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Friday, 15 November, 2024
होममत-विमतनिजी अधिकार में राज्य का हो कितना हस्तक्षेप, उत्तराखंड के लिव-इन रूल्स खड़े करते हैं कई सवाल

निजी अधिकार में राज्य का हो कितना हस्तक्षेप, उत्तराखंड के लिव-इन रूल्स खड़े करते हैं कई सवाल

हर बार जब हम राज्य को अपने जीवन पर अधिकार करने की अनुमति देते हैं, तो हम माओत्से तुंग, मुल्ला उमर के रास्ते पर चल रहे होते हैं. इसकी शुरुआत हमेशा छोटे से होती है. लेकिन यह फिसलन भरी ढलान है. यह कभी भी अधिक समय तक छोटा नहीं रहता.

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हर बार जब हम राज्य को अपने जीवन पर नियंत्रण करने की अनुमति देते हैं, तो हम माओत्से तुंग, मुल्ला उमर के रास्ते पर चल रहे होते हैं. इसकी शुरुआत हमेशा छोटे से होती है. लेकिन यह फिसलन भरी ढलान है. यह कभी भी अधिक समय तक छोटा नहीं रहता.

यदि आप प्यार में हैं और शादी करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो उस व्यक्ति के साथ आगे ज़रूर बढ़ें जिसे आप पसंद करते हैं. बस उत्तराखंड में ऐसा मत कीजिए. लखनऊ में एक साथ रहना ठीक है, जो कभी उत्तराखंड राज्य की राजधानी हुआ करती थी. लेकिन उत्तर प्रदेश से थोड़ा बाहर निकलकर पड़ोसी राज्य उत्तराखंड की ओर ड्राइव करें – मान लीजिए, पहाड़ों में एक सुंदर घर में – और आप दोनों अलग-अलग जेल की कोठरियों में कैद हो सकते हैं.

उत्तराखंड विधानसभा द्वारा समान नागरिक संहिता विधेयक पारित करने के साथ, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की भाजपा सरकार को वह मिल गया है जो वह चाहती थी – शादी के बिना एक साथ रहने वाले जोड़ों को तीन से छह महीने की जेल की सजा देने में सक्षम होना.

इससे बचने का एकमात्र तरीका सरकार के पास अपने रिश्ते को आधिकारिक तौर पर पंजीकृत करना है. (बेशक, ऐसी स्थिति में, सिर्फ शादी क्यों नहीं की जाती?) यह बात उन लोगों पर भी लागू होती है जो उत्तराखंड में नहीं रहते हैं. यदि आप उत्तराखंड से हैं, लेकिन चेन्नई में रहते हैं, तो भी आप विधेयक के प्रावधानों से बंधे हैं. आपको अभी भी अपने संबंध को स्थानीय रजिस्ट्रार या उत्तराखंड सरकार के किसी ऐसे अधिकारी के पास पंजीकृत करना होगा.

आह, नागरिक संहिता का खटकने वाला मुद्दा; सभी धर्मों के राजनेताओं के लिए शुद्ध इलेक्टोरल गोल्ड. कम से कम एक बार के लिए, ये प्रावधान सांप्रदायिक राजनीति में निहित नहीं हैं. हम जानते हैं कि समान नागरिक संहिता (यूसीसी) में ‘कोड’ इन दिनों मुसलमानों और उनके व्यक्तिगत कानूनों को लक्षित करने के लिए एक कोड वाक्यांश के रूप में अपनी भूमिका को संदर्भित करता है.

हालांकि, यह मुद्दा धर्म से परे है. अपनी बात करूं तो, मैंने लंबे समय से सभी भारतीयों के लिए एक समान नागरिक संहिता का समर्थन किया है, लेकिन मैं चाहता हूं कि इससे पहले एक राष्ट्रीय बहस और कुछ स्तर पर आम सहमति हो. अफसोस की बात है कि इस तरह के कोड को पेश करने का कदम अब हिंदुत्व की जीत का दावा करने का एक साधन बन गया है, खासकर जब भाजपा राज्य सरकारें अपने स्वयं के बिल पेश करती हैं और ऐसे बिलों को विधानसभा में जय श्री राम के नारे के साथ पेश किया जाता है.

लेकिन जब उत्तराखंड भाजपा अपने स्वयं के हिंदुत्व के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रही थी, तो विधेयक में लिव-इन जोड़ों के उद्देश्य से एक खंड भी शामिल किया गया था.

इसका असर हिंदुओं (और बाकी सभी) पर भी पड़ता है.’ और मैं कल्पना करता हूं कि, जैसे-जैसे विधेयक में निहित बातों का एहसास होगा, इस प्रावधान को कम करने या यहां तक कि हटाने का कदम उठाया जाएगा. (या शायद नहीं. इन दिनों, तर्कसंगत स्पष्टीकरण राजनेताओं के तर्कहीन व्यवहार से मेल नहीं खा सकते हैं.)


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वह सब कुछ जो दांव पर लगा है

फिलहाल, एक पूरी तरह से उचित विचार – यह विश्वास कि भारत में सभी के लिए कॉमन पर्सनल लॉ होना चाहिए – को बहुसंख्यक विजयवाद के प्रतीक में बदलने की निंदनीय राजनीति को छोड़कर, आइए यहां पर कुछ अन्य सिद्धांतों पर भी नज़र डालते हैं जो दांव पर लगे हैं.

पहला व्यक्तिगत अधिकारों का सिद्धांत है. दुर्भाग्य से कानून की अधिकांश सिस्टम (ब्रिटिश प्रणाली सहित, जिससे हमारी उत्पत्ति हुई है) सदियों पहले बनाई गई थीं और उनमें ऐसे तत्व शामिल थे जो अनुचित और अन्यायपूर्ण थे. उदाहरण के लिए, अधिकांश लोकतांत्रिक समाज अब स्वीकार करते हैं कि कानून की हमारे निजी जीवन में कोई भूमिका नहीं है. हां, ऐसे मामले हैं जहां कानून का अपना स्थान है (तलाक, गोद लेने का अधिकार, आदि) लेकिन कुल मिलाकर, मार्गदर्शक सिद्धांत यह है कि, जब तक वे किसी और को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं, लोग अपनी पसंद के अनुसार अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र हैं.

उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में अक्सर यह कहा जाता था कि एक अंग्रेज का महल (castle) उसका घर होता है. फिर भी इस सिद्धांत के विपरीत, निजी स्थानों में दो आपसी सहमति वाले समलैंगिक वयस्कों के बीच के संबंध अवैध थे. 1960 के दशक में इस पर एक राष्ट्रीय बहस हुई और इस मुद्दे पर वोल्फेंडेन रिपोर्ट के प्रकाशन ने ब्रिटेन को अपने कानूनों में संशोधन करने के लिए प्रेरित किया. अमेरिका में कुछ रूढ़िवादी राज्यों को छोड़कर, जहां सॉडमी क़ानूनी रूप से अवैध है, मैं पश्चिम के किसी भी ऐसे लोकतंत्र के बारे में सोच पाने में असमर्थ हूं जहां पर समलैंगिकता अभी भी अवैध है.

हालांकि, भारत में, चूंकि हमें स्वतंत्रता-पूर्व ब्रिटिश कानून विरासत में मिले थे, इसलिए पुरानी ब्रिटिश कानूनी सिस्टम के विरोधाभास और पूर्वाग्रह हमारे कानूनों में बने हुए हैं. (आखिरकार, अब इस सब को बदलने का कुछ प्रयास किया जा रहा है, लेकिन निश्चित रूप से यह विवादास्पद है.) मुझे अभी भी यह चौंकाने वाला लगता है कि, इस सदी में भी, हमारे कई वरिष्ठ न्यायाधीश समलैंगिक लोगों के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार करके खुश थे. जब दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिक कृत्यों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया, तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया.

समलैंगिक लोगों को अपराधी मानने के साथ-साथ व्यक्तिगत अधिकारों में विश्वास रखने का दावा करने के विरोधाभास के अलावा, अदालतों द्वारा प्रदर्शित पूर्वाग्रह का स्तर अक्सर चौंकाने वाला था. (एक वरिष्ठ न्यायाधीश ने खुली अदालत में घोषणा की कि उन्हें संदेह है कि इस मुद्दे का कोई बड़ा परिणाम हो सकता है क्योंकि “मैं कभी किसी समलैंगिक से नहीं मिला हूं.” जिसे लेकर एक अन्य न्यायाधीश ने निजी तौर पर मुझसे मजाक किया: “स्पष्ट रूप से वह आदमी कभी बोर्डिंग स्कूल नहीं गया.”)

यदि न्यायाधीशों को लोगों के बेडरूम में घुसने और लोगों के निजी व्यवहार का मूल्यांकन करने की इस इच्छा में कुछ भी गलत नहीं दिख रहा है, तो राजनेताओं से यह अपेक्षा करना कि यह कितना शर्मनाक है, यह समझना थोड़ा मुश्किल है.

और इसलिए, आपके पास उत्तराखंड यूसीसी विधेयक जैसे प्रावधान हैं जो विषमलैंगिकों (और, मुझे लगता है, समलैंगिकों को भी) को जेल भेजने के बारे में हैं, जो स्थानीय रजिस्ट्रार द्वारा अपने लव लाइफ की मंजूरी बिना एक साथ रहते हैं. व्यक्तिगत निजता और स्वतंत्रता के इन सभी हमलों को आम तौर पर एक ही तरह के तर्क से उचित ठहराया जाता है: यह हमारी प्राचीन परंपराओं के खिलाफ है. वास्तव में, यह एक ऐसी बहस है जो अधिकांश सभ्य दुनिया में लंबे समय से होकर खत्म हो चुकी है. व्यक्तिगत अधिकारों के मामलों को लोकप्रिय राय या तथाकथित परंपरा के संदर्भ में नहीं सुलझाया जा सकता है. वे व्यक्तियों के प्रति सम्मान के पहले सिद्धांतों पर निर्भर करते हैं.

इस प्रकार की राजनीतिक (और कानूनी) मूर्खता पुलिस और अन्य अधिकारियों को लोगों को आतंकित करने या उन पर अत्याचार करने या (और यह अधिक संभावित परिणाम है) इन कानूनों से प्रभावित लोगों से बहुत सारा पैसा वसूलने के बड़े अवसर प्रदान करती है.

सौभाग्य से, ऐसे प्रबुद्ध न्यायाधीश हैं जो खतरे को देखते हैं. मैं दिल्ली उच्च न्यायालय के 15 साल पुराने फैसले का निर्देश बताने के लिए एक प्रतिष्ठित वकील अपार गुप्ता का आभारी हूं. दिल्ली पुलिस ने सार्वजनिक रूप से प्यार का प्रदर्शन करने के लिए एक नवविवाहित जोड़े पर भारतीय दंड संहिता के तहत आरोप लगाया था. यह जोड़ा अपनी शादी के पंजीकरण के लिए कुछ कागजी कार्रवाई करने के लिए द्वारका कोर्ट परिसर में गया था और दो पुलिसकर्मियों ने उन्हें एक-दूसरे को चुंबन करते हुए पाया. इसके आधार पर उन पर आपराधिक कृत्य का आरोप लगाया गया.

जस्टिस जे मुरलीधर की नज़र में यह मामला काफी बेतुका था. “यहां यह समझ से परे है, कि भले ही कोई एफआईआर में कही गई बात को सच मान ले, एक युवा विवाहित जोड़े द्वारा प्रेम की अभिव्यक्ति… कानून की दंडात्मक प्रक्रिया को शुरू करने का कारण कैसे बन सकता है.”

लेकिन ऐसे कितने मामले कभी भी उच्च न्यायालय तक पहुंच पाते हैं? जस्टिस मुरलीधर जैसे कितने जज हैं? कितने लोगों को पुलिस अधिकारियों से जबरन वसूली का सामना करना पड़ा है?

क्या हम और ज़्यादा के लिए तैयार हैं?

अंत में, एक गंभीर सिद्धांत है जिस पर हम शायद ही कभी विचार करते हैं. यह अक्सर स्पष्ट किया जाता रहा है कि कई मध्यमवर्गीय भारतीयों को अधिनायकवाद (authoritarianism) से थोड़ी भी आपत्ति नहीं है. उनके पास स्वतंत्र प्रेस या विरोध के लिए ज्यादा समय नहीं है. हमने इसे 1975 के आपातकाल के दौरान सबसे स्पष्ट रूप से देखा था, जब हम जो दावा करना चाहते हैं उसके विपरीत, मध्यम वर्ग का अधिकांश हिस्सा इंदिरा गांधी के सत्तावाद या अधिनायकवाद का समर्थक था.

लेकिन, मुझे अक्सर आश्चर्य होता है: क्या पर्याप्त मध्यवर्गीय भारतीय Authoritarianism या Totalitarianism के बीच अंतर को पहचानते हैं? एक Authoritarianism वाला समाज असहमति को कम करना (या दंडित करना) चाहता है. एक Totalitarianism  समाज इससे बहुत आगे तक जाता है. वह सब कुछ तय करने की कोशिश करता है कि लोग कैसे रहेंगे, क्या खाएंगे, कैसे प्यार करेंगे, क्या पहनेंगे, आदि. यह रोजमर्रा की जिंदगी के राजनीतिक अधिकारों से परे, असहमति की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से लेकर हमारे घरों और हमारे बेडरूम में हमारे व्यवहार तक जाता है.

Totalitarianism  का सबसे अच्छा उदाहरण माओत्से तुंग का चीन है, जहां आम नागरिकों को कम्युनिस्ट पार्टी की इच्छानुसार जीने के लिए मजबूर किया जाता था. तालिबान Totalitarianism  का एक आधुनिक उदाहरण है.

हर बार जब हम राज्य को अपने जीवन पर अधिक से अधिक अधिकार देते जाते हैं, तो हम माओत्से तुंग और मुल्ला उमर के रास्ते पर चल रहे होते हैं. यह हमेशा छोटे पैमाने पर शुरू होता है और केवल आबादी के एक छोटे से प्रतिशत को प्रभावित करता है – जैसे समलैंगिक लोग या वे जो शादी के बिना एक साथ रहते हैं – और इसलिए बहुसंख्यकों को इसकी कोई परवाह नहीं होती है. लेकिन यह फिसलन भरी ढलान है. और यह कभी भी बहुत लंबे समय तक छोटी नहीं रहती.

तो, हम किस तरह का भारत बना रहे हैं? 21वीं सदी का सुपर पावर?

या, तालिबानियों के अफगानिस्तान की मिरर इमेज?

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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