भारत और चीन के बीच के संघर्ष को लेकर सैन्य दृष्टिकोण से काफी कुछ कहा सुना जा रहा है और आगे भी इस पर काफी चर्चा होगी. 15 जून को जो हुआ वह चीन की मनोवृत्ति को दर्शाता है. ये हमारे सैनिकों का मनोबल और जिजीविषा ही थी जो वह अपने से संख्या में कहीं ज्यादा चीनी सैनिकों का सामना कर पाए.
भारत के सभी लोगों ने भारतीय सेना में विश्वास जताते हुए सरकार से उचित कदम उठाने का अनुरोध किया. मगर जैसा कि किसी भी घटना को लेकर होता आया है, राजनीतिक पार्टियों के सोशल मीडिया के दस्ते अपने-अपने नज़रिये पेश कर रहे हैं. कुछ 1962 तो कुछ 1967 तो कुछ 2017 के वाकये की अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं.
भारतीय का एक वर्ग चीनी सामानों का बहिष्कार की मांग कर रहा है तो कुछ लोग इसकी व्यवहारिकता पर प्रश्न उठा रहे हैं. हाल के वर्षों में जब भी चीनी सेना की आक्रामकता बढ़ी है इस प्रकार की मांगे भी बढ़ी हैं मगर इन सबके बीच चीन ने भारत के पूरे इलेक्ट्रॉनिक बाजार पर एकछत्र अधिकार कर लिया. एक तरफ भारत के इलेक्ट्रॉनिक बाजार के 2025 तक 400 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की संभावना जताई जा रही है लेकिन इसमें भारतीय कंपनियों की हिस्सेदारी काफी कम है.
कोविड-19 के दौरान सामने आया कि भारत के फार्मा सेक्टर को कच्चे माल की आपूर्ति चीनी कंपनियां करती हैं. इसके अलावा ज्यादातर टेलिकॉम कंपनियों के यंत्र चीन से ही आपूर्तित हो रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों से भारत के नए स्टार्टअप में पूंजी का एक बड़ा स्रोत चीनी कंपनियों का रहा है. भारत के मोबाइल फोन बाजार में 72 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी चीनी की मोबाइल की कंपनियों की है, साथ में भारत की डिजिटल इकोनॉमी के एक बहुत बड़े भाग पर चीन की कंपनियों के उत्पाद की हिस्सदारी है.
ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि ऐसी परिस्थिति में भारत किस प्रकार चीन के सामरिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करेगा? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सामरिक विषय फिर भी सैन्य शक्ति बढ़ा कर हल हो जायेंगे मगर आर्थिक चुनौतियों की प्रकृति कुछ अलग तरह की होती है जिसका समाधान केवल किसी उत्पाद को प्रतिबंधित करके नहीं किया जा सकता है क्योंकि आर्थिक उत्पादों की गति और उसका प्रचलन कई बातों से निर्धारित होता है जैसे उनका मूल्य, उनकी उपलब्धता, उनकी तकनीक आदि.
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आधुनिक समय में तकनीक महत्वपूर्ण है क्योंकि नई और सस्ती तकनीक के आधार पर ही चीन के उत्पाद एशिया और अफ्रीका के देशों में फैले हैं और एक बार जब उनके बाजार का आकार बढ़ गया तो उन्होंने उसे अन्य देशों में भी उत्पादन क्षमता के आधार पर स्थापित किया.
निश्चय ही यह एक दिन में नहीं हुआ होगा. उन्होंने इस प्रकार का उदाहरण एशिया के देशों में ही देखा कि कैसे जापान और कोरिया तकनीक की उत्कृष्टता के सहारे बहुत जल्दी ही विकसित देशों की श्रेणी में खड़े हो गए. इन देशों ने संसाधनों के विकास के लिए योजनाबद्ध ढंग से काम किया.
शिक्षा और प्रशिक्षण पर निवेश करना जरूरी
चीन सहित जिन भी देशों ने तकनीक के सहारे अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाया है उन्होंने शैक्षणिक ढांचों पर पर्याप्त निवेश किया है. शिक्षा ही वह क्षेत्र है जिसके द्वारा हम अर्थव्यवस्था को कुशल कार्यबल दे सकते हैं. भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी युवा जनसंख्या है परंतु यदि यह जनसंख्या शिक्षित नहीं होगी, प्रशिक्षित नहीं होगी तो यह भारत की जीडीपी को बढ़ाने की बजाय उसकी वृद्धि को प्रभावित करेगी.
अमेरिकी एंटरप्राइज इंस्टिट्यूट के डेरेक सीज़र्स, आईएलओ-2019 की रिपोर्ट के हवाले से लिखते हैं कि भारत अपने कार्यबल का केवल 37.5 फीसदी उपयोग कर पा रहा है. जबकि चीन भारत की अपेक्षा 19 फीसदी और अमेरिका 13 फीसदी ज्यादा कार्यबल का उपयोग कर रहा है. भारत की महिलाओं की कार्यबल में उपस्थिति 21 फीसदी है जो कि चीन और अमेरिका दोनों के आधे से कम है.
कार्यबल में कम भागीदारी और पर्याप्त प्रशिक्षित कार्यबल का अभाव दोनों शिक्षा से जुड़ा विषय है. भारत की शिक्षा नीति जो 2015 में घोषित हुई थी अभी तक लागू नहीं हो पायी है. स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रमों की पुनर्रचना पिछले 15 वर्षों से नहीं हुई है जबकि इस बीच काफी कुछ बदल चुका है. नई तकनीकें आ गई हैं, विश्व भर में शिक्षा का नज़रिया और शिक्षा का ढांचा बदल चुका है परंतु हमारे देश में बच्चे अभी भी एनसीईआरटी का वर्षों पुराना पाठ्यक्रम पढ़ रहे हैं.
जब यही छात्र अपनी शिक्षा समाप्त कर कार्य क्षेत्र में जायेंगे तो इनसे चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी होगी. आज देश के सामने चीन चुनौती है कल को कोई और देश चुनौती प्रस्तुत करेगा. इसका समाधान हमें आत्मनिर्भर होकर करना होगा और यह आत्मनिर्भरता हमें शिक्षा के क्षेत्र के जरिए लानी होगी. यह तभी होगा जब हम अपने छात्रों की शिक्षा में और उपलब्ध कार्यबल के प्रशिक्षण में पर्याप्त निवेश करेंगे.
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इस निवेश के परिणाम में कम से कम डेढ़ दशक का समय लगेगा, मगर यह एक मजबूत निवेश होगा जो संकट के समय देश के काम आएगा.
विश्व के किसी भी देश के आर्थिक ढांचे में परिवर्तन एक दिन में नहीं आया है. इसे आने में समय लगा है. जापान और कोरिया ने समय लिया, चीन ने भी समय लिया है. जिसके सकारात्मक परिणाम सब के सामने हैं. यदि भारत को अगले कुछ दशकों में चीन का सामना करना है और उसे पीछे छोड़ना है तो उसे चीन को कमजोर करने की रणनीति के साथ अपने को मजबूत करने की नीति पर भी काम करना होगा.
(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च एंड गवर्नेंस के निदेशक हैं. उन्होंने एमएचआरडी के साथ मिलकर नई शिक्षा नीति पर काम किया है. व्यक्त विचार निजी हैं)
सरकार को नए रोज़गार के अवसर सृजित करने होंगे तभी भारत आत्म निर्भर बन पाएगा, केवल जुमलेबाजी से काम नहीं चलेगा। विश्वविद्यालयों में अनुसंधान पर ख़र्च बढ़ाना होगा, शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों के बजट में अभूतपूर्व वृद्धि करनी होगी तभी भविष्य उज्ज्वल होगा अन्यथा केवल चुनाव दर चुनाव जीत लेने से कुछ नहीं होगा। शिक्षा क्षेत्र का संपूर्ण कायापलट करना होगा जहां ज़ोर अनुसंधान पर होना चाहिए।
अत्यंत सामयिक लेख।