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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतसोनिया गांधी ने अपने बेटे के नाकाम सिपाहियों को आगे बढ़ाकर कैसे कांग्रेस को कमज़ोर किया है

सोनिया गांधी ने अपने बेटे के नाकाम सिपाहियों को आगे बढ़ाकर कैसे कांग्रेस को कमज़ोर किया है

कांग्रेस पार्टी के संगठनात्मक फेरबदल में गांधी परिवार की राजनीतिक सूझबूझ और रणनीतिक परिपक्वता की झलक पाने की कोशिश बेमानी ही है.

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कई साल पहले एक बार जब मैं खबर की खोज में निकला था, मैंने देखा कि कांग्रेस पार्टी मुख्यालय के लॉन में महाराष्ट्र के एक प्रभावशाली विधायक 10,जनपथ के एक चपरासी से लंबी बातचीत में लगे हुए थे. जैसे ही मैं उन दोनों के करीब पहुंचा, विधायक कन्हैया लाल गिडवानी ने बातचीत बंद कर दी और उस चपरासी को तीन मोबाइल नंबर दिए जिनमें एक ‘प्राइवेट’ नंबर भी था, जो ‘चंद चुनिन्दा लोगों’ को दिया था.

गिडवानी का नाम तब तक आदर्श सोसाइटी घोटाले में नहीं आया था और एके एंटनी और प्रणब मुखर्जी सरीखे बड़े नेताओं तक उनकी सीधी पहुंच थी. इसलिए, मैं उन्हें एक चपरासी से उस तरह बात करते हुए देखकर आश्चर्य में था. जैसा कि गिडवानी ने बाद में मुझे बताया, वे और कर्नाटक के एक पार्टी नेता ने पिछली रात उस चपरासी के साथ ताज मान सिंह होटल में खाना खाया था. कर्नाटक के वे पार्टी नेता सोनिया गांधी के नाम एच.डी. देवेगौड़ा की चिट्ठी लेकर दूसरी बार आए थे, जिसमें जनता दल (एस) ने विधान परिषद के चुनाव में उस नेता का समर्थन करने का वादा किया था. नामांकन पर्चा भरने के लिए बस एक दिन बाकी रह गया था और चुनौती यह थी कि सोनिया वह पत्र समय पर पढ़ लें. वे लोग सफल हो गए क्योंकि उस चपरासी ने उस पत्र को अगली सुबह सोनिया के टेबल पर सभी कागजात के ऊपर रख दिया था. और कर्नाटक के वे नेता विधायक बन गए. गिडवानी ने मेरी अज्ञानता पर चुटकी लेते हुए कहा था, ‘आप नहीं जानते, इन चपरासियों की क्या ताकत है.’

गांधी परिवार के प्रति भेदभाव न बरतते हुए कहना पड़ेगा कि वह एक चपरासी और एक ताकतवर नेता या मंत्री में कोई भेद नहीं बरतता. यूपीए के दौर में, राहुल गांधी वरिष्ठ मंत्रियों को भी अपने दफ्तर में मिलने से पहले घंटों इंतज़ार करवाते थे. तो चपरासी वाला यह प्रसंग भला मैं क्यों याद कर रहा हूं? सिर्फ यह बताने के लिए कि कांग्रेस के नेताओं की किस्मत के वारे-न्यारे एक चपरासी भी फाइव स्टार होटल में भोज खाने के बाद कर सकता है या उनकी तकदीर इस बात से भी खुल सकती है कि सोनिया या राहुल सो कर जागने के बाद बिस्तर के किस तरफ से उतरते हैं या वे अपनी मेज के सामने कब बैठते हैं.

कांग्रेस के संगठन में पिछले शुक्रवार को फेरबदल किए गए. कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्लूसी) का पुनर्गठन किया गया, सोनिया की मदद के लिए एक विशेष कमिटी बनाई गई, महासचिवों और प्रदेश पार्टी प्रभारियों की नियुक्ति की गई. लेकिन इस सबमें गांधी परिवार की राजनीतिक सूझबूझ या रणनीतिक परिपक्वता ढूंढने की कोशिश बेमानी ही होगी. वास्तव में, ये फेरबदल तमाम राजनीतिक समझदारी या तर्क से परे हैं, विवेक की तो कोई बात ही नहीं है.


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गांधी परिवार की ‘दरियादिली’

गांधी परिवार ने बेशक यह संदेश देने की जरूर कोशिश की कि वह असहमति जाहिर करने वाले सभी 20 नेताओं को इकट्ठे सज़ा देकर अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहती. गांधी परिवार यह कर भी नहीं सकता था क्योंकि उसके वफादारों समेत काफी बड़ी संख्या में कांग्रेस वाले उन 20 नेताओं के दस्तखत वाले पत्र के मजमून से इत्तफाक रखते पाए जा सकते हैं. इसलिए, कांग्रेस अध्यक्ष की सहायता के लिए छह सदस्यों की एक कमिटी बनाकर यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि सोनिया उस पत्र में उठाए गए मुद्दों पर ध्यान दे रही हैं. निष्पक्षता की खातिर, इस पत्र पर दस्तखत करने वाले एक नेता, मुकुल वासनिक को भी इस कमिटी में शामिल किया गया है. वासनिक को शामिल करना भी समझ में आता है. एक पल की गफलत में उस पत्र पर दस्तखत करने के सिवा वे गैर-नुकसानदेह नेता रहे हैं और अपनी पार्टी के आकाओं को तो क्या, अपने राजनीतिक विरोधियों को भी उन्होंने कभी नाराज नहीं किया है.

उस पत्र पर दस्तखत करने वाले वासनिक के अलावा चार और नेताओं को गांधी परिवार की दरियादिली का फायदा मिला. गुलाम नबी आज़ाद, आनंद शर्मा और जितिन प्रसाद को सीडब्ल्यूसी में अपनी जगह पर बनाए रखा गया (प्रसाद को इसके साथ ही पश्चिम बंगाल का प्रभारी भी बना दिया गया), जबकि अरविंदर सिंह लवली को सेंट्रल इलेक्सन ऑथरिटी (सीईए) का सदस्य बना दिया गया. हालांकि आज़ाद को महासचिव के पद से हटा दिया गया, मगर उन्हें सीडब्ल्यूसी में बनाए रखकर उनकी थोड़ी इज्ज़त रख ली गई. लेकिन जितिन प्रसाद पश्चिम बंगाल की ज़िम्मेदारी पाकर बहुत खुश नहीं हुए होंगे. राहुल और प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी पार्टी के किसी ऐरे-गैरे को सौंपना मंजूर होगा, जितिन प्रसाद को नहीं. केंद्र में कभी मंत्री रह चुके जितिन प्रसाद यूपी में ब्राह्मणों के असंतोष को भुना कर अपना आधार मजबूत करने की कोशिश कर रहे थे कि उन्हें पश्चिम बंगाल भेज दिया गया जहां कांग्रेस लगभग अप्रासंगिक हो चुकी है.

गांधी परिवार की दरियादिली की बात करें तो दिग्विजय सिंह खुद को सीडब्ल्यूसी में ‘स्थायी आमंत्रित’ की श्रेणी में शामिल किए जाने से जरूर तिरस्कृत महसूस कर रहे होंगे. उनसे कमतर कद वाले नेता सीडब्ल्यूसी के पूर्णकालिक सदस्य हैं, जबकि दिग्विजय सिंह को मनीष चतरथ, राजीव शुक्ल, कुलजीत सिंह नागरा, राजीव साटव आदि की श्रेणी में डाल दिया गया है.

राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट भी गांधी परिवार की ‘दरियादिली’ का मार महसूस कर रहे होंगे. उम्मीद की जा रही थी कि उपमुख्यमंत्री और राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष के पद गंवाने के बाद पायलट को अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी (एआईसीसी) के ढांचे में कहीं फिट कर दिया जाएगा मगर उन्हें हाशिये पर ही छोड़ दिया गया है.


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राज्यों के मामले में अटपटे कदम

2019 के लोकसभा चुनाव में जिन करीब 12 करोड़ लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया वे यह जानने को जरूर उत्सुक होंगे कि वह राज्यों में अपना खोया जनाधार फिर से हासिल करने के लिए क्या योजना बना रही है. लेकिन जिन नेताओं को राज्यों का जिम्मा सौंपा गया है उनकी ‘उपलब्धियां’ देखने पर यही लगता है कि पार्टी अपना आधार और भी गंवाने का फैसला कर चुकी है, सिवा इसके कि राहुल के क्षत्रप पार्टी में और ताकतवर हो सकते हैं.

कांग्रेस ने नौ महासचिवों और 17 प्रदेश प्रभारियों को नियुक्त किया है. उनकी सूची गांधी परिवार की ‘राजनीतिक सूझबूझ’ का ही परिचय देती है. कुछ उदाहरणों पर नज़र डाल लें—

के.सी. वेणुगोपाल: राहुल के सहायक हैं, महासचिव (संगठन) के पद पर बनाए रखे गए हैं. उनकी ‘उपलब्धियां’— अलप्पुझा से 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ने से भाग खड़े हुए, राज्य की जिस एकमात्र सीट पर माकपा के नेतृत्व वाला एलडीएफ जीत पाया, हाल में उन्हें राज्य सभा की सदस्यता से पुरस्कृत किया गया.

रणदीप सिंह सुरजेवाला: एआईसीसी के नए महासचिव, कर्नाटक के प्रभारी. उनकी ‘उपलब्धियां’— वे अपने ही राज्य हरियाणा में लगातार पिछले दो विधानसभा चुनाव हार चुके हैं, एआईसीसी के कम्यूनिकेशन विभाग के अध्यक्ष के तौर पर नाकाम साबित हो चुके हैं जबकि इस विपक्षी दल का काम मानो मीडिया पर हमले करना ही रह गया है.

राजीव साटव: उन्हें गुजरात की ज़िम्मेदारी फिर सौंपी गई है. उनकी ‘उपलब्धियां’— 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान वे गुजरात के प्रभारी थे और कांग्रेस वहां से एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. उन्होंने हिंगोली की अपनी लोकसभा सीट को भी बचाने से मना कर दिया था और कांग्रेस वह सीट गंवा बैठी थी. जब वे युवा कांग्रेस के अध्यक्ष थे तब राहुल के ‘लोकतंत्रीकरण’ का प्रयोग फिस्स साबित हुआ था.

जितेंद्र सिंह: महासचिव नियुक्त किए गए हैं और असम के प्रभारी बनाए गए हैं. उनकी ‘उपलब्धियां’— वे 2019 में ओडिशा विधानसभा के चुनाव के दौरान वहां के प्रभारी थे. कांग्रेस 147 सीटों में केवल 9 जीत पाई थी और मुख्य विपक्षी दल का स्थान भाजपा को दे बैठी थी. वैसे, 2018 में जब उन्हें ओडिशा की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी तभी प्रदेश कांग्रेस बदहाल थी. बताया जाता है कि राहुल ने उनसे कहा था कि आप 2019 चुनाव की चिंता न करें, 2024 के लिए पार्टी को जिंदा करने की कोशिश करें. अब आप गांधी परिवार से इन बातों को याद रखने की उम्मीद तो नहीं ही करेंगे.

ए. चेल्ला कुमार: उन्हें ओडिशा का प्रभारी बनाया गया है. उनकी ‘उपलब्धियां’— 2017 के गोवा विधानसभा चुनाव के बाद उसके प्रभारी दिग्विजय सिंह वहां पार्टी की सरकार न बनवा पाए तो उनकी जगह चेल्ला कुमार को भार सौंपा गया था. अब जब चेल्ला कुमार वहां के प्रभारी थे तब जुलाई 2019 में 15 में से 10 कांग्रेस विधायक भाजपा में चले गए थे.

रजनी पाटील: जम्मू-कश्मीर के प्रभारी बनाई गई हैं. उनकी ‘उपलब्धियां’— 1996 में भाजपा उम्मीदवार के तौर पर महाराष्ट्र की बीड लोकसभा चुनाव में जीत उनकी अंतिम चुनावी जीत थी. 1990 के दशक में वे कांग्रेस से अलग हो गई थीं लेकिन जब सोनिया गांधी ने कमान संभाली तो 1998 में वे वापस आ गईं.

राजीव शुक्ल: उन्हें हिमाचल प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है. उनकी ‘उपलब्धियां’— कभी सीधा चुनाव नहीं लड़ा.

हरीश रावत: उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उन्हें पंजाब का भार सौंपते हुए महासचिव बनाया गया है. उत्तराखंड और पंजाब में 2022 में चुनाव होने हैं. ऐसा लगता है कि पार्टी आलाकमान उत्तराखंड में लोकप्रियता रखने वाले इस एकमात्र कांग्रेस नेता को उस राज्य से बाहर रखना चाहता है या पंजाब के चुनाव को लेकर गंभीर नहीं है.

ओमान चांडी: केरल के पूर्व मुख्यमंत्री चांडी को महासचिव बनाकर आंध्र प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी गई है. केरल में मई 2021 में चुनाव होना है. फिर ऐसा लगता है कि आलाकमान या तो चांडी को केरल से बाहर रखना चाहता है या उसे आंध्र के चुनाव की चिंता नहीं है.

लब्बोलुबाव यह कि कांग्रेस में इस फेरबदल से राहुल की मंडली भले ताकतवर हुई हो, पार्टी को कई राज्यों में और झटका ही लगने वाला है.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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