भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों के चुनावों में उनका प्रदर्शन अचानक से बहुत अच्छा होना कई चुनावी पंडितों के लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है. कुछ विश्लेषण अरुणाचल प्रदेश और असम में बीजेपी के जीत को उसके हिंदुत्व की राजनीति से जोड़ते हैं, लेकिन करीब 90 प्रतिशत ईसाई आबादी वाले राज्य नागालैंड में बीजेपी के चुनावी प्रदर्शन को किस तरह देखा जाये?
भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों – अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, और त्रिपुरा, के बारे में ऐसी आम धरणा होती है कि केंद्र (नई दिल्ली) में जिस पार्टी की सरकार होती है उस पार्टी का इन राज्यों के चुनाव में प्रदर्शन पहले से बेहतर होता है, जिसे हम नीचे दिए गए ग्राफ में भी देख सकते हैं.
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ग्राफ: उत्तर-पूर्व राज्यों में बीजेपी का बदलता मत प्रतिशत
ग्राफ में उत्तर-पूर्व के आठ राज्यों में से पांच राज्यों में बीजेपी का मत प्रतिशत बढ़ता-घटता रहा है. यानि कि जब केंद्र में बीजेपी की सरकार रही है तब बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा है, लेकिन जब वो केंद्र में सरकार में नहीं रही है तब उसका वोट प्रतिशत घटा है. गौर करने वाली बात यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी के एनडीए सरकार के दौरान भी बीजेपी के वोट बढ़े थे, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से पार्टी ने एक तरीके से उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी अपना वर्चस्व साबित किया है.
अब बीजेपी उत्तर-पूर्व के राज्यों में खुद को सिर्फ कुछ वोट बढ़ाने या कुछ ज़्यादा सीटें जीतने भर तक ही खुद को सीमित नहीं रखा है, बल्कि अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर और त्रिपुरा में तो सरकार बनायी ही है, साथ ही मेघालय और नागालैंड में भी वहां के क्षेत्रीय पार्टियों के नेतृत्व वाली पार्टी के साथ गठबंधन सरकार में शामिल है. जो इस बात का संकेत देती है कि अब बीजेपी की उत्तर-पूर्व में सिर्फ वोट बढ़ाने में ही रुचि नहीं है, बल्कि अब वो वहां के मतदाताओं के बीच एक मज़बूत विकल्प बनना चाहती है.
आज उत्तर-पूर्वी राज्यों में बीजेपी का विकास सिर्फ हिंदुत्व या दिल्ली की केंद्र सरकार की शक्ति के अनुरूप ही वहां के राज्यों की राजनीती में बीजेपी की भागीदारी नहीं बढ़ रही है, बल्कि वहां के राजनीतिक आबोहवा में कुछ बुनियादी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं और उसका फायदा बीजेपी को मिल रहा है.
बीजेपी वहां सिर्फ युवाओं के मन में बदलाव की उम्मीद जगाकर या फिर कांग्रेस या वहां के अन्य पार्टी के नेताओं को अपनी तरफ मिलाकर ही नहीं सफलता हासिल कर रही है और न ही सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लोकप्रियता को भुनाकर सफलता हासिल कर रही है, बल्कि वहां वह सरकारी योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन पर फोकस कर रही है. यह एक बड़ी वजह है की 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों का उत्तर-पूर्व के राज्यों में बेहतर प्रदर्शन हो सकता है.
ज़मीनी सच्चाई
सरकारी जनवितरण प्रणाली (पीडीएस) काफी समय से है, लेकिन नागालैंड में लोगों से बात करने से ज्ञात हुआ की वहां पिछले तीन साल से सरकारी राशन की दुकान से हर महीने चावल मिलता है. जबकि खाद्य सुरक्षा कानून यूपीए 2 सरकार में ही लागू हो चुका था. पिछले साल विधानसभा चुनाव के फील्ड वर्क के दौरान कुछ गांव में लोगों ने बताया कि उन्हें मोदी सरकार के समय से पीडीएस दुकानों से चावल मिलता है. अपने हालिया फील्ड वर्क के दौरान भी तुएन्सन्ग ज़िले के एक गांव के ग्रामीण विकास काउंसिल के एक सदस्य के कहा – ‘पहले हमें ऐसा कुछ (चावल) भी नहीं मिलता था, लेकिन जब से मोदी सरकार में आये हैं तब से हम लोगों को ये चावल मिलता है. गांव में लोग इसे ‘मोदी का चावल’ कहते हैं’.
न सिर्फ चावल, बल्कि मोदी सरकार की प्रचलित योजना स्वच्छ भारत मिशन के तहत गांव में लोगों को शौचालय बनाने की सामग्री भी मिली है.
यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि इन राज्यों में मूलभूत सुविधा जैसे की सड़क आदि कि स्थिति ठीक नहीं होने की वजह से वहां के मतदाताओं खासकर युवाओं में वहां के स्थापित नेताओं और पार्टियों में एक रोष है और इसी वजह से वो एक विकल्प की तलाश में भी हैं.
कई ऐसे युवा मतदाता जो चुनाव में बीजेपी को समर्थन देने की सोच रहे थे उनका कहना था कि वो ‘बदलाव’ चाहते हैं. मोकोकचुंग ज़िले के एक होटल में कार्यरत एक युवा राज्य सरकार द्वारा विकास के प्रति अधिक ध्यान न देने से थोड़े खफा थे और नाराज़गी में कहते हैं – ‘हमारी सड़कों को देखिये, बहुत ही बुराहाल है इसका, कोई नौकरी नहीं है हमारे यहां, इसलिए हमें लगता है कि इस बार सरकार बदल देनी चाहिए. मोदी विकास के लिए अच्छे हैं और अगर बीजेपी यहां सरकार में रहेगी तो हमें केंद्र से भी विकास के लिए अधिक पैसा मिलेगा. इसलिए मै इस बार बीजेपी को समर्थन दूंगा.’
किफिरी ज़िले में कॉमन सर्विस सेंटर (सीएससी) में कार्यरत 28 वर्षीय युवा ने चुनाव के दौरान के अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि वो और उनके कुछ दोस्तों ने मिलकर चुनाव के दौरान गांव में जागरूकता अभियान चलाया. वो कहते हैं – ‘हम लोग किसी पार्टी के लिए काम नहीं कर रहे थे, लेकिन गांव-गांव जाकर लोगों को उनके अधिकार के प्रति जागरूक कर रहे थे. हम उन्हें समझाने की कोशिश कर रहे थे कि इस बार सिर्फ हमें धार्मिक भावनाओं तक अपनी सोच को सीमित नहीं रखना है, बल्कि हमें क्षेत्र के विकास के लिए भी सोचना है.’ उनका अभियान सफल रहा और उनके क्षेत्र में बीजेपी के उम्मेदवार विजयी हुए.
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ऐसा नहीं है कि इन युवा मतदाताओं को बीजेपी और खासकर उसके सहयोगी संगठन आरएसएस की राजनीति की जानकारी नहीं है. आज के सोशल मीडिया के दौर में उनके पास भी उनके धर्मं और उनके भोजन पद्धति से जुड़े नकारात्मक समाचार आता रहता है जो उन्हें डिस्टर्ब भी करता है लेकिन फिर वो ये सोचते हैं कि जिसे वो अपना प्रतिनिधि चुन रहे हैं वो उनके अपने समुदाय के लोग है और वो फिर उनके अपने ही धार्मिक आचरण या भोजन पद्धति से क्यों छेड़छाड़ करेंगे?
ये एक बड़ी वजह है जो उत्तर-पूर्व के राज्यों में वहां के लोगों के बीच बीजेपी एक वोट कटुआ पार्टी से बढ़कर एक विकल्प के तौर पर उभर रही है.
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