रहा है कि यह नहर गंगा के वेग के अध्ययन के लिए बनाई गई ताकि पता चले कि गंगा में कितना बहाव होता है और बाढ़ के प्रकोप से घाटों को होने वाले नुकसान को बचाया जा सके. मानो गंगा चार दिन पहले धरती पर आई हो, जिसका वेग नहीं पता और वाराणसी के घाटों पर कोई पूर्व अध्ययन ही नहीं हुआ हो.

यह कोई पहली बार नहीं है जब सरकारों ने बनारस के घाटों को बचाने के लिए इस तरह की अजीबो गरीब पहल की हो.


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कछुआ सेंचुरी और विफलता

एक छोटी सी कहानी सुनिए.

1989 की बात है. ग्लोबलाइजेशन की आहट थी. देश नए–नए शब्दों, विचारों से परिचित हो रहा था. वीपी सिंह की सरकार ने राजीव गांधी द्वारा शुरू किए गए गंगा एक्शन प्लान को विफल करार दे दिया और विकल्प के तौर पर एक कछुआ सेंचुरी बनाने का प्रस्ताव रखा. वैसे कछुआ सेंचुरी का प्रस्ताव राजीव गांधी के समय ही आया था लेकिन क्रेडिट ना देना राजनीति का अहम गुण है और इसी आधार पर यह माना जाता है कि राष्ट्रीय जलमार्ग की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी ने की है.

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वीपी सिंह ने तीन दशक पहले ही जलमार्ग का उद्घाटन कर दिया था.

बहरहाल, कछुआ सेंचुरी बनाने के पीछे तर्क यह था कि कछुओं की उपस्थिति स्वच्छ नदी की निशानी है. उस समय भी ‘मजबूत मौन मीडिया’ ने यह सवाल नहीं उठाया कि इसकी जरूरत क्या है.

12 दिसंबर 1989 को कछुआ सेंचुरी की अधिसूचना जारी हो गई. चंबल और कोसी के इलाके से कछुए लाकर यहां डाले गए. यह सेंचुरी वाराणसी के पूर्वी छोर पर बनाई गई थी. यहां की भौगोलिक परिस्थिति को कछुओं के लिए माकूल पाया गया था.

वाराणसी में गंगा अर्धचंद्राकार रूप लेती है जिस वजह से पूर्वी छोर पर रेत का तेज जमाव होता है. चूंकि यहां सेंचुरी बन गई थी इसलिए रेत खनन पर रोक लगा दी गई ताकि कछुओं को परेशानी ना हो. खनन पर रोक लगाने से रेत जमाव होने लगा. इस रेत जमाव ने यहां बड़े टीलों का निर्माण कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि बाढ़ का पानी पश्चिमी छोर की तरफ तेजी से बढ़ा और दुनिया के प्राचीनतम शहर के घाटों को अच्छा खासा नुकसान पहुंचाया.


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‘नदी रहे ना रहे, हनीमून तो रेत में भी मनाया जा सकता है’

बाढ़, गंगा का अनिवार्य पहलू है. इसके अलावा मणिकर्णिका और राजा हरीशचंद्र घाट पर अनवरत होते दाह संस्कार जैसे कारणों के चलते यहां कछुआ सेंचुरी सफल नहीं हुई. पहली बाढ़ में ही कछुए बह कर पटना चले गए जहां उनका शिकार कर लिया गया. इस तरह कछुआ सेंचुरी की कहानी शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई. हलांकि सेंचुरी का अंतिम अध्याय पिछले साल 2020 में लिखा गया जब सेंचुरी को असफल मानते हुए निरस्त करने की अधिसूचना निकाली गई.

इसका यह कतई मतलब नहीं कि पुरानी गलतियों को सुधारा गया. बल्कि गलती को बेहद बड़ा कर दिया गया. सेंचुरी इसलिए निरस्त की गई ताकि यहां नहर के लिए बड़े पैमाने पर ड्रेजिंग की जा सके. इस कार्य के लिए सरकारी विशेषज्ञ पैनल की मदद ली गई.

सामान्य समझ कहती है कि यह नदी को शिफ्ट करने की भोली भाली इंसानी कोशिश है जैसे साबरमती में की गई. अब नदी बाबा विश्वनाथ का गलियारा तो है नहीं कि बाजार की तरह शिफ्ट कर दिया जाए. नदी का निर्माण नहीं होता बल्कि वह अवतरित होती है और अपना रास्ता खुद तय करती है, उसके रास्ते को रोकने और बदलने के दुष्परिणामों से इतिहास भरा पड़ा है.

ना तो कछुआ सेंचुरी के नाम पर बालू का बढ़ना ठीक था ना ही पर्यटन नहर के नाम पर उसका बेतरतीब खोदा जाना. दोनों ही स्थितियां गंगा और उसके घाटों के लिए घातक हैं.

प्रशासन ने बीएचयू के पूर्व सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर नदी विज्ञानी और प्रोफेसर यूके चौधरी की बात पर ही ध्यान दे लिया होता तो यह स्थिति पैदा ही नहीं होती. चौधरी ने जोर देकर कहा था कि पूर्वी क्षेत्र में गढ्ढा या नहर होने के कारण बाढ़ के पानी का प्रवाह और तेज होगा, जो बालू–मिट्टी लेकर तेजी से पश्चिम के घाटों की ओर बढ़ेगा.

बहरहाल नहर में बालू भर गया और बाढ़ थमने के बाद फिर से खुदाई का वचन भी सत्ता ने जारी कर दिया. लेकिन समझने की जरूरत है कि गर्मियों में नहर की वजह से समस्या और बढ़ेगी. पहला तो पानी की कमी से जूझ रही मुख्य धारा में पानी और भी कम हो जाएगा और दूसरा पानी कम होने से सेडीमेंट ज्यादा टूटेंगे जिससे गंदगी ज्यादा जमा होगी.

अब एक नजर गंगा को नहर स्वरूप देने पर आतुर प्रशासन की मजबूरी पर डाल लीजिए. गंगा के आध्यात्मिक स्वरूप को विकास की कीमत पर बनाए रखना बेहद मुश्किल है इसलिए उसे खूबसूरत बनाने की कोशिश की जा रही है. गंगा के घाट तीर्थाटन से पर्यटन में बदल रहे हैं, इससे रेवेन्यू भी ज्यादा आएगा और सबसे बड़ी बात गंगा के गंगत्व को बनाए रखने का दवाब खत्म हो जाएगा. यही कारण है कि रेत की नदी का निर्माण– जिद है तो जिद है जी, की तर्ज पर किया जा रहा है.

सरकार जानती है नदी रहे ना रहे, ‘हनीमून’ तो रेत में भी मनाया जा सकता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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