अगर आपने पिछले बुधवार को इंफोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलेकणि की प्रेजेंटेशन देखी है, जिसमें भारत की वृद्धि को 6 प्रतिशत से 8 प्रतिशत तक ले जाने और 2035 तक इसे 8 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए ज़रूरी ‘बड़े अनलॉक’ पर चर्चा की गई है, तो आपको मिली-जुली फीलिंग्स होंगी. यह हमारी अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक खामियों और असमानताओं के बारे में निराशा का एक रंग होगा और इसके संभावित विकास की संभावनाओं के बारे में उत्साह और आशा की भावना होगी.
पहले कुछ खामियों और असमानताओं को देखते हैं:
- भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में आधे का योगदान 788 जिलों में से केवल 13 जिलों का है
- बिहार का प्रति व्यक्ति जीडीपी तेलंगाना के मुकाबले छठा हिस्सा है — $652 से $3,811.
- टॉप 10 प्रतिशत लोग कुल इनकम का 60 प्रतिशत कमाते हैं. टॉप 1 प्रतिशत लोग हर साल 53 लाख रुपये (एलपीए) कमाते हैं, टॉप 10 प्रतिशत लोग सालाना 13.5 लाख रुपये, मिडल 40 प्रतिशत लोग हर साल 1.65 लाख रुपये और बॉटम 50 प्रतिशत लोग 71,163 रुपये प्रति वर्ष कमाते हैं.
- भारत की श्रम उत्पादकता — काम के एक घंटे में उत्पादित वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद — 7 डॉलर प्रति घंटा है, जबकि चीन में यह 28 डॉलर प्रति घंटा, ब्रिटेन में 70 डॉलर प्रति घंटा और अमेरिका में 82 डॉलर प्रति घंटा है.
- केवल 29,000 बिजनेस के पास 10 करोड़ रुपये की चुकता पूंजी है. छोटे बिजनेस के लिए पूंजी की मांग और आपूर्ति के बीच 530 बिलियन डॉलर का फर्क है.
अब, यहां नीलेकणि के हल हैं या जिन्हें वे चार ‘ग्रेट अनलॉक’ कहते हैं जो भारत के विकास पथ को बदल सकते हैं: टेक्नोलॉजी, कैपिटल, एंटरप्रेन्योरशिप और फॉर्मलाइज़ेशन. डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना को कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के साथ एकीकृत करने से लेकर ज़मीन के टोकनाइज़ेशन, कैपिटल एक्सेस और कानूनों के सिम्पलीफिकेशन तक, उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता को साकार करने के लिए विशिष्ट समाधान और रोडमैप पेश किया.
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नीलेकणि का ट्रैक रिकॉर्ड
मेरे पास नीलेकणि के ‘अनलॉक’ पर टिप्पणी करने के लिए कोई विशेषज्ञता नहीं है, लेकिन इंफोसिस के सह-संस्थापक का ट्रैक रिकॉर्ड क्लियर है. मनमोहन सिंह सरकार ने उन्हें “हर भारतीय को एक विशिष्ट पहचान पत्र” देने का एक पेज का निर्देश दिया था. हालांकि, इसमें यह नहीं बताया गया कि कैसे. नीलेकणि ने इसे आधार में बदल दिया, जो दुनिया की सबसे बड़ी बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली बन गई.
जब नीलेकणि ने 2014 के लोकसभा चुनाव में बैंगलोर दक्षिण से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के लिए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया, तो भाजपा से उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी अनंत कुमार ने आधार को चुनावी मुद्दा बना दिया. कुमार ने आरोप लगाया कि इसने अवैध अप्रवासियों और राष्ट्र-विरोधी एजेंटों को वास्तविक लाभार्थियों की कीमत पर इस प्रणाली में नामांकन करने का मौका दिया. उन्होंने भाजपा के सत्ता में आने पर आधार को खत्म करने का वादा किया.
खैर, भाजपा केंद्र में सत्ता में आई. कुमार केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बने, लेकिन वे चुनावी वादे पूरे नहीं कर पाए. हुआ यूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीलेकणि के साथ लंबी बैठक की और बाकी इतिहास है. आधार के ज़रिए सीधे कैश ट्रांसफर मोदी के शासन मॉडल का केंद्रबिंदु बन गया.
इसमें एक साइड स्टोरी यह भी है कि मोदी से मिलने से पहले, कुछ दोस्तों ने नीलेकणि को 2014 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से मिलने के लिए राज़ी किया था, लेकिन कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों ने इस रिपोर्टर को बताया कि वह मीटिंग एकदम निरर्थक साबित हुई. सिद्धारमैया ने नीलेकणि को लंबे समय तक इंतज़ार करवाया और फिर उनकी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. आखिर, इंफोसिस के सह-संस्थापक और आधार आर्किटेक्ट एक ऐसे राजनेता को क्या दे सकते थे, जो शासन के विकल्प के रूप में जाति, धर्म और उप-राष्ट्रवाद पर भरोसा करता था? कर्नाटक का नुकसान भारत के लिए एक बड़ा लाभ साबित हुआ, क्योंकि मोदी ने नीलेकणि की बात सुनी और शासन में आधार की परिवर्तनकारी शक्ति को उजागर किया.
यह एक दशक पहले की बात है — एक ऐसा वक्त जब मोदी विचारों और इनोवेशन के प्रति खुले थे और भाजपा/आरएसएस पारिस्थितिकी तंत्र के बाहर के विशेषज्ञों के साथ बातचीत करते थे.
सुधार की इच्छा नहीं
नीलेकणि ने अब 8 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए रोडमैप पेश किया है, मोदी की प्राथमिकताएं दूसरी हैं. मोदी 3.0 शासन से कहीं ज़्यादा राजनीतिक अस्तित्व के बारे में है. किसी भी बात से सहयोगी पार्टियों को परेशानी नहीं होनी चाहिए. तीन-भाषा नीति, परिसीमन, एक साथ चुनाव और वक्फ सुधार जैसे विवादास्पद मुद्दों को प्राथमिकता दी जा रही है. शासन को लेकर संतुष्टि नहीं तो संतोष की भावना ज़रूर है. मानो मोदी सरकार ने संतृप्ति स्तर तक काम कर लिया है! मानो उसने दीनदयाल उपाध्याय की हर इच्छा को लागू कर दिया है — योजना आयोग को खत्म करने से लेकर खाद्य सुरक्षा, सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा, स्वदेशी, राजकोषीय रूढ़िवाद, आदि.
कम से कम पिछले कुछ बजटों ने तो यही सुझाया है — यहां एक लोकलुभावन इंटर्नशिप योजना और वहां टैक्स में कटौती, जिसमें बहुत कम कल्पना या इनोवेशन दिखते हैं. चार साल से ज़्यादा समय से, चार महत्वाकांक्षी श्रम संहिताएं अधर में लटकी हैं क्योंकि केंद्र सभी राज्यों द्वारा ऐसा करने का इंतज़ार करने के बहाने नियमों को अधिसूचित नहीं कर रहा है.
पहले कार्यकाल में ज़मीन अधिग्रहण विधेयक, दूसरे कार्यकाल में कृषि कानूनों पर पीछे हटने के बाद, तीसरे कार्यकाल में मोदी सुधारों के प्रति अपनी इच्छा समाप्त करते दिख रहे हैं. वे 2029 तक भारत के तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की बात करते हैं, लेकिन कभी यह नहीं कहते कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम कहां खड़े हैं — आज या भविष्य में.
पीएम मोदी के भाषणों को सुनिए. विपक्ष के खिलाफ आक्षेप केंद्रीय विषय बना हुआ है, जबकि बाकी लगभग सभी पुरानी योजनाओं के बारे में हैं — भविष्य की योजनाओं के बारे में बहुत कम कहा जाता है. 7 मार्च को सूरत में दिए गए भाषण में उन्होंने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (2020), हर घर जल अभियान (2019), एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड (2018), प्रधानमंत्री मुद्रा योजना (2015), पीएम स्वनिधि योजना (2020) और पीएम विश्वकर्मा योजना (2023) का ज़िक्र किया. इसके अलावा, उन्होंने 5 लाख रुपये तक के मुफ्त इलाज (आयुष्मान भारत योजना-पीएमजेएवाई, 2018), शौचालय (स्वच्छ भारत मिशन, 2014), पक्के मकान (प्रधानमंत्री आवास योजना, 2015) और गैस कनेक्शन (उज्ज्वला योजना, 2016) जैसी योजनाओं का भी ज़िक्र किया. कुछ अपवादों को छोड़कर, ये सभी योजनाएं उनके पहले कार्यकाल के दौरान शुरू की गई थीं.
फरवरी 2024 में, लोकसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले, मोदी ने अपने मंत्रियों को 100-दिवसीय कार्ययोजना और पांच-वर्षीय रोडमैप बनाने का निर्देश दिया. चुनावों के बाद, कुछ महत्वपूर्ण फैसलों — वधावन बंदरगाह और राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन की स्वीकृति को छोड़कर, उनमें से अधिकांश कार्ययोजनाएं और रोडमैप धूल खा रहे हैं.
जब नृपेंद्र मिश्रा अपने पहले कार्यकाल के दौरान पीएम के प्रधान सचिव थे, तो वे हर दूसरे दिन क्षेत्रीय समीक्षा बैठकें करते थे, जिससे सभी मंत्रालय मिशन मोड में रहते थे. वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों के अनुसार, पीके मिश्रा के उनकी जगह लेने के बाद यह प्रथा कुछ समय तक जारी रही, लेकिन फिर धीरे-धीरे कम हो गई. उनका कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी, जो अक्सर अपने मंत्रालयों में काम की समीक्षा के लिए अलग-अलग सचिवों को बुलाते थे, उन्होंने इस तरह की बातचीत “लगभग बंद” कर दी है.
आईएएस अधिकारियों ने कहा, प्रधानमंत्री अभी भी प्रगति या प्रो-एक्टिव गवर्नेंस और समयबद्ध कार्यान्वयन की बैठकें बुलाते हैं, लेकिन वे “अधिक औपचारिकता के लिए” होती हैं.
मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल की कहानी बताने वाला एक वीडियो क्लिप बिहार के दरभंगा जाने से पंद्रह दिन पहले का है. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज चौहान मखाना किसानों से बात करने के लिए कीचड़ भरे तालाब में उतरते हुए दिखाई दे रहे हैं. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री को अपने गृह राज्य में कृषि क्षेत्र में बदलाव का श्रेय दिया जाता है, लेकिन केंद्र में आने के बाद से उन्होंने कोई साहसिक पहल या सुधार करने से परहेज़ किया है. उन्हें पता है कि क्या ज्यादा मायने रखता है — दिखावट या नतीजे.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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