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Friday, 15 November, 2024
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कोरोना महामारी के बीच स्कूलों में शुरू हुई ऑनलाइन कक्षाएं कैसे बच्चों के जीवन को प्रभावित कर रही है

पहले लग रहा था कि कोरोना की यह त्रासदी कुछ समय के लिए है मगर अब लग रहा है कि बच्चों का एक लंबा अरसा घर की दीवारों के बीच बीतेगा.

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कोरोनावायरस एक त्रासदी है जिससे पूरा समाज मौजूदा वक्त में जूझ रहा है. समाज का शायद ही कोई वर्ग हो जो इसके प्रभाव से अभी अछूता होगा.

समाजीकरण की प्रक्रिया इस पूरी त्रासदी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है जिसके कारण समाज में कई तरह की उथल-पुथल हुई है. लेकिन इस त्रासदी से सबसे ज्यादा कोई प्रभावित है तो वो है वरिष्ठ नागरिक और बच्चे.

बच्चे जिनको प्रारंभिक अवस्था में एक उन्मुक्त और गतिशील वातावरण की आवश्यकता होती है वह घर की चाहरदीवारों में कैद हो गये हैं. पहले लग रहा था कि यह त्रासदी कुछ समय के लिए है मगर अब लग रहा है कि बच्चों का एक लंबा अरसा घर की दीवारों के बीच बीतेगा.

जो बचपन ज़माने की तमाम दुश्वारियों से बेखौफ पार्कों और आस-पास घूमता था उस पर कोविड-19 का पहरा लग गया है. जब कोविड का प्रकोप शुरू ही हुआ था तो उसी समय स्कूल बंद हो गए मगर अप्रैल आते-आते स्कूलों से नए मेल और फोन आने शुरू हो गए कि अब पढाई ऑनलाइन होगी. कुछ समय के लिए तो यह प्रहसन फिर भी बच्चों ने झेल लिया मगर जुलाई के आते ही फिर से बच्चों के स्कूलों से कक्षाएं शुरू होने के मेल आने लगे. इसके लिए बाकायदा टाइम-टेबल भी बन कर आ गए हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्कूलों को शिक्षकों को वेतन देना है और स्कूलों को फीस लेनी है जिसके कारण उनको लगता है कि कक्षाएं चलाना आवश्यक है क्योंकि बिना कक्षाओं के लोग फीस नहीं देंगे. मगर इन सबके बीच कैसे बच्चों का बचपन पिस रहा है इस पर शायद किसी का ध्यान नहीं है. खेल के मैदान और साथियों से महरूम ये बच्चे कैसे 9 से 2 बजे तक कक्षाएं लेंगे और कैसे अपनी एकाग्रता बनायेंगे, ये एक बड़ा प्रश्न है.

माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों के साथ ये प्रयोग कुछ समय के लिए करके देखा जा सकता था मगर नर्सरी और प्राथमिक के बच्चों पर किया जा रहा यह प्रयोग न केवल अव्यावहारिक है अपितु अमानवीय भी है.


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घरों में कैद बच्चे, वैसे भी कई प्रकार के मनोवैज्ञानिक दबावों से जूझ रहे हैं. उस पर इन बच्चों को स्कूल की पोशाक पहनाकर स्क्रीन के सामने 5 घंटे बैठाना एक अमानवीय कृत्य है. जिस पर बाल अधिकार आयोग के साथ-साथ शिक्षा मंत्रालय की जिम्मेवारी भी बनती है कि वह इसमें दखल दे और उचित निर्णय ले. परंतु अफसोस की बात यह है कि दोनों मंत्रालय इस विषय पर आंख मूंदे हुए हैं.

प्राथमिक और नर्सरी के बच्चे जिनको अपने कई कार्य करने में अन्य लोगों की आवश्यकता होती है उन्हें स्क्रीन के सामने बैठाकर यह शिक्षा व्यवस्था अपने कर्तव्य की इतिश्री मान रहा है. बच्चे जो नई कक्षाओं में गए हैं और जो पहली बार स्कूल का नाम सुन रहे हैं वो सब ऑनलाइन के माध्यम से स्कूल और कक्षाओं को देख रहे हैं जो कि वास्तव में परेशान करने वाली घटना है.

राज्यों के शिक्षा मंत्रालय और केंद्र का मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय जो उच्च शिक्षा पर लगातार प्रतिक्रिया दे रहा है, ऐसा लगता है कि ये प्राथमिक कक्षा के बच्चों और उनके सरोकारों को लेकर उतने गंभीर नहीं हैं जितने की अन्य विषयों पर. इसके अनेक कारण हो सकते हैं. जैसे कि विश्वविद्यालय और उच्च माध्यमिक स्तर के छात्र बहुत से सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म के जरिए सरकार की नीतियों पर प्रतिक्रिया तो करते रहते हैं मगर प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थी या तो अपने माता-पिता के माध्यम से अपनी बात कह सकते हैं या फिर अध्यापक के माध्यम से. अध्यापकों के जीवन-यापन से जुड़ा विषय होने के कारण इसमें उनकी प्रतिक्रिया सामने नहीं आ रही है.

आज जब दुनिया के तमाम देश अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है वहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था अध्यापकों को काम में लगाने और लाभ को लेकर चिंतित है. हमारी शिक्षा व्यवस्था में प्राथमिक शिक्षा सबसे उपेक्षित क्षेत्र है क्योंकि इस क्षेत्र में किये गए निवेश का परिणाम आने में समय लगता है मगर दुनिया के तमाम देश प्राथमिक शिक्षा में दीर्घकालिक निवेश पर ध्यान देते हैं क्योंकि यह ऐसा क्षेत्र है जो आने वाले कल की नींव तैयार करता है. परंतु ऐसा हमारे देश में होता नहीं दिख रहा है.


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अगर स्कूलों की समस्या केवल यह है कि वह शैक्षणिक कर्मचारियों को कैसे व्यस्त रखें तो वह उन्हें इस बीच कुछ और शैक्षणिक जिम्मेदारी भी दे सकते हैं. जैसे जब सत्र प्रारंभ हो, उसके लिए वो कुछ सामग्री तैयार कर सकते हैं और इस समय का प्रयोग अपनी ज्ञान सामग्री को संवर्धित करने में कर सकते हैं. इसके लिए यह आवश्यक नहीं कि बच्चों पर आवश्यक दबाव बनाया जाए.

सरकार को भी एक समग्र नीति स्कूलों के लिए बनानी चाहिए जिससे कि वे स्कूल जो आर्थिक दबावों को वहन नहीं कर पा रहे हैं उन्हें कुछ सहायता मिले. ऐसे बहुत से विद्यालय हैं जो काफी समय तक कोविड-19 से जुड़ी आर्थिक परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाएंगे. उनके लिए मानव राज्यों, शिक्षा मंत्रालय और मानव संसाधन मंत्रालय को कुछ योजना बनानी चाहिए.

यह एक ऐसा समय है जिसका उपयोग शिक्षा के संपूर्ण ढांचे में सुधार और नवनिर्माण के लिए किया जा सकता है मगर अफसोस की बात यह कि शिक्षा से जुड़े ज्यादातर घटक इस समय का उपयोग शार्टकट खोजने के लिए कर रहे हैं जो कि वास्तव में भविष्य की शिक्षा के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है. सरकार को चाहिए कि वह बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीरता से विचार करें और ऑनलाइन शिक्षा के इस प्रहसन को कम या बंद करने का प्रयास करें.

(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस के निदेशक हैं. उन्होंने एमएचआरडी के साथ मिलकर नई शिक्षा नीति पर काम किया है. व्यक्त विचार निजी हैं)

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