अफ़ग़ानिस्तान वह देश है जो कई साम्राज्यों की शमशान भूमि बन चुका है . चाहे वह सिकंदर की सेना रही हो, अंग्रेजी हुकूमत, या सोवियत संघ – कई ताकतें अफ़ग़ानिस्तान में आई और थक-हार कर वापस लौट गईं. अब है बारी अमरीका के हार चखने की.
बीस साल पहले, 9 / 11 के बाद तोरा-बोरा की पहाड़ियों में शरण ले रहे ओसामा बिन लादेन के खात्मे के लिए अमरीका ने जंग शुरू की. उसके दो दशक बाद तक, 4 राष्ट्रपतियों के अंतर्गत, अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका ने अपने पैर जमाये रखे. कुछ प्रगति भी बेशक हुई, लेकिन कई अरबों डॉलर और कई हज़ार जान गंवाने के बाद भी शांति और स्थिरता मृग मरीचिका बन कर रह गए. तो हताश हो कर अब अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से जैसे-तैसे निकलने में लगा है. दूसरी ओर, एक और विश्वशक्ति को मात देने के ग़ुरूर में तालिबान सेनाएं और भी हिंसात्मक हो गयी हैं.
अफ़ग़ानिस्तान के काबुल और बाकी बड़े शहरों में गत 20 वर्षो के अमरीकी संरक्षण के चलते रोजमर्रा के जीवन में काफी बेहतरी आई थी, जबकि तालिबान ने पिछली बार जब अफ़ग़ानिस्तान में 5 वर्ष राज किया (1996 से 2001), तब उन्होंने अपनी मध्यकालीन मानसिकता का बेधड़क प्रदर्शन किया. अब तालिबान शाषित क्षेत्रों में फिर से उसी बर्बरता के प्रमाण सामने आ रहे हैं.
यह कहना अनुचित नहीं होगा की दुनिया के सबसे ताकतवर देश, जिसके पास अनंत संसाधन उपलब्ध हैं, वह तालिबान को मात दिए बिना ही लौट रहा है. बल्कि सालों से तालिबान को आतंकवादी संघठन बताने वाले अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को दरकिनार करते हुए तालिबान के साथ संधि वार्ता शुरू कर उसका वर्चस्व बढ़ाने का काम किया.
पिछले 2 माह में तालिबान ने दावा किया है कि तकरीबन 85 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान उसके कब्ज़े में है . यह आंकड़ा अफ़ग़ान सरकार ने सिरे से ख़ारिज किया है. भले ही शहरी क्षेत्रों में अफ़ग़ान सेना का वर्चस्व क़ायम है पर दूर दराज़ के ग्रामीण इलाके और तजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, ईरान और पाकिस्तान से लगे क्षेत्रों में तालिबान के कब्ज़े के प्रमाण आये दिन सामने आ रहे है. इन सब के बीच अभी भी अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के प्रतिनिधियों की दोहा में वार्तालाप जारी है. किस पक्ष का पलड़ा भारी होगा, इस सवाल पर सभी पड़ोसी देश ताक लगाए बैठे है. हमारे मत में तीन परिदृश्य संभव हैं.
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परिदृश्य 1: तालिबान और अफगानिस्तान सरकार की साझा सरकार का स्थापन
इस परिदृश्य की अधिकांश देश उम्मीद कर रहे हैं लेकिन आज के हालातों में यह राह मुश्किल लग रही है. काबुल में पिछले बारह महीनों के दौरान तालिबान की बमबारी और उत्तरी प्रांतों में सुरक्षा बलों पर लगातार हमलों से पता चलता है कि तालिबान किसी सुलह के मूड में नहीं है . अमेरिका की वापसी और पाकिस्तान के समर्थन से उत्साहित तालिबान के हिंसा जारी रखने की संभावना ज़्यादा लगती है.
परिदृश्य 2: किसी एक पक्ष की साफ़ जीत
इस परिस्थिति की संभावना भी कम ही लगती है. अफ़ग़ान सेनाएं तालिबान से हर कोने की रक्षा करने की ताकत भले ही न रखते हो पर उनके पास प्रमुख शहरी केंद्रों की रक्षा करने की भरपूर क्षमता है. उनके पास वायु सेना का भी समर्थन है जबकि तालिबान के पास कोई एयरफोर्स नहीं है.साथ ही तालिबान एक राष्ट्र-स्तरीय आंदोलन नहीं है – गैर-पश्तून इलाकों में उसे प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा.
परिदृश्य 3: गृहयुद्ध की वापसी
अगर तालिबान काबुल पर कब्जा कर भी लेता है तो उसे क्षेत्रीय सरदारों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा. तालिबान के विरुद्ध ताकतें एक बार फिर जुट रही है और कई लड़ाकों को तालिबान के खिलाफ सशस्त्र किया जा रहा है. साथ ही अफ़ग़ान सरकार ने कईं अन्य गुटो को असला-हथियार मुहैया कराना शुरू कर दिया है, ताकि वक़्त आने पर अफ़ग़ान फ़ौज के साथ यह सेनाएं तालिबान को रोक सकें. तीनों परिदृश्यों में से इसकी संभावना सबसे ज़्यादा है.
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भारत पर इसका क्या असर पड़ेगा?
तीनों परिदृश्यों से एक बात तो स्पष्ट होती है – अफ़ग़ानिस्तान में शांति जल्द बहाल नहीं होने वाली है. तालिबान की वापसी भारत के लिए ख़ास मुश्किलें पैदा कर सकती है. तालिबान की जीत से पाकिस्तानी सैन्य-जिहादी इस्टैब्लिशमेंट की आतंकवाद इस्तेमाल करने की रणनीति की पुष्टि हुई है. इस सबक को पाकिस्तान भारत के खिलाफ नई ऊर्जा के साथ लागू कर सकता है. दूसरा, भारत के अफ़ग़ानिस्तान में आर्थिक और राजनयिक पदचिह्न कम होंगे.
दरअसल, यह प्रक्रिया हेरात और जलालाबाद में दो वाणिज्य दूतावासों को बंद करने के साथ ही शुरू हो चुकी है. तीसरा, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और तालिबान के घनिष्ठ संबंधों को देखते हुए, एक आशंका है कि ये ताकतें पूर्वी अफगानिस्तान में फिर से संगठित हो जाएंगी, जो अतीत में भारत विरोधी गतिविधियों का केंद्र रहा है. कुल मिलाकर, अफगानिस्तान में पहले बड़ी भूमिका से कतराने का नतीजा यह है कि भारत के पास बहुत कम विकल्प बचे हैं.
यदि तालिबान वर्चस्व स्थापित करता है तो भारत को उसके कुछ तत्वों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने पड़ेंगे. लेकिन, क्यूंकि इस वक्त गृह युद्ध जैसी स्थिति बन रही है, भारत को न केवल उत्तर प्रातों में बल्कि दक्षिण में भी तालिबान विरोधी ताकतों को मदद करने के लिए तैयार रहना चाहिए. पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों के पूर्वी अफगानिस्तान में स्थानांतरण को समाप्त करने की ओर भारत को ध्यान केंद्रित होगा.
भारत के लिए दीर्घकालिक आशा यह है कि जैसे-जैसे अमेरिका अपनी उपस्थिति कम करेगा, पाकिस्तान अफगानिस्तान में अस्थिर स्थिति में खुद उलझ कर रह जायेगा. अफगानिस्तान-पाकिस्तान प्रतिद्वंद्विता काफ़ी पुरानी है. एक छोटा राज्य होने के बावजूद, अफगानिस्तान पाकिस्तान को नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है. लेकिन पाकिस्तान ने भी इन हालातों को टालने के लिए तालिबान की नेतृत्व में फेरबदल किया है. अभी के लिए, भारत को एक पुन: सक्रिय पाकिस्तानी सैन्य-जिहादी इस्टैब्लिशमेंट की हरकतों से सावधान रहना पड़ेगा.
यहा व्यक्त विचार निजी हैं.
(प्रणय कोटस्थाने, तक्षशिला संस्थान के फेलो है और हेमंत चांडक तक्षशिला संस्थान से पब्लिक पालिसी ग्रेजुएट हैं.)
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