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Saturday, 21 December, 2024
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सीबीआई कैसे पिजड़े के तोते से जंगली गिद्ध बन गई 

सीबीआई में नंबर एक और दो के नेतृत्व में दो ग्रुप हैं. प्रत्येक का दावा है कि वे 'असली वाले' हैं और दूसरे को चोर बुलाया जा रहा है.

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2013 में आई नीरज पांडे की बेहतरीन फिल्म ‘स्पेशल 26’ में रेड मारने गए सीबीआई इंस्पेक्टर वसीम खान का रोल निभा रहे मनोज बाजपेयी कहते हैं, ‘हम सीबीआई से हैं… असली वाले.’ ‘असली वाले’ बताने का कारण यह है कि अक्षय कुमार की अगुवाई वाला एक दूसरा ग्रुप सीबीआई से होने का दावा करके अमीर लोगों के यहां रेड कर रहा था और उनकी संपत्ति लेकर गायब हो जा रहा था.

कुछ हद तक इसी तरह का ड्रामा वास्तविक जीवन में खेला जा रहा है और बहुत कुछ सम्मानीय सुप्रीम कोर्ट के अंदर हो रहा है.

सीबीआई में नंबर एक और दो के नेतृत्व में दो ग्रुप हैं. प्रत्येक का दावा है कि वे ‘असली वाले’ हैं और दूसरे को चोर बुलाया जा रहा है. सिर्फ इतना ही नहीं, इस खेल में कुछ और खिलाड़ी भी हैं: एक सरकार जो एक पक्ष को पसंद करती दिखाई दे रही है और एक सीवीसी जो अभी कुछ खास नहीं कर पा रही है क्योंकि उसके शीर्ष पर भी एक रिटॉयर्ड जज बैठा हुआ है.

बदले में सभी लोग भारत के सबसे मशहूर कार्यकर्ताओं और वकीलों की चमक के नीचे फीके पड़ गए हैं. क्योंकि कोई भी, किसी पर भरोसा नहीं करता है और हर किसी पर किसी के द्वारा निगाह रखी जा रही है.

तो, हम क्या करें? ज़ाहिर है कि जब नौकरशाही निर्णय लेने के अनिच्छुक होती है तो वो क्या करती है: वो समय बिताती है. तो, दो और सप्ताह दें. और, अगर यह हमारी’तारीख पे तारीख’ परंपरा में कुछ और देरी के साथ चल जाता है तो वैसे भी वर्तमान निदेशक का कार्यकाल जनवरी में समाप्त हो जाएगा.

अब उन्हें जाने दो, नंबर दो वापस लौट आएंगें और सीबीआई के नए मुखिया की तलाश शुरू करें. कहानी खत्म हुई.

तब तक, अपने शीर्ष अधिकारियों द्वारा एक दूसरे के खिलाफ षडयंत्र करने के चलते हमारी हमारी प्रमुख भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी शक्तिहीन बनी रहेगी.

मेरी सहयोगी अनन्या भारद्वाज ने इसका वर्णन सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इनएक्टिीविटी के रूप में किया है. इतना ही नहीं, नए बनाए गए कार्यवाहक निदेशक भी सवालों के घेरे में हैं. ऐसे में एक शीर्ष अधिकारी को पकड़ने के लिए आप कौन सा दूसरा अधिकारी नियुक्त करेंगे?


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इसी बीच सीबीआई में चल रही उठापठक का फायदा उठाते हुए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अपने राज्य में मामलों की जांच करने की सीबीआई की शक्तियों को वापस ले लिया है. जैसा कि उम्मीद थी ममता बनर्जी ने उनका समर्थन किया है.

ऐसे में अभी आप देखेंगे कि और भी राज्य और विपक्षी नेता, खासकर वो जिन पर सीबीआई जांच चल रही है, इसका समर्थन करेंगे.

ऐसी स्थिति में सीबीआई एक तरह का संवैधानिक संकट पैदा कर सकती है.

हालांकि इस पूरे प्रकरण में अदालत पर आरोप लगाना बहुत ही आसान बात होगी. लेकिन कम से कम वो पिछले दो दशकों से कुछ करने की कोशिश तो कर रहे हैं. सीबीआई में सुधार करने में इस विफलता के लिए मैं उन्हें दोष नहीं दूंगा.

जैसा कि हम अब देख सकते हैं सीबीआई एक राक्षस बन गया है. और कोई भी संस्था उसे शुद्ध नहीं कर सकती. फिर चाहे वो अदालतें, सरकार या सामाजिक कार्यकर्ता और भारतीय पुलिस सेवा ही क्यों न हो.

ऐसा इसलिए है क्योंकि बहुत से अच्छे लोगों और संस्थानों ने दो दशकों से अधिक समय तक इसको बचाने के लिए कृतज्ञता से काम किया है, लेकिन अब ये जंगली जानवर बन गया है.

एक समय जिसे ‘पिजड़े का तोता’ कहकर खारिज कर दिया गया था वह 1990 (जैन हवाला केस याद करिए?) से हमारी राजनीति की दिशा तय कर रहा है. राजनेताओं का करियर खत्म करने से लेकर उन्हें पुनर्जीवित करने में इसका अहम रोल रहा है.

व्यावहारिक रूप से देखें तो प्रभावशाली लोग जिन पर सीबीआई द्वारा मुकदमा किया गया था जैसे एलके आडवाणी (जैन हवाला), पीवी नरसिम्हा राव (जेएमएम घूसकांड), ए राजा (2जी) और दयानिधि मारन (टेलीफोन एक्सचेंज मामला) बरी हो गए.

इस बीच, सबूतों की कमी वाले इन घोटालों ने दूरसंचार से लेकर खनन तक अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है.

सीबीआई ने बोफोर्स के मामले में भी सरकार को ध्यान रखकर काम किया है. सीबीआई ने वही किया जो सरकारें चाहती थी. इस प्रक्रिया में, किसी को भी दंडित नहीं किया गया है और सभी आरोपी पहले से ही मर चुके हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने भी सीबीआई को मज़बूत करने का काम कई बार किया है. दो बड़े घोटालों में उसने सीबीआई जांच अपनी निगरानी में कराई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होने के बावजूद जैन हवाला और 2जी दोनों मामले में कुछ खास नहीं निकल पाया.

अदालत ने इसे सशक्त बनाने के लिए बार-बार हस्तक्षेप किया है. इसे अधिक स्वतंत्र और निष्पक्ष बना दिया है. इसके निदेशक को एक निश्चित दो साल का कार्यकाल दिया गया है. पहले उम्मीदवार का चयन करने के लिए तीन सदस्यीय सरकारी समिति नियुक्त की गई. और फिर इसे और बेहतर किया गया. मुख्य सतर्कता आयुक्त, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश चयन प्रक्रिया का हिस्सा बने.

अगर यह पूरी सरकारी प्रणाली में एकमात्र कार्यकारी नियुक्ति है जहां भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल है, तो यह आपको बताता है कि सीबीआई को कितनी गंभीरता से लिया जाता है. लेकिन अब इसके द्वारा प्राप्त किए गए परिणामों से इसका मूल्यांकन करते हैं.

एक कमज़ोर सीबीआई काफी खराब थी. लेकिन एक मज़बूत सीबीआई और भी खराब हो गई है. एक स्कॉलर अपनी पूरी पीएचडी थीसिस लिख सकता है कि कैसे न्यायपालिका की निगरानी में नई प्रणाली वाली नियुक्त के बाद भी सरकार ने सीबीआई का दुरुपयोग जारी रखा है.

लेकिन बस कुछ बातें याद रखें. जब भी यूपीए को संसद में विश्वास मत का सामना करना होता था तो राष्ट्रीय अखबारों के पहले पन्ने पर-मुलायम सिंह यादव और मायावती- जैसे लोगों के खिलाफ चल रहे मामलों में नाटकीय प्रगति की खबरें छपने लगती थीं और विश्वास मत के खत्म होने के बाद गायब हो जाती थी.

इसका इस्तेमाल नरेंद्र मोदी, अमित शाह और गुजरात में उनके वफादार पुलिसकर्मियों के खिलाफ भी किया जाता था. इशरत जहां मामले में यह एक सेवारत, शीर्ष खुफिया ब्यूरो अधिकारी तक पहुंच गया था. इस मामले पर आपके जो भी विचार हों लेकिन वास्तविक बिंदु यह है: क्या हुआ?


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जब एजेंसी के अधिकारियों ने देखा कि यूपीए कमज़ोर हो रही तो उन्होंने मामले को खींचना शुरू कर दिया और बाद में जब मोदी ने सत्ता संभाली तो मामला ही खत्म हो गया. इस मामले में 100 से ज़्यादा गवाह अपनी बात से मुकर गए.

हमें देखना चाहिए चंद्रबाबू नायडू कहां से आते है. जब वे भाजपा के सहयोगी थे तब सीबीआई ने चंद्रबाबू नायडू के प्रतिद्वंदी वाई एस जगन मोहन रेड्डी के खिलाफ़ केसों को प्राथमिकता पर रखा था. जब कांग्रेस सत्ता में थी तब ये शुरू हुआ था और उन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया था.

लेकिन अभी नायडू भाजपा छोड़ के कांग्रेस के साथ गठबंधन कर रहे है और रेड्डी भाजपा के संभावित सहयोगी के रूप में उभर रहे है. सभी केसों को भुला दिया गया है. इससे पहले सीबीआई उनको एक साल से ज़्यादा दिन के लिए कभी भी बेल पर बाहर नहीं आने देती थी. अब केस ख़त्म हो रहे है. अब जगन मोहन रेड्डी अच्छे बन गए है.  नायडु को क्यों केस में शक नहीं होना चाहिए जो शायद उन पर लगने वाला हो खासकर अब वे बैठ बॉय हो गए है.

निरंकुश शक्तियां क्या कर सकती हैं आपको सिविल सेवक बी के बंसल और उनके परिवार की आत्महत्या को देखना चाहिए. बंसल और उनका परिवार भ्रष्टाचार के आरोप में सीबीआई की पूछताछ को झेलने में असमर्थ थे. किसी भी पुलिस संस्थान में बहुत शक्ति होती है खासतौर पर उस संस्थान में जहां पर न्यायपालिका धीमी गति से काम करती है और प्रक्रिया सजा बन जाती है. जहां युवा लोग जेल में परिपक्व होकर अधेड़ उम्र के हो जाते है, जब उन्हें बरी किया जाता है. तब तक सीबीआई पर अधिक संस्थागत अनुशासन और संयम रखने की आवश्यकता होती है न कि इसे और अधिक शक्तियां देने की बात की जानी चाहिए.

कोर्ट और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जस इसका उलट किया है और राजनीतिज्ञों ने इसका शोषण किया है. पहले ऐतिहासिक मामले में (विनीत नरायण) सुप्रीम कोर्ट ने न केवल सीबीआई की शक्ति बढ़ाई बल्कि उसके प्रमुख का कार्यकाल भी सुनिश्चित किया. उसने ये भी आदेश दिया था कि हर वो मानला जिसमें आरोपी बरी हो जाता  है या निर्दोष पाया जाता है का पुनर्अवलोकन एक पैनल के वकील को करना चाहिए…ड्यूटी पूरी न करने के लिए जवाबदारी तय की जानी चाहिए. ऐसा कुछ हालांकि हुआ नहीं क्योंकि राजनेताओं ने अदालती फैसले से वहीं मामले उठाए जो उनके काम के थे और उनके लिए फायदे वाले होने वाले थे. तो इसका इस्तेमाल न्याय के लिए नहीं हुआ बस फायदे के लिए हुआ.

इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि पिछले चार सीबीआई निदेशकों में से तीन और लोकपाल अधिनियम 2013 के अनुसार नई प्रणाली के तहत नियुक्त किए गए दो में से एक भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों का सामना कर रहे हैं. इनके चुनाव में मुख्य न्यायाधीश ने भी हिस्सा लिया था.

कोई गारंटी नहीं है कि अगला कोई भी बेहतर होगा. इस कार्यालय में बहुत अधिक शक्ति है, बहुत कम जवाबदेही और बहुत अधिक प्रलोभन है. ऐसे में गड़बड़ी वाली संस्थागत संरचना में केवल एक सुपरमैन ही सही रूप से ‘असली वाले’ होने का दावा कर सकता है.

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