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Friday, 12 September, 2025
होममत-विमतभारत कैसे टिका रहा जबकि पड़ोसी देश नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान बार-बार बिखरते रहे

भारत कैसे टिका रहा जबकि पड़ोसी देश नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान बार-बार बिखरते रहे

जो लोग कहते हैं कि भारत को हिंदू राष्ट्र होना चाहिए, उन्हें नेपाल को गौर से देखना चाहिए. वहां की आबादी भारी संख्या में हिंदू है, फिर भी इससे देश की स्थिरता पर कोई फर्क नहीं पड़ा.

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फर्क नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन कभी-कभी जब हम पड़ोस में क्या हो रहा है यह देखते हैं, तो भारतीय व्यवस्था और उसकी सफलताओं की और भी ज्यादा सराहना करने का मन करता है. भगवान जानता है कि हम परफेक्ट नहीं हैं. हमें उपमहाद्वीप के किसी भी और देश से कहीं बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. फिर भी, आज़ादी के बाद के दशकों में हमने लगभग हर खतरे से निपटा है और एक राष्ट्र के रूप में आगे बढ़े हैं.

सोचिए, नेपाल में क्या हो रहा है. हमें बार-बार बताया जाता है कि भारत की एक समस्या यह है कि हम खुद को हिंदू राष्ट्र मानने को तैयार नहीं हैं. या फिर यह कि लोकतंत्र बहुत उलझा हुआ है और हमें एक तानाशाह चाहिए. या फिर, जैसा कि वामपंथी कहा करते थे — उस दौर में जब हम भारत के कम्युनिस्टों पर ज्यादा ध्यान देते थे कि हम पूंजीवाद को लेकर बहुत उत्साही हैं. कहा गया था कि अगर भारत ने मार्क्सवादियों को सत्ता संभालने दी होती, तो हमारा समाज ज्यादा खुशहाल और बराबरी वाला होता.

अब नेपाल को देख लीजिए. कई सालों तक वहां असली लोकतंत्र था ही नहीं. पहले वह राणा के अधीन चला और फिर राजा के, लेकिन न राणा और न ही राजा, कोई भी प्रभावी तरीके से शासन नहीं कर पाया. राणा को हटा दिया गया. राजा को पहले अपनी शक्तियां कम करनी पड़ीं और आखिरकार राजशाही ही खत्म हो गई. यही है तानाशाही और निरंकुश शासकों बनाम लोकतंत्र की असलियत.

हत्या और हिंसा

धर्म के मामले में भी यही हाल है. जो लोग बार-बार कहते हैं कि भारत को हिंदू राष्ट्र होना चाहिए, उन्हें नेपाल को गौर से देखना चाहिए. वहां की लगभग 80% आबादी हिंदू है, लेकिन इसका उस देश की स्थिरता पर कोई असर नहीं पड़ा.

पाकिस्तान को देखिए. वहां की 96% से ज्यादा आबादी मुस्लिम है, लेकिन देश में व्यवस्था और एकता लाने की बजाय, धर्म ने हिंसा, कट्टरपंथ और अफरातफरी को ही जन्म दिया है.

कम्युनिज़्म (साम्यवाद) भी कोई बेहतर साबित नहीं हुआ. नेपाल का पुराना शासन इतना कमज़ोर था कि जब माओवादी आंदोलन शुरू हुआ, तो पुलिस वाले थानों को खाली छोड़ कर भाग गए. भारत ने मदद करने की कोशिश की और नेपाल के लिए एक सशस्त्र बल खड़ा किया. फर्क बस इतना पड़ा कि जब पुलिस वाले भागे, तो भागने से पहले अपने हथियार वहीं फेंक गए.

आखिरकार, तथाकथित ‘क्रांतिकारी’ माओवादी सत्ता में आए और उन्होंने पहले के सब शासन से भी बुरा हाल कर दिया. मौजूदा अशांति के दौरान सड़कों पर जो लोग भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं, वो एक ऐसे माओवादी की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं, जिसने कभी हमारे नक्सलवादियों की तारीफ की थी और चीनी कम्युनिज़्म को आदर्श माना था. आज सड़कों पर भीड़ जिन नेताओं को गालियां दे रही है और मार रही है, वे वही पूर्व ‘क्रांतिकारी’ हैं.

यही है सर्वहारा की तानाशाही—जो राजा की तानाशाही से भी ज्यादा बुरी निकली.

मैं यह सब नेपाल की निंदा करने के लिए नहीं कह रहा हूं, खासकर तब, जब हालिया हिंसा में वहां के लोग खुद ही अपने देश की हालत दिखा चुके हैं. बल्कि मेरा मकसद यह बताना है कि भारत के लिए जो आसान नुस्खे सुझाए जाते हैं, उन्हें इस क्षेत्र के दूसरे देशों में आजमाया जा चुका है और नतीजा सिर्फ हत्या और तबाही निकला है.

आज का बांग्लादेश देख लीजिए. समझ में आ जाएगा कि एक देश के हाथ से नियंत्रण कैसे निकल सकता है. 1971 में जब आज़ाद बांग्लादेश के आंदोलन ने दुनिया का ध्यान खींचा, तब पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों ने पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाबी शासकों को अत्याचारी बताया, जो देश के पूरब में बंगाली पहचान को मिटाना चाहते थे. दुनिया ने उनका समर्थन किया. भारत ने खून बहाकर उन्हें आज़ादी दिलाई.

बांग्लादेशियों को सब कुछ मिला, धार्मिक एकरूपता (कम से कम 91% आबादी मुस्लिम) और सांस्कृतिक पहचान (करीब 98% लोग बंगाली बोलते हैं), लेकिन कुछ ही सालों में उन्होंने सब बर्बाद कर दिया. उन्होंने अपनी आज़ादी की लड़ाई के प्रतीक को ही मार डाला, सालों तक सैन्य शासन को स्वीकार किया और अब एक संकट से दूसरे संकट की ओर लड़खड़ाते रहते हैं. इस बीच, कभी अपने पुराने नेता पर मुकदमा चलाने की कोशिश करते हैं, कभी हिंदू अल्पसंख्यकों को सताते हैं और कभी उन्हीं पाकिस्तानियों से नजदीकियां बढ़ाते हैं जिन्हें कभी अपना दुश्मन मानते थे.

मैं पाकिस्तान के आतंकवादियों या श्रीलंका के गृहयुद्ध का ज़िक्र भी कर सकता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि बात अब साफ हो गई होगी.


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‘लोकतांत्रिक प्रयोग’ से वैश्विक उदाहरण तक

इनमें से किसी भी देश ने वे मुश्किलें नहीं झेली हैं, जिनसे भारत 1947 से गुज़रा है. जब हमारा देश बना था, तब इसे अक्सर ‘लोकतांत्रिक प्रयोग’ कहा जाता था. बहुत कम लोग मानते थे कि इतनी भाषाओं वाला, बड़ी मुस्लिम आबादी वाला, जिसके साथ पहले ही कई अलगाववादी कोशिशें हो चुकी थीं और सदियों की उपनिवेशी हुकूमत के बाद बिना किसी लोकतांत्रिक परंपरा वाला देश टिक भी पाएगा.

लेकिन हमारे संविधान निर्माताओं और उन लोगों की वजह से जिन्होंने इस व्यवस्था को चलाने में योगदान दिया (नौकरशाह, न्यायाधीश, मीडिया, पूरी तरह गैर-राजनीतिक सेना और हां, हमारे अक्सर आलोचना झेलने वाले नेता भी), हमने तमाम शंकाओं को गलत साबित किया और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को ‘एक प्रयोग’ से बढ़ाकर एक वैश्विक उदाहरण बना दिया.

हमारी सफलता के जो कारण बताए जाते हैं, वे सब झूठे हैं. ये इसलिए नहीं है कि अंग्रेज़ हमें एक पेशेवर सेना देकर गए थे, उसका एक हिस्सा पाकिस्तान गया, जहां उसने लोकतांत्रिक व्यवस्था को उखाड़ फेंका, नेताओं को फांसी दी और वैश्विक आतंकवाद को बढ़ावा दिया. ये इसलिए भी नहीं कि हिंदू धर्म इतना शांतिपूर्ण है कि लोकतंत्र खुद पैदा हो जाए — नेपाल को देख लीजिए. न ही इसका कारण कोई एक राजनीतिक पार्टी है अब तक हमें कई तरह की पार्टियों ने अलग-अलग दौर में चलाया है.

ये भी नहीं कि भारतीयों ने तुरंत ही विविधता वाले देश के विचार को अपना लिया. देश की शुरुआती ज़िंदगी में तमिल अलगाववाद ने एक बड़ा खतरा पैदा किया, 1980 के दशक में सिख अलगाववाद समस्या बना और पूर्वोत्तर को मुख्यधारा में जोड़ने में हमें दशकों लग गए.

ये भी नहीं कि हमारे सभी धार्मिक अल्पसंख्यक हमेशा संतुष्ट रहे. कई भारतीय मुसलमान गहरे अलगाव की भावना से जूझ रहे हैं और भले ही सिख अलगाववाद आज कनाडा का सबसे बड़ा आयात बन चुका है, लेकिन खालिस्तान की मांग आज भी अधिकांश भारतीयों को आहत करती है.

कई पिछड़ी जातियों की जायज़ आकांक्षाओं को संभालना लगातार संघर्ष रहा है और उत्तर-दक्षिण का फर्क अब भी भारतीय राज्य के लिए एक संभावित संकट बना हुआ है.

लेकिन इन तमाम समस्याओं और चुनौतियों के बावजूद, भारत काम करता है. देश शायद ही कभी आज जितना राजनीतिक रूप से बंटा रहा हो, लेकिन चाहे हमारी असहमति कितनी भी गहरी क्यों न हो, हम इस बात पर सहमत रहते हैं कि भारतीय व्यवस्था को चलना चाहिए, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा नागरिक लाभ उठा सकें.

हम सत्तारूढ़ पार्टी से नफरत कर सकते हैं या विपक्ष से घोर चिढ़ सकते हैं, लेकिन हम कभी नहीं भूलते कि हम सब भारतीय हैं. इस देश ने हमें वह बनाया है जो हम आज हैं और हम इसे और ऊंचाइयों पर ले जाएंगे.

हां, मुझे पता है. ये सुनने में थोड़ा भावुक लग सकता है, लेकिन यही तो देशभक्ति है. आप तब तक नहीं समझते कि भारत और हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं कितनी कीमती हैं, जब तक आप अपने आसपास के हालात नहीं देखते.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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