हिंदुत्व आधुनिक ज़माने की अवधारणा है. पिछली यानी बीसवीं सदी में, जब पहली दफा विनायक दामोदर सावरकर (1883 -1966 ) ने 1923 में इसी नाम से (हिंदुत्व: हू इज अ हिंदू, 1923) एक किताब लिखी, तब ये शब्द पहली बार चर्चा में आया. इसी किताब में सावरकर ने अपने ‘राष्ट्रवादी’ विचारों का प्रतिपादन किया. इसके पूर्व उन्नीसवीं सदी में राजा राममोहन राय ने अपने लेख में हिन्दुइज़्म (हिन्दुवाद) शब्द का प्रयोग किया था. लेकिन वह एक गैर-राजनीतिक विचार के लिए इस्तेमाल हुआ शब्द था.
सावरकर महाराष्ट्र से थे, जहां बाल गंगाधर तिलक (1856 -1920 ) ने जुझारू राष्ट्रवाद की एक परंपरा विकसित की थी. तिलक तबियत से आक्रामक थे और जैसा कि उनके एक जीवनी लेखक ने लिखा है, युवाकाल में वह ‘मिस्टर ब्लंट’ नाम से जाने जाते थे. लेकिन बौद्धिक स्तर पर वे एक योग्य विद्वान भी थे. उनके संस्कृत ज्ञान और वक्तृत्व-कला का लोहा उनके विरोधी भी मानते थे.
यदि किसी परंपरा से जोड़ना आवश्यक ही हो, तो सावरकर को तिलक की परंपरा से जोड़ा जा सकता है. लेकिन सावरकर में कुछ ऐसा था कि किसी परंपरा विशेष से उन्हें जोड़ना मुश्किल प्रतीत होता है. सावरकर में वैचारिक अंतर्विरोध कम थे. उनकी एक सपाट विचारधारा थी, जो सैन्यीकरण को महत्व देती थी. इसका परिचय 1857 पर उनकी लिखी किताब से भी मिल जाता है. वैचारिक स्तर पर वह नास्तिक थे और जातिवाद के विरुद्ध थे, लेकिन समतामूलक समाज के लिए उन्होंने अपने पूरे जीवन में एक ‘पतित पावन मंदिर’ बनाने के सिवा और कुछ किया नहीं. यह पतित पावन शब्द कितना अपमानजनक है, इस पर उनके अनुयायियों ने कम ही विचार किया है.
महाराष्ट्र का नवजागरण और तिलक तथा फुले का द्वंद्व
महाराष्ट्र में भारतीय नवजागरण का एक ख़ास अंदाज़ था. एक तरफ महादेव गोविन्द रानाडे और जोतिबा (जातिराव या ज्योतिबा) फुले जैसे लोग इस से जुड़े थे, जिनकी वैचारिक जड़ें मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में गहरे धंसी थीं. ज्योतिबा फुले ने तो देसी चेतना और लोकजीवन में प्रचलित पौराणिकता का उपयोग करते हुए, तब की अछूत-दलित और पिछड़ी-मेहनतक़श जातियों में लोकतांत्रिक और ज्ञान चेतना का यथासंभव प्रसार किया था. इसके उलट तिलक जैसे लोगों ने गणेश और शिवाजी जैसे प्रतीकों के साथ द्विजोन्मुख राष्ट्रीयता के विकास पर जोर दिया. तिलक ने अपने राष्ट्रवादी चिंतन में सामाजिक सुधारों पर दकियानूसी रुख अख्तियार किया हुआ था. ब्रिटिश राज विरोधी आंदोलन पर वह जोर देते रहे.
इसी के कारण 1907 में कांग्रेस दो भागों में विभक्त हो गयी. तिलक को गरम-दली और उनके विरोधियों को नरम-दली कहा जाता था. नरम-दली सामाजिक मामलों में अधिक प्रगतिशील थे. उनका कहना था, सामाजिक सुधारों के बिना कोई राजनैतिक परिवर्तन कारगर नहीं हो सकता. फुले पिछड़े तबकों के लोकतंत्रीकरण और आधुनिकीकरण के प्रति अधिक उत्सुक थे. महादेव गोविंद रानाडे की समाज सुधार की परंपरा को गोपालकृष्ण गोखले और ज्योतिबा फुले की क्रांतिकारी परंपरा को भीमराव आंबेडकर ने आगे बढ़ाया.
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इसी क्रम में तिलक की परंपरा से सावरकर को जोड़ने की बात मैंने की है. हालांकि, इसकी जटिलताएं भी विचारणीय हैं. तिलक का हिन्दूवाद (गणेशोत्सव आदि) लक्ष्य नहीं, साधन थे. उनका लक्ष्य ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकना था. लेकिन सावरकर का लक्ष्य ही हिंदुत्व है. हिंदुत्व ही उनके राष्ट्रवाद की आत्मा है, जिसे उन्होंने अपनी किताब ‘हिंदुत्व’ में प्रतिपादित किया है. राष्ट्रवाद के अन्य प्रारूप उन्हें मान्य नहीं हैं. उनके इसी राष्ट्रवाद को साकार करने के लिए उनके अनुयायियों ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. सावरकर के हिन्दू राष्ट्र का मूलमंत्र है -‘हिन्दुओं का सैन्यीकरण और राजनीति का हिन्दूकरण’. यही उद्देश्य आरएसएस का है. लेकिन कुल मिला कर यह हिन्दूवाद का नागपुर स्कूल है.
हिन्दूवाद का बंगाल मॉडल
हिन्दूवाद का दूसरा स्कूल बंगाल में था, जो बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (1838 -1894 ) और कुछ दूसरे लोगों की अगुआई में उठा. बंगाल में भी नवजागरण का जोर था, जिसकी सांस्कृतिक वैचारिक जड़ें भक्ति आंदोलन में नहीं, यूरोपीय रेनेसां (पुनर्जागरण) आंदोलन में थीं. यही कारण रहा कि बांग्ला नवजागरण कुछ चुने हुए परिवारों तक सिमट कर रह गया. इसका सामाजिक आधार एक छोटा-सा भद्रलोक था. इसके विपरीत बंकिम का हिंदुत्व एक खास सांस्कृतिक आवेग के साथ वन्दे मातरम जैसे नारों के साथ देश भर में छा गया.
1907 में बारीन्द्रनाथ घोष और भूपेन्द्रनाथ दत्त जैसे कुछ उत्साही नौजवानों ने अनुशीलन समिति बनाई. जिसमें राष्ट्रीय मुक्ति का आह्वान था. इस समिति ने युगांतर अख़बार निकला और शाखाएं खोलीं, जिन्हें अखाड़ा कहा जाता था. हिंसा का जवाब हिंसा समिति की मुख्य नीति थी. इसका उद्देश्य ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ना था, न कि हिन्दू राष्ट्र की स्थापना. खुदीराम बोस जैसे किशोर इसी से जुड़े थे.
बाद में श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे लोग इससे जुड़े, जिनका अपना व्यक्तित्व था. मुखर्जी ने हिन्दूवाद की भरसक सेवा की. बांग्ला हिंदुत्व का मुख्य केंद्र कोलकाता और ढाका था. यद्यपि अनुशीलन समिति ने हिंसा का सहारा लिया, किन्तु वह हिन्दुओं के सैन्यीकरण के पक्ष में नहीं थी. उनका हिंदुत्व यदि कुछ था भी तो एक ऐसे निर्गुण रूप में, जो हिन्दुओं की मुक्ति जरूर चाहता था, उनका वर्चस्व नहीं. उनका राष्ट्र का विचार खंडित और एकपक्षीय नहीं था.
हिंदी पट्टी का हिंदूवाद
हिंदूवाद का तीसरा स्कूल हिंदी क्षेत्र में था, जिसका केंद्र बनारस और लाहौर था. लाहौर का हिंदुत्व स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824 -1883 ) के आर्यसमाज से प्रभावित था और जैसा कि जाहिर है आर्यसमाज के वेदों की ओर लौटो के नारे से अनुप्राणित था. छूआछूत ख़त्म करने और स्त्रियों को नागरिक आज़ादी देने की बातें उसके कार्यक्रम में थी. उसका प्रभाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था. बनारस में एक दूसरी लहर थी. यहां का हिंदुत्व एक और ही रंग और मिजाज लिए था. महामना नाम से सम्मानित मदनमोहन मालवीय (1861-1946) इसके प्रस्तावक और नेता थे. मालवीय का हिंदुत्व राष्ट्रीय आंदोलन का सम्पूरक था.
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सावरकर हिन्दुओं के सैन्यीकरण पर जोर देते थे, लेकिन मालवीय का हिंदुत्व हिन्दुओं को शिक्षित करने पर जोर देते थे. इसी को केंद्र में रख कर उन्होंने बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की और उसी में स्वयं को समर्पित कर दिया. उनके मुताबिक, ज्ञान के अभाव में हिन्दू जाति आधुनिक विश्व में कोई स्थान नहीं बना सकती. इसीलिए उन्होंने सारा ध्यान ज्ञान के प्रसार और उसकी गुणवत्ता विकसित करने पर दिया. मालवीय भी हिन्दुओं में छुआछूत और जातिभेद के विरुद्ध थे, लेकिन बहुत सधे क़दमों से ही इस ओर अग्रसर होना चाहते थे. उन्होंने पृथक हिन्दू राष्ट्र की कभी बात नहीं की. हां, राष्ट्रीय राजनीति में हिन्दू-हितों के पक्षधर अवश्य थे. लेकिन उनका हिन्दू, अपने राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार था. वह एक गतिशील हिंदुत्व की बात करते थे, जो किसी स्तर पर संकीर्ण नहीं था.
हिन्दू राजनीति करने वालों में वह एकमात्र थे, जो कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने. 1916 में उन्होंने ही गांधीजी को बनारस बुलाया और विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में बोलने का अवसर दिया. गांधी का भारत में यह पहला सार्वजनिक भाषण था. मालवीय ने ही जगजीवन राम को अपने विश्वविद्यालय में बुलाया और हॉस्टल में विवाद होने पर अपने बेटे के साथ उनकी आवासीय व्यवस्था की. उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन से हिन्दू हितों को नत्थी करने की पुरजोर कोशिश की.
बांग्ला और हिंदी इलाके के हिंदूवादियों, जिसे हम सुविधा के लिए कोलकाता और बनारस स्कूल भी कह सकते हैं, में एक समानता है. इन दोनों स्कूलों ने हिन्दू हितों की बात जरूर की, लेकिन हिन्दू वर्चस्व की कभी बात नहीं की. इन लोगों ने कभी हिन्दू राष्ट्रवाद की भी बात नहीं की. मदनमोहन मालवीय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके थे. दोनों मूलतः शिक्षाविद और विद्वान थे. 1946 में मदनमोहन मालवीय की मृत्यु के बाद अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी बनाये गए.
आजादी, विभाजन, दंगे और भारतीय जनसंघ का गठन
यही वह अवसर था जब जिन्ना की द्विराष्ट्रवाद की राजनीति परवान चढ़ी और 15 अगस्त 1947 के दिन हमारा देश एक ही साथ टूटा और आज़ाद हुआ. बंगाल, पंजाब, यूपी और बिहार में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए. लेकिन हिन्दू महासभा ने कोई गैर-जिम्मेदार काम नहीं किया. लेकिन इस भीषण घड़ी में आरएसएस ने अपने को इस पूरे हिंदी इलाके में फैला लिया. गांधी की हत्या के बाद आरएसएस जब प्रतिबंधित हुआ, तब एकबारगी नागपुर स्कूल का हिंदुत्व देश की नज़रों में आया. उसकी सार्वजनिक भर्त्सना हुई. सरकारी स्तर पर उस पर पाबंदी लगाई गयी. आरएसएस ने अपने को कुछ समय के लिए पीछे कर लिया.
यही समय था, जब कांग्रेस के भीतर वाम और दक्षिण का संघर्ष तीव्रतर होता चला गया. 1948 में कांग्रेस के भीतर सक्रिय समाजवादी, जो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के बैनर तले काम कर रहे थे, अलग हो गए. इन लोगों ने सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया. नेहरू कांग्रेस में अधिक कमजोर हो गए. लेकिन वह सत्ता में थे, इसलिए उनका प्रभाव बना रहा. दिसम्बर 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु हो गयी.
नागपुर मॉडल का हिंदुत्व: जनसंघ से भाजपा तक
इसके बाद कांग्रेस के भीतर के हिंदूवादियों ने हिन्दू महासभा के कुछ लोगों के साथ मिल कर 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ नाम से एक राजनैतिक दल बना लिया. इसमें संघ के लोग अग्रणी भूमिका में नहीं थे. अग्रणी भूमिका तो कांग्रेसी दक्षिणपंथियों की थी, जिसमे कन्हैया माणिकलाल मुंशी, रघुवीर नारायण, द्वारिका प्रसाद मिश्र आदि प्रमुख थे. द्वारिका प्रसाद मिश्र इस नयी पार्टी के अध्यक्ष होना चाहते थे, लेकिन सहमति श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पर बनी, इसलिए मिश्र बिदक गए और कांग्रेस में ही रह गए (मिश्र ही बाद में इंदिरा गांधी के चाणक्य बने).
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1953 में जनसंघ अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मृत्यु जम्मू-कश्मीर में हो गयी. इस समय तक संघ ने भी स्वयं को संभाल लिया था. कांग्रेस और समाजवादियों के भीतर अपने ही किस्म का कोहराम खड़ा हो गया था. इन सब स्थितियों का नागपुर के हिन्दूवादी स्कूल अर्थात आरएसएस ने फायदा उठाया. आहिस्ता-आहिस्ता उसने जनसंघ को अपनी मुट्ठी में लिया और अंततः उस पर पूरी तरह काबिज हो गया. हिंदूवाद के बांग्ला और हिंदी स्कूल पीछे धकेल दिए गए. उनकी प्रवृत्तियां और विचार ख़त्म कर दिए गए.
नागपुर स्कूल अब हिंदुत्व की एकमात्र कार्यशाला थी और सावरकर एकमात्र हिन्दू विचारक. जनसंघ उनकी एकमात्र राजनीतिक पार्टी थी. हालांकि, अब भी उसका नेतृत्व हिंदी इलाके के ही लोग जैसे दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी कर रहे थे. पाक अधिकृत कश्मीर के बाल्टिस्तान में जन्मे बलराज मधोक भी अग्रणी भूमिका में रहे, जिनकी नागपुर स्कूल से अंततः नहीं पटी. दीनदयाल उपाध्याय पर नागपुर स्कूल से अधिक मदनमोहन मालवीय का प्रभाव परिलक्षित होता है और अटल बिहारी तो अपनी आज़ाद तबियत के लिए मशहूर ही थे. 1977 में जनसंघ ने स्वयं का जनता पार्टी में विलय कर लिया और 6 अप्रैल 1980 को वह भाजपा के रूप में उभरी.
गांधीवादी समाजवाद का बैनर लगाकर अटल बिहारी ने इसे मध्यमार्गी दल बनाने की कोशिश की. लेकिन संघ ने कुछ ही समय बाद रामजन्मभूमि का आंदोलन आरम्भ कर दिया और भाजपा उससे जुड़ गयी. गांधीवादी समाजवाद की बात कहीं खो गयी. 1996 का चुनाव अटल बिहारी के नेतृत्व में ही लड़ा गया और तेरह दिन के लिए ही सही वह प्रधानमंत्री भी बने.
अब स्थिति ये है कि संघ ने समाजवादियों, कम्युनिस्टों और यहां तक की कांग्रेस को भी पीछे धकेल दिया है. संघ हिंदुत्व की एक खास विचारधारा है, जो मदनमोहन मालवीय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के हिन्दू-चिंतन से पृथक एक ऐसा चिंतन है, जिसकी वैचारिक जड़ें यूरोपीय फासीवादी विचारधारा में है. यह नीत्शे की विचारधारा के करीब है, जो मूलतः एक नास्तिक दर्शन है. इसी विचारधारा ने ईश्वर की मृत्यु की घोषणा की थी.
नीत्शे ईश्वर को नापसंद करता था, क्राइस्ट को भी. उस की एक किताब ही है ‘एंटी क्राइस्ट’. उसके हिसाब से बुद्ध और क्राइस्ट मनुष्य को दयालु और अंततः कमजोर बना देते हैं. वह सुपर मैन की वकालत करता है. सोशल-डार्विनिस्म की बात करता है, जिसके अनुसार केवल अच्छी नस्लों और बेहतर लोगों को इस धरती पर जीने और विकसित होने का अधिकार होता है. कमजोर लोग अधिक से अधिक इन योग्यजनों की सेवा कर अपना जीवन धन्य कर सकते हैं. यही तो हिन्दू धर्मशास्त्र मनुस्मृति का भी विधान है. यही ब्राह्मणवादी विचारधारा है. हिंदुत्व का नागपुर स्कूल इसी का पक्षधर और प्रस्तावक है.
(लेखक साहित्यकार और विचारक हैं. बिहार विधानपरिषद के सदस्य भी रहे हैं.)
(यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.)