भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद तीसरे नंबर पर कौन है? क्या बेतुका सवाल है, है ना? इनके बाद तो भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ही होंगे. वो तस्वीरें भी गवाह हैं जब ये सभी साथ में पार्टी के किसी कार्यक्रम में शामिल होते हैं. प्रधानमंत्री मोदी सबसे आगे होते हैं, उनसे मामूली-सी दूरी पर गृह मंत्री शाह चल रहे होते हैं और कुछ फीट की दूरी पर नड्डा भी उनके साथ कदमताल करते नजर आते हैं.
नड्डा की पार्टी बैठकों की अध्यक्षता करने, रैलियों को संबोधित करने, मुख्यमंत्रियों और संगठन और सरकार के अन्य बड़े लोगों के साथ मिलने की तस्वीरें भी आती रहती हैं. पार्टी में सभी निर्णय नड्डा के नाम पर लिए जाते हैं, जैसे भारत सरकार के सभी कार्यकारी कदम राष्ट्रपति के नाम पर उठाए जाते हैं. तो, पहली नजर में तो नंबर-3 की स्थिति पर बहस बेमानी ही लग सकती है.
लेकिन यह तब जरूर प्रासंगिक हो जाती है, जब पार्टी पदानुक्रम में नंबर-4 की हैसियत मजबूती के साथ उभरती नजर आने लगे, जिसमें नंबर 3 का सवाल सुलझा मान लिया जाता है. अटल बिहारी वाजपेयी-लालकृष्ण आडवाणी के समय में पार्टी में नंबर 1 और नंबर 2 की स्थिति एकदम साफ थी, जबकि बाकी सारा पदानुक्रम वस्तुतः आम लोगों की धारणा पर निर्भर करता था—भले ही कुशाभाऊ ठाकरे जैसे दिग्गज पार्टी अध्यक्ष रहे हों या फिर कुछ कमतर राजनीतिक कद वाले नेता, जैसे बंगारू लक्ष्मण (याद कीजिए भाजपा के एकमात्र दलित प्रमुख?), जन कृष्णमूर्ति या फिर वेंकैया नायडू ने यह पद संभाला हो. बतौर अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी के कार्यकाल के दौरान भी यही स्थिति थी. हमेशा प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज या कुछ मुख्यमंत्री होते थे जो शीर्ष दो के बाद का पदानुक्रम गड़बड़ा देते थे.
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नंबर-4 की स्थिति साफ
मोदी-शाह के दौर में बहुत कुछ नहीं बदला है. पार्टी अध्यक्ष को नंबर-3 की स्थिति में माना जाता है जैसा वाजपेयी-आडवाणी के समय हुआ करता था. बेशक, नंबर-3 का स्थान बेमानी हो जाता है यदि शीर्ष दो में से कोई एक पार्टी अध्यक्ष का पद संभाले. लेकिन अब जो बदला है वो यह कि भाजपा के पदानुक्रम में नंबर-4 का स्पष्ट तौर पर उभरना. और यह हैं बी.एल. संतोष जो किसी रॉक स्टार महासचिव (संगठन) के तौर पर उभरे हैं. वे एक राज्य से दूसरे राज्य की राजधानी की यात्रा करते रहते हैं और मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, पार्टी नेताओं के साथ बैठकें करते हैं. वह शुक्रवार को देहरादून पहुंचे तो भाजपा के एक विधायक ने गुलदस्ता भेंट कर उनका स्वागत करना चाहा लेकिन जिस व्यक्ति को इसे लाना था, उसे देर लगी. इस पर संतोष के यह कहने कि—’आप सुस्त हैं, या व्यवस्था ही सुस्त है?’—पर वहां मौजूद लोग शर्मिंदगी के साथ मुस्कुराने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते थे. सीएम पुष्कर सिंह धामी के सरकार और पार्टी के कामकाज के बारे में फीडबैक लेने के लिए दिल्ली से लौटने के एक दिन बाद ही संतोष ने मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों से मुलाकात की.
अगले दिन, संतोष भोपाल के रातापानी अभयारण्य में भाजपा की एक बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे, जिसमें सीएम शिवराज चौहान, उनके कुछ मंत्री और वे केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ पार्टी नेता शामिल थे, जो मध्य प्रदेश के हैं. उनमें किसी को भी न तो मोबाइल का उपयोग करना था और न ही मीडिया से कोई बात करनी थी—यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसे मोदी ने गुजरात में 1980 के दशक में शुरू किया था जब वह बिना किसी कनेक्टिविटी के भाजपा नेताओं के जत्थे को दूरदराज के इलाकों में मीटिंग के लिए भेजते थे.
पिछले महीने, संतोष शिमला में थे और उन्होंने सरकार के कामकाज के बारे में फीडबैक लेने के लिए मंत्रियों के साथ आमने-सामने बैठक की थी.
संतोष मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और पार्टी नेताओं के साथ बैठक में आखिरकार संदेश क्या देते हैं, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है. वह शाहरुख खान स्टारर चक दे! इंडिया के बहुत बड़े प्रशंसक हैं. बताया जाता है कि उन्होंने लगभग एक दर्जन बार यह फिल्म देखी है. अगर संतोष की बैठकों में शाहरुख खान का संवाद गूंजता हो तो कोई अचरज की बात नहीं हैं:—
‘इस टीम को सिर्फ वो खिलाड़ी चाहिए जो पहले इंडिया (यहां भाजपा पढ़ें) के लिए खेल रहे हैं…फिर अपनी टीम में अपने साथियों के लिए…और उसके बाद भी थोड़ी बहुत जान बच जाए तो अपने लिए.’
कई ऐसी प्रभावशाली हस्तियां रही हैं जिन्होंने महासचिव (संगठन) का पद संभाला, इनमें जनसंघ के समय में दीनदयाल उपाध्याय और सुंदर सिंह भंडारी से लेकर भाजपा में नरेंद्र मोदी, के.एन. गोविंदाचार्य, संजय जोशी और राम लाल तक शामिल हैं. ये सभी अपने पद की अपेक्षा कुछ ज्यादा प्रभावशाली साबित हुए. दरअसल, राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर महासचिव (संगठन) का पद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के उस पूर्णकालिक प्रचारक को मिलता है जिसे भाजपा संगठन में ‘भेजा’ जाता है. वह भाजपा अध्यक्ष को रिपोर्ट करते हैं लेकिन केवल तकनीकी तौर पर. बात जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपाणी या त्रिपुरा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिप्लब देब को इस्तीफा देने को कहने जैसा कड़ा संदेश भेजने की हो तो संतोष ही मोदी के पॉइंटमैन रहे हैं. पिछले साल केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के समय मोदी ने उन्हें ही यह जिम्मेदारी सौंपी कि पार्टी सांसदों को अगले 24 घंटों में दिल्ली पहुंचने को कहें क्योंकि उन्हें मंत्री बनाया जाना है.
वैसे तमाम व्यावहारिक उद्देश्यों के मद्देनजर उनके रिपोर्टिंग मैनेजर आरएसएस सरसंघचालक हैं और यह रिपोर्टिंग संपर्क अधिकारी (इस मामले में संयुक्त महासचिव अरुण कुमार) के माध्यम से होती है, जो संघ और भाजपा के बीच समन्वयक के तौर पर कार्य करते हैं. संतोष संगठन के हर छोटे-बड़े घटनाक्रम पर कड़ी नजर रखते हैं और जब भी और जहां भी जरूरत पड़ती है, हस्तक्षेप भी करते हैं—ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भाजपा अपने व्यापक वैचारिक एजेंडे और नजरिये के मामले में कहीं चूके नहीं, उसका संगठनात्मक तंत्र मुस्तैद रहे और संघ और भाजपा के बीच प्रभावी समन्वय बना रहे. भाजपा में आरएसएस के प्रतिनिधि के तौर पर संगठन और सरकार के भीतर ‘सही लोगों को सही जगहों पर’ स्थापित करने और साथ ही उन्हें हटाने में भी उनकी अहम भूमिका रहती है.
संतोष को कहां से मिलती है ताकत
निश्चित तौर पर बी.एल. संतोष के पास जो पद है, उसमें अपार शक्तियां निहित हैं. लेकिन उनके पूर्ववर्तियों में से कोई भी यह पद संभालने के दौरान इतना हाई-प्रोफाइल नहीं रहा, यहां तक कि नरेंद्र मोदी भी नहीं.
उनके पूर्ववर्ती वस्तुतः अदृश्य रहकर काम करने वाले बैकरूम प्लेयर थे. आरएसएस के एक पुराने सदस्य ने इसी संदर्भ में मुझे एक घटना बताई. 2003 की बात है, जब संजय जोशी दिल्ली से रांची के लिए एसी 3-टियर ट्रेन में यात्रा कर रहे थे. उनका करीबी उनके लिए कई बार फोन लेकर आया, ‘सर, आडवाणीजी का फोन है…सर, प्रमोदजी (महाजन) का फोन है…’ थोड़ी देर बाद उनका एक सह-यात्री खीजकर बोला, ‘अरे, आप सही में इतने बड़े हैं तो थर्ड क्लास में क्यों चल रहे हैं?’ संजय जोशी ने मुस्कुराकर बात को टाल दिया.
अतीत में, संतोष के पूर्ववर्ती राज्य भाजपा इकाइयों के महासचिवों (संगठन) पर निर्भर रहते थे. यदि उनकी तरफ से हस्तक्षेप करने को कहा जाता, मसलन गुटबाजी के मामले में—तो वे संबंधित पक्षों को बुलाकर और इसका कोई सार्वजनिक प्रदर्शन किए बिना पूरी सजगता के साथ मामले का निपटारा करा देते. अगर जरूरत पड़ती तो पार्टी के बाहर के तमाम लोगों की जानकारी के बिना मंत्रियों से मिलते. वे सार्वजनिक तौर पर टिप्पणी से बचते थे. लेकिन संतोष एकदम अलग तरह के नेता हैं. वह पार्टी के आलोचकों और विरोधियों पर निशाना साधते हुए ट्विटर पर किसी भी चीज या यूं कहें कि हर चीज पर अपने विचार साझा करते हैं. यहां तक कि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बर्नी सैंडर्स को चुनाव में हस्तक्षेप की धमकी देने तक से गुरेज नहीं किया था. उन्होंने ट्वीट किया था, ‘हम हमेशा कितने भी तटस्थ क्यों न रहे हैं लेकिन चाहते हैं कि आप हमें राष्ट्रपति चुनाव में दखल देने के लिए मजबूर कर दें.’
तो, भाजपा में आरएसएस के पॉइंटमैन की भूमिका में इस बदलाव के पीछे वजह क्या है? सबसे पहले तो इसका संबंध संतोष के निजी व्यक्तित्व से है. एक केमिकल इंजीनियर 55 वर्षीय संतोष भी मोदी की तरह ही सोशल मीडिया सेवी हैं.
विरोधी उन्हें राजनीतिक तौर पर बेहद महत्वाकांक्षी करार देते हैं और इसकी वजह उनके धुर विरोधी बी.एस. येदियुरप्पा को बताते हैं. खैर, संतोष राज्य में युवा नेताओं को तैयार कर रहे हैं, जिनमें मैसूर के सांसद प्रताप सिम्हा और बेंगलुरु दक्षिण के सांसद तेजस्वी सूर्य शामिल हैं. यदि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है भी तो वह इसे काफी विवेक के साथ आगे बढ़ाते रहे हैं.
वैसे भी, यदि आरएसएस का एक प्रचारक भारत का प्रधानमंत्री बन सकता और दूसरा हरियाणा का सीएम तो संतोष को उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए दोषी क्यों ठहराया जाए? दूसरी बात, संतोष एक ऐसे समय में आरएसएस के पॉइंटमैन की भूमिका में हैं जब वैचारिक संरक्षक और राजनीतिक नायक के बीच की रेखा धुंधली पड़ चुकी है. आज स्थिति प्रधानमंत्री मोदी ही आरएसएस हैं और या फिर इसके उलट मान लें, वाली है. संतोष इस बात को अच्छी तरह जानते हैं. और इसीलिए लगता है कि शायद उन्होंने अपना रिपोर्टिंग मैनेजर बदल दिया है—आरएसएस के सरसंघचालक की जगह पीएम मोदी. यही उसकी ताकत का स्रोत भी है. और, अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत वह इसे खुलकर दिखाने में कोई परहेज भी नहीं करते हैं. अगर संघ या भाजपा में कोई इसे लेकर असहज है, तो बना रहे.
(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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