हाल में उत्तर प्रदेश के इलाहबाद, फैज़ाबाद और मुग़लसराय के नाम बदलने पर बहस इस बात के आगे जानी चाहिए जो कि भावात्मक वक्तव्यों में आ रही है- पुरानी यादें, हिंदू राष्ट्र का भय, हिंदू स्वाभिमान और राष्ट्रीय सम्मान. ये एक खास राजनीतिक राह की ओर इशारा करता है.
यहां दो ऐसे महत्वपूर्ण कारण हैं जिसके चलते अभी चल रही बहस के बिंदु को बदलना चाहिए और जो राजनीतिक बारीकियां इसके पीछे हैं उस पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए.
पहला, 1947 के बाद शहरों, जगहों और चीज़ों के नाम बदलने का अपना इतिहास रहा है और इस नाम बदलने की मौजूदा बहस में उस पर ध्यान देने की ज़रूरत है, तभी ये बहस कारगर होगी. दूसरा, शहरों और चीज़ों का नाम बदलना बस विचारधारा का मसला नहीं है उसके पीछे एक गहरा राजनीतिक आवेग भी होता है.
इंडिया जो कि भारत है
नाम बदलने का सिलसिला इस देश का नाम बदलने से शुरू हुआ. ब्रिटिश इंडिया को लोकप्रिय भाषा में हिंदुस्तान कहा जाता था. लेकिन संविधानसभा के सदस्य इस नाम से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे.
15 नवंबर 1948 में शिब्बन लाल सक्सेना ने असेंबली में एक संशोधन प्रस्ताव पेश किया कि भविष्य में इंडिया को भारत कहा जाए. उसको मौलाना हसरत मोहानी का समर्थन मिला.
इस पर गणराज्य के नाम को बदलने के अच्छे और बुरे पहलुओं को लेकर गहन चिंतन हुआ.
इस बात पर ज़ोर दिया गया कि भारत देश का मूल नाम था. इंडिया और हिंदुस्तान से इतर ये एक भूभाग को दर्शाने वाला स्थानीय नाम था.
इसके विरुद्ध संविधान सभा के कुछ सदस्य जिनमें आंबेडकर शामिल थे, का तर्क था कि इंडिया नाम दुनियाभर में जाना जाता है और वह किसी एक धर्म से जुड़ा भी नहीं है. इसलिए इंडिया नाम ही रहना चाहिए.
अंत में दोनों इंडिया और भारत को चुना गया. इसलिए संविधान की धारा 1 कहती है ‘इंडिया जो कि भारत है, राज्यों का संघ है.’
ये मध्य मार्ग था जो कि हमारी जड़ों और दुनिया को दिखाने के बीच की भूमि, एक पुरानी संस्कृति और नए राष्ट्र की परिकल्पना के बीच था.
नाम बदलने के नियम
ये गंभीर और तार्किक बहस एक अनलिखित नीति का रूप ले चुकी है जिसके तहत नाम रखने- बदलने की स्वतंत्र भारत में कवायद की जाती है खासकर 50 के दशक के बाद.
पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू के पत्र से ये पता चलता है कि वे राष्ट्रीय हीरोज़ के नाम पर शहरों, सड़कों के नाम के खिलाफ़ हैं. महात्मा गांधी की मूर्तियों पर एक सार्वजनिक पत्र में उन्होंने लिखा था-
“पूरे भारत में ये प्रवृति है कि सड़कों, चौराहों, सार्वजनिक इमारतों का नाम गांधीजी के नाम पर रख दिया जाए. ये समृति चिन्हों का सबसे सस्ता स्वरूप है… बिलकुल वैसे जैसे उनके नाम का दोहन हो रहा है… इससे भी अवांछनीय है पुरानी, ऐतिहासिक, प्रसिद्ध जगहों का नाम बदलना जिनकी अपनी एक पहचान है… ऐसा करने से असमंजस बढ़ेगा और नीरस एकरूपता आएगी. हम में से ज्यादातर गांधी मार्ग, गांधी नगर या गांधी ग्राम में रहते हैं.” (आधिकारिक वक्तव्य, द हिंदू, 26 फरवरी 1948)
ऐतिहासिक इमारतों के पुराने नामों का उनके राष्ट्रीय पुनर्निर्माण परियोजना तालमेल लाने के लिए नेहरू ने औपनिवेशिक मेमोरियल और मूर्तियों के लिए एक नीति बनाई. जिसमें उन्होंने शहरों, वस्तुओं के नाम रखने और बदलने की अपनी राय स्पष्ट की.
गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत को 13 मई 1957 में लिखे एक पत्र में नेहरू ने कहा:
‘…मूर्तियां इन विभिन्न गुटों में लगाई जा सकती हैं:
1. जिनका कोई ऐतिहासिक महत्व हो.
2. जिनका कलात्मक महत्व हो.
3. जिनका न ऐतिहासिक न कलात्मक महत्व हो और
4. जो भारत की भावनाओं को आहत करें.
पिछले कुछ सालों में हमने दरअसल कई पुरानी मूर्तियों को हटाया है… पर हम ये बिना किसी शोरशराबे के करना चाहते थे और बिना कोई जानबूझकर दुर्भावना पैदा किये..मेरा सुझाव है कि हम इस खरी मूर्तियों के समूह पर ध्यान दें… खासकर इस मामले को 1857 के विद्रोह के नज़रिए से देखा जाए.’ (एसडब्ल्यूजेएन . वोल्यूम 38)
इन दो जवाबों से हमें नेहरू की नाम बदलने की नीति पर अनलिखित मापदंड से सामना होता है.
पहला नाम बदलने की प्रक्रिया कभी व्यक्ति विशेष पर न हो, बल्कि इसे एक प्रक्रिया, घटना, जीवन की दिनचर्या को प्रतिबिंबित करना चाहिए. दूसरा जो ऐतिहासिक रूप से विकसित नाम और वस्तुएं हैं उनपर गहन विचार होना चाहिए और फिर ही किसी निष्कर्ष पर निकलना चाहिए. नेहरू ने इन मापदंड़ों के पालन की पूरी कोशिश की. शायद यही कारण था कि वे अपने सपनों के शहर को चंडीगढ़ नाम दे सकें- जिस नाम में गहरा धार्मिक पुट है.
नाम बदलने की राजनीति
नेहरू के बाद के राजनीतिक वर्ग ने नेहरू की मृत्यु के तुरंत बाद ही इन नियमों का उल्लंधन करना शुरू कर दिया. देश में कई गांधीनगर और नेहरूनगर बन गए और नाम बदलना देश के आधिकारिक सामूहिक स्मृति में जगह बनाने का ज़रिया हो गया.
इस राजनीति के तीन पक्षों पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
पहला राजनीतिक दलों द्वारा नाम रखने बदलने को अपनी विश्ष्ट राजनीतिक पहचान के रूप में इस्तेमाल करना.
ये महज़ एक सांकेतिक कवायद नहीं है. नाम रखना और बदलना समुदायों को मानकीकृत पहचान देने के लिए किया जाता है और ये वोटरों की मूल पहचान का ज़रिया है. मायावती दलित नायकों के नाम पर ज़िलों के नाम रखती हैं जो कि इससे बिलकुल अलग नहीं है जो आदित्यनाथ फैज़ाबाद और अय़ोध्या में करते हैं.
दूसरे, बहुमत का इल्म भी शहरों और चीज़ों के नाम बदलने की कवायद से जुड़ा है. ये निर्णय बिना संसद में विचार विमर्ष किये या सार्वजनिक बहस के संभ्रांत कार्यकारी निर्णय होते हैं. आदित्यानाथ का तर्क है, “हमने वह किया जो हमें लगा कि सही है. हमने मुग़लसराय का नाम पंडित दीन दयाल उपाध्याय नगर, इलाहाबाद को प्रयागराज और फैज़ाबाद को अयोध्या कर दिया है. जहां भी ज़रूरत होगी, सरकार ज़रूरी कदम उठाएगी.”
इतिहास की राजनीतिक कल्पना
इतिहास को इस नाम रखने बदलने वाले धंधे के केंद्र में रखना इस राजनीति का तीसरा हिस्सा है. संभ्रांत राजनीतिक वर्ग जो उनके लिए फायदेमंद हो और योग्य हो वैसे अतीत की परिकल्पना कर देते हैं जिसका असली ऐतिहासिक घटनाओं और जगहों से कोई लेना देना न हो. भारतीय राजनीति का अब ये तय तरीका हो गया है, पर भाजपा की अतीत की राजनीति एकदम प्रभावशाली और अपूर्व है.
इस मामले में अतीत कोई ऐतिहासिक घटना या लोग नहीं हैं, पर इसका कुछ ऐसे राजनीतिक प्रस्ताव के रूप में आह्वान किया जाता है जिसे आस्था के दावे के रूप में पेश किया जाता है. बाबरी मस्जिद राम की जन्मभूमि बन जाती है और इलाहबाद प्रयागराज बन जाता है- ये बस इसलिए कि हिंदुओं की ऐसी आस्था है.
ये ‘आस्था पर आधारित अतीत’ ने भाजपा को ‘तथ्यों पर आधारित धर्मनिपेक्ष इतिहास’ को अयोध्या मामले में हराने में सफल बनाया है.
वैसे भी ये सोचना बेमानी है कि आदित्यनाथ कभी इलाहाबाद के घर्मनिरपेक्ष इतिहास के बारे में उनका नाम बदलने के बारे में पढ़ेंगे. उनके जगहों के अपने मायने हैं जो भाजपा के राजनीतिक मिथकों से उपजे हैं.
(हिलाल अहमद विकासशील समाज अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
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