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Sunday, 22 December, 2024
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कैसे हुआ केजरीवाल का कायापलट, साबित हो सकते हैं लंबी रेस के घोड़े

केजरीवाल ने मोदी से जंग से फिलहाल पूरी तरह किनारा कर लिया है. वे किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ना चाहते. वे नहीं चाहते कि दिल्ली के मतदाता फरवरी में जब वोट डालने जाएं तब उनके मन में यह दुविधा हो कि मोदी के पक्ष में वोट दें या उनके पक्ष में.

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मोदी लहर में डेढ़ गैर-एनडीए दलों को छोड़ बाकी सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों का हाल बेहाल हो गया. डेढ़ में से एक तो एमके स्टालिन की डीएमके है और आधा आंध्र प्रदेश की वाईएसआरसीपी है, क्योंकि इसकी आधी गाड़ी भाजपा ने बीच रास्ते अपनी गाड़ी से जोड़ ली है.

बाकी दलों, खासकर कांग्रेस को इतना करारा झटका लगा कि उसके बाद किसी ने उसे इससे उबरने की न तो रणनीति बताई है और न रास्ता दिखाया है और न ही विपक्ष ने फिर से एकजुट होने की तैयारी जाहिर की है. लेकिन, एक अपवाद है- अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ (आप).

शुरुआत 2019 के दिल्ली में लोकसभा चुनाव से मिले आंकड़ों से ही करें. इसमें ‘आप’ का सबसे बुरा हाल हुआ. वह दिल्ली के 70 विधानसभा क्षेत्रों में से केवल 23 में दूसरे नंबर पर रही, जबकि 2015 में उसने 67 विधानसभा सीटें जीती थी. यहां तक कि कांग्रेस भी, जिसे 2015 के विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी, 70 में से 42 विधानसभा क्षेत्रों में दूसरे नंबर पर रही और मुस्लिम बहुल वाले पांच विधानसभा क्षेत्रों में तो अव्वल रही. जाहिर है, दिल्ली में ‘आप’ के दिन लदने के आसार नज़र आने लगे थे.

अब हवा किस तरह बदल रही है, इस पर गौर कीजिए. हम उस हवा की बात नहीं कर रहे जिस पर विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र निगरानी रखता है और बता रहा है कि पर्यावरण के लिहाज से दिल्ली की हवा में सुधार हुआ है. लेकिन, जब आप सियासी हवा को सूंघेंगे तो आपको तीन बदलाव महसूस होंगे- एक तो यह कि ‘आप’ फिर से मैदान में लौट रही है. दूसरे, फिलहाल अंदर से बंटी हुई भाजपा अभी भी इस दुविधा में है कि दिल्ली में वह मोदी बनाम केजरीवाल लड़ाई का खतरा मोल ले या नहीं और तीसरे, यह कि कांंग्रेस फिर से 2015 वाली हालत में पहुंच गई है- अस्तित्वहीन, नेतृत्व विहीन, पस्तहाल.


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हम अभी यह तो नहीं कह रहे कि ‘आप’ दोबारा सत्ता में आ ही जाएगी. लेकिन, वह मैदान में अपने पैर जमा कर लड़ने को तैयार दिख रही है. इसकी हालत उन तीन में से किसी राज्य में कांग्रेस की हालत से बिलकुल अलग है, जिनमें वह (कांग्रेस) अगले दो महीने में चुनाव लड़ने जा रही है. हालांकि, इन तीनों राज्यों में लोकसभा चुनाव में वह सम्मानजनक दूसरे नंबर पर रही थी.

वाइएसआरसीपी, केसी राव की टीआरएस, नवीन पटनायक की बीजेडी जैसी दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की कोई गिनती नहीं की जा सकती, क्योंकि उनमें से ज़्यादातर तो भाजपा का ही समर्थन कर रही हैं. इसलिए उन्हें विपक्ष में नहीं शामिल माना जा सकता. उन्हें भाजपा ने उस तरह बर्बाद भी नहीं किया था जिस तरह दिल्ली में ‘आप’ को किया और फिर, वे अगले छह महीने में भाजपा के खिलाफ चुनाव भी नहीं लड़ने जा रही हैं.

लेकिन केजरीवाल का कायापलट ही हो गया है. पहले, वे और उनकी पार्टी मोदी का मखौल उड़ाने में ही लगी रहती थी. केजरीवाल उन्हें ‘कायर और मानसिक रोगी’ तक कह चुके हैं. लेकिन, लोकसभा चुनाव के बाद से हमने उनसे ऐसे बोल नहीं सुने हैं. बल्कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की विनम्र प्रशंसा ही उनसे सुनी है. 21 जून को वे खुद प्रधानमंत्री को बधाई देने गए, इसके बाद अच्छा-सा ट्वीट लिखा और केंद्र से सहयोग करने की पेशकश की. इसके बाद से उनकी सरकार ने केंद्र से कोई झगड़ा या विवाद नहीं किया है. भारतीय राजनीति के सबसे हंगामेबाज़ जुझारुओं का आज्ञाकारी स्कूली लड़कों में तब्दील होना उतना ही नाटकीय रहा है जितना उनकी दिल्ली सरकार के स्कूलों में आया बदलाव.

यह कोई कमजोरी या पराजयवाद नहीं है. यह राजनीति है. कांग्रेस के विपरीत केजरीवाल ने मौजूदा राजनीति की इस हकीकत को पूरी तरह कबूल किया है कि फिलहाल तो मोदी का विरोध या उन पर लांछनयुक्त हमला करने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता. इसलिए केजरीवाल ने तय कर लिया कि उन्हें मोदी के दुश्मन के रूप में नहीं दिखना है. वे नहीं चाहते कि दिल्ली के मतदाता फरवरी में जब वोट डालने जाएं तब उनके मन में यह दुविधा हो कि मोदी के पक्ष में वोट दें या उनके पक्ष में.


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उन्होंने मोदी से जंग से फिलहाल पूरी तरह किनारा कर लिया है. वे किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ना चाहते. जरा गौर कीजिए कि केंद्र ने कश्मीर में जो परिवर्तन किए और उसे केंद्रशासित क्षेत्र बना दिया, उन सबका उन्होंने कितनी जल्दी समर्थन कर दिया. ‘आप’ ने इसके खिलाफ शिकायत का एक शब्द नहीं बोला, बल्कि मोदी सरकार को बधाई और समर्थन दिया. यह और बात है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देना ‘आप’ की एक प्रमुख मांग रही है. अगर आप सियासत पर कोई फैसला सुनाना चाहते हैं तो आप इसे ढोंग कह सकते हैं. लेकिन व्यावहारिक नजरिए से इसे ‘स्मार्ट पॉलिटिक्स’ कहेंगे.

‘आप’ ने प्रचार की जोरदार मुहिम छेड़ दी है. यह पूरी तरह स्थानीय मसलों पर और इनके मामले में पार्टी की कार्रवाइयों पर केन्द्रित है. इसमें पहले की तरह कहीं यह शिकायत नहीं की गई है कि उसे काम करने नहीं दिया जा रहा है. स्कूलों से लेकर बिजली, पानी, हवा की शुद्धता, सीसीटीवी कैमरे, महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा, डेंगू, बुज़ुर्गों के लिए तीर्थयात्रा तक तमाम बातें शामिल हैं. नरम धार्मिकता (हिन्दुत्व नहीं) और गरम राष्ट्रवाद भी. माता-पिता को कंधे पर बैठाकर तीर्थ कराने वाले श्रवण कुमार की प्राचीन कथा भी पेश की जा रही है, तो स्कूलों के पाठ्यक्रम में देशभक्ति और करगिल के नायकों की कहानियां भी शामिल की गई हैं.

सीधी-सी बात यह है कि मई 2019 के बाद की ‘आप’ अगले चुनाव में मोदी, राष्ट्रवाद या धर्म को मुद्दा नहीं बनने देगी. वह यह जताने की पूरी कोशिश करेगी कि इन तीनों मुद्दों पर वह भाजपा से अलग रुख नहीं रखती. वह दिल्ली का अगला चुनाव किसी नगरपालिका या मेयर के चुनाव की तरह लड़ना चाहती है. इसका अर्थ यह भी है कि पार्टी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को फिलहाल के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. एक बार फिर इसे शानदार राजनीति की मिसाल माना जा सकता है.

2014 में प्रकाशित अपनी किताब ‘एंटीसिपेटिंग इंडिया’ में मैंने उम्मीद जाहिर की थी कि हमारी राजनीति के तीन प्रमुख पात्रों- मोदी, राहुल गांधी और केजरीवाल- में विकास होगा. मैंने लिखा : ‘मोदी नरम होंगे, राहुल अपनी झिझक तोड़ेंगे, और केजरीवाल को कुछ सत्तातंत्रीय सुकून हासिल होगा.’ पहले दोनों नेताओं को तो आप बेहतर जानते हैं. तीसरे के मामले में फिलहाल बात सच हुई दिख रही है.


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अगर केजरीवाल ने इसी राह पर चलते हुए दूसरी बार गद्दी हासिल कर ली, जिसकी संभावना फिलहाल तो दूर नज़र आती है. लेकिन, जिसे उनकी पहुंच से दूर भी नहीं कहा जा सकता, तो वे 2014 की उपरोक्त किताब में लिखी मेरी एक और बात सच साबित कर देंगे कि वे 1977 में इंदिरा गांधी को राय बरेली में हराने वाले राजनारायण की तरह न तो हास्यकार हैं और न विद्रोही हैं, बल्कि ‘लंबी रेस के घोड़े हैं.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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