सरकारी नौकरियों में इंटरव्यू के समय आरक्षित वर्गों (एसटी, एससी, ओबीसी) के कैंडिडेट के साथ भेदभाव का सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की बेंच ने 17 सितम्बर 2019 को एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है, जिससे इंटरव्यू में आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ होने वाला भेदभाव काफ़ी हद तक रुक सकता है. इस लेख का उद्देश्य ये समझाना है कि इस फैसले से आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ इंटरव्यू में होने वाला भेदभाव किस हद तक कम हो पाएगा. पूरे मसले को ठीक से समझने के लिए हमें संविधान में आरक्षण के प्रावधान और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ होने वाले भेदभाव के संरचनात्मक कारणों को भी समझना होगा.
भारत के संविधान में आरक्षण का प्रावधान
भारत का संविधान के अनुच्छेद-16(4) में ‘पिछड़े वर्गों’ को सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान है. इस अनुच्छेद में उल्लेखित ‘पिछड़े वर्ग’ का क्या मतलब है, इसको लेकर संविधान सभा में काफ़ी बहस हुई थी, जिसको सुलझाने के लिए संविधान में तीन और अनुच्छेद- 340, 341, और 342 जोड़े गए.
चूंकि आज़ादी के पहले भारत सरकार अधिनियम-1935 के तहत दो सामाजिक समूहों- अस्पृश्य जातियों और जनजातियों को पिछड़ा मानते हुए उन्हें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के तौर पर सूचीबद्ध कर दिया गया था, इसलिए इनको अनुच्छेद-341 और 342 में जगह दे दी गई.
लेकिन भारत में पिछड़ा वर्ग केवल इन्हीं दोनों सूचियों में शामिल जाति/सामाजिक समूह नहीं थे. इन दोनों सूचियों से बाहर भी कई समूह थे, जो कि पिछड़े थे. इस समस्या को सुलझाने के लिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में अनुच्छेद-340 जोड़ा जिसके तहत सरकार को ज़िम्मेदारी दी कि वह एक कमीशन बनाकर सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ की पहचान करेगी. इसके तहत काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग का गठन किया गया, जिनकी सिफ़रिशों के आधार पर ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ की पहचान हुई.
आरक्षित अभ्यर्थियों से इंटरव्यू में होने वाला भेदभाव
भारत का संविधान भले ही एससी, एसटी और ओबीसी के अभ्यर्थियों के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है, लेकिन यह कभी ठीक से लागू नहीं हो पाया. काफ़ी संघर्ष के बाद जब आरक्षण कुछ पदों/संस्थाओं पर लागू हुआ, तो लागू करने वालों ने यह पूरी कोशिश की कि इन केटेगरी के अभ्यर्थियों को इंटरव्यू में कम नम्बर देकर या तो बाहर कर दिया जाए, या फिर उनकी नियुक्ति केटेगरी के लिए आरक्षित सीटों पर ही हो.
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इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया है कि आरक्षित वर्ग का अभ्यर्थी अगर अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थी से ज़्यादा नम्बर पाता है, तो उसे अनारक्षित सीट पर नौकरी दी जानी चाहिए, बशर्ते कि आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार ने कोई अन्य विशेष छूट ना ली हो. सैद्धान्तिक तौर पर यह सही है कि आरक्षित वर्ग का अभ्यर्थी अनारक्षित सीट पर नियुक्त हो सकता है, लेकिन नौकरी और प्रवेश देने वाली संस्थाओं ने इंटरव्यू में कम नम्बर देकर उस सम्भावना को पूरी तरीक़े से नगण्य कर दिया.
केटेगरी के आधार पर इंटरव्यू से पक्षपात
यहां एक सवाल उठता है कि इंटरव्यू लेने वाले को कैसे पता होता है कि कैंडिडेट किस जाति का है? इसके पीछे एक कारण यह है कि भारत में रंग, रूप, आत्मविश्वास, सरनेम, पिता का सरनेम आदि से जाति का अंदाजा लगाने का चलन है. अगर उससे केटेगरी नहीं भी पता चलती है तो, तो उम्मीदवार की अप्रत्यक्ष रूप से जाति बताने का कार्य इंटरव्यू लेने वाला संस्थान खुद करता है. अनारक्षित और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए अलग-अलग इंटरव्यू आयोजित करके वह एक तरह से कटेगरी का खुलासा कर ही देता है.
अनारक्षित और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों का इंटरव्यू अलग-अलग लेने की व्यवस्था विश्वविद्यालयों से लेकर संघ लोकसेवा आयोग और राज्य लोकसेवा आयोगों तक में थी. कई जगहों पर आरटीआई के माध्यम से पता चला कि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को इंटरव्यू में काफ़ी कम नम्बर दिए गए, जबकि लिखित परीक्षा में उनके नम्बर काफ़ी ज़्यादा थे. ऐसे ही मामले में आरटीआई से प्राप्त सूचना के आधार पर पता चला था कि प्रगतिशील माने जाने वाले जेएनयू में एससी/एसटी के अभ्यर्थियों को एमफ़िल/पीएचडी की प्रवेश परीक्षा के अंतर्गत होने वाले वाइवा में शून्य, एक या फिर दो नम्बर दिए गए. इसी तरीक़े पता चला है कि संघ लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा की परीक्षा में भी आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को इंटरव्यू में काफ़ी कम नम्बर दिया जा रहा है. विदित हो कि संघ लोकसेवा आयोग भी अनारक्षित वर्ग और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों का इंटरव्यू अलग-अलग कराता है.
असंवैधानिक है अलग-अलग इंटरव्यू कराना
आरक्षित वर्ग और अनरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों का अलग-अलग इंटरव्यू कराना असंवैधानिक है, ऐसा निर्णय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की बेंच ने 17 सितम्बर 2019 को हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के एक मामले में सुनाया है. इसके साथ ही अपने इस निर्णय में इंदिरा साहनी के निर्णय में दी गयी व्यवस्था को उद्धृत करते हुए कहा है कि ‘हर प्रतिभागी ‘जनरल केटेगरी’ का कंडिडेट है,’ और किसी का भी सलेक्शन जनरल केटेगरी में हो सकता है. इसलिए केटेगरी के आधार पर अलग इंटरव्यू नहीं हो सकता. इसका मतलब है कि या तो इंटरव्यू रोल नम्बर के अनुसार करना होगा, या फिर इंटरव्यू देने जाने वालों का क्रमांक लकी ड्रॉ से निर्धारित करना पड़ेगा, या फिर नाम के अक्षर के अनुसार लिस्ट बनानी होगी.
एक साथ इंटरव्यू कराने का सकारात्मक प्रभाव
हर केटेगरी का एक साथ इंटरव्यू कराने से जाति के आधार पर कम नम्बर देने की प्रवृत्ति पर काफ़ी हद तक रोक लगेगी, लेकिन पूरी तरह से भेदभाव समाप्त हो जाएगा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. क्योंकि इंटरव्यू लेने वाले को जाति का पूर्वानुमान रंग, रूप, सरनेम आदि से होने की सम्भावना बनी रहेगी. लेकिन यह बहुत आसान नहीं रहेगा. इंटरव्यू में भेदभाव कम होने से आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के अनारक्षित सीटों पर चयन की सम्भावना बढ़ेगी.
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लेकिन, यहां ध्यान देने की बात है कि सिर्फ़ अनारक्षित वर्ग के कट ऑफ से ज़्यादा नम्बर लाने मात्र से आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार को अनारक्षित सीट पर नियुक्ति नहीं मिल जाती, बल्कि यह भी जरूरी है कि उस उम्मीदवार ने न्यूनतम योग्यता, उम्र सीमा, अटेम्पट आदि में छूट नहीं ली है.
इस बात को भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न निर्णयों में स्थापित किया है. शायद सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से निकली व्यवस्था की वजह से कई परीक्षाओं में एससी और ओबीसी का कट आफ सामान्य वर्ग से भी ज़्यादा जाने लगा है. एससी-एसटी-ओबीसी को उम्र और अटैंप्ट में मिलने वाली छूट अब इन वर्गों के खिलाफ काम करने लगी है.
फिलहाल महत्वपूर्ण यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों की इंटरव्यू में पक्षपात की शिकायतों पर विराम लग सकता है.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)