प्रतिष्ठित फिल्म संगीत इतिहासकार, रिकॉर्ड संग्रहकर्ता और पुराने हिंदी फिल्म संगीत की बारीक समझ के साथ मनोरंजक कार्यक्रम पेश करने वाले नलिन शाह की मृत्यु मुंबई में 21 जुलाई 2022 हो गई. ऐसे वक्त में जब फिल्मों और फिल्म संगीत के बारे में ढे़रों अटकलों और अर्धसत्यों की भरमार थी, शाह ने बड़ी लगन से कलाकारों से मिलकर हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास को इकट्ठा किया और प्रामाणिक सूचनाओं के साथ वस्तुनिष्ठ लेख लिखे.उन्होंने हिंदी फिल्म संगीत के कई दिग्गजों से करीबी रिश्ते बनाए.
कुछेक नाम लूं तो संगीत निर्देशक नाशाद अली, अनिल विश्वास, सी. रामचंद्र, ओ.पी. नैयर, एस.एन. त्रिपाठी; गायकों तलत महमूद, जी.एम. दुर्रानी, राजकुमारी दुबे, जोहराबाई अंबालेवाली और गीतकार प्रदीप, कमर जलालाबादी वगैरह. उनमें कई गपशप या पुराने साथियों से मुलाकात के लिए उनके घर पहुंचे थे. लेकिन उन्होंने कभी अपनी नजदीकी को तथ्यों पर असर नहीं डालने दिया. इस मायने में वे उस दौर में फैक्ट-चेकर थे, जब यह शब्द लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ा था.
न काहू से दोस्ती, न दुश्मनी वाला फैक्ट-चेकर
नलिन साह की सच्चाई के प्रति प्रतिबद्धता की एक प्रचलित कहानी संगीत निर्देशक नाशाद अली से जुड़ी है. नाशादका दावा था कि शाहजहां (1946) फिल्म के लिए उनकी संगीत रचना जब दिल ही टूट गया को दिग्गज गायक के.एल. सहगल की ‘इच्छा के मुताबिक’ उनकी अंतिम यात्रा में बजाया गया था. यह दावा चल पड़ा और हर किसी की जुबान पर चढ़ गया, क्योंकि भला नाशाद की हैसियत के संगीतकार को कौन चुनौती देता. लेकिन शाह को उनसे बेहद करीबी रिश्ते के बावजूद इस दावे में शक-शुबहा था. उन्होंने मशहूर पुरी भाइयों मदन और अमरीश के बड़े भाई चमन पुरी से बात की. पुरी का संबंध सहगल से था और वे अंतिम यात्रा में मोजूद थे. उन्हें याद नहीं था कि अंतिम यात्रा या उसके बाद कोई गाना बजाया गया था.
शाह में यह चतुराई और कौशल था कि वे महान कलाकारों के दावों को समय-समय पर बिना उन्हें नाखुश या बेकद्री किए सुधार देते थे. मुझे 1990 के दशक में उनके साथ नाशाद के बंगले में उनसे मुलाकात का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जब मैं गुजरात के छोटे शहर का महज एक संगीत-प्रेमी था. मैंने उनसे पूछा कि वे क्यों कुछ सवाल बार-बार उठाते हैं. उनका दो-टूक जवाब था कि कई कलाकार जानबूझकर झूठ नहीं बोलते, बल्कि भ्रामक याददाश्त से कह जाते हैं. उन्होंने मुझसे कहा, ‘हर किसी को अपनी बात को अलग-अलग एंगल से तस्दीक करना चाहिए, एक ही सवाल अलग-अलग ढंग से पूछना चाहिए. फिर भी तथ्यों में मिथ के घालमेल की संभावना बनी रहती है.’
जब संगीत कंपनी एचएमवी ने टी-सीरिज के गुलशन कुमार पर पाइरेसी का आरोप लगाया, तो शाह ने अपने स्तंभ में लिखा कि एचएमवी ने भी 1930 के दशक नेशनलिस्ट रिकॉर्ड लेबल यंग इंडिया से होड़ में पाइरेसी की कोशिशें की थी. उन्होंने यह स्थापित करके इतिहास दुरुस्त करना चाहा कि किसी प्रतिस्पर्धी कंपनी के मशहूर गीत को दूसरे गायक से गवाने के वर्सन सॉन्ग का रिवाज खुद एचएमवी ने शुरू किया था. उस लेख से खुश होकर गुलशन कुमार ने नोएडा में प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाया और शाह के लेख की प्रतियां बांटीं.
उनके सांताकू्रज पश्चिम के फ्लैट में एक बार मैंने उनसे पूछा कि संगीत निर्देशक शौकत देहलवी ‘नाशाद’ और शौकत हैदरी क्या एक ही आदमी हैं. उन्हें भी पक्का पता नहीं था. उन्होंने फौरन गायिका मुबारक बेगम को फोन किया, जिन्होंने दोनों संगीतकारों के लिए गाना गाया था. उन्होंने बताया कि हां, वे एक ही हैं. यह उनका आम तरीका था. इधर-उधर की नहीं, बल्कि जहां तक संभव हो, मूल स्रोत से जानकारी दुरुस्त की जाए.
वे साफगोई पसंद थे और कभी खुलकर बोलने से नहीं हिचकते थे. एक बार मैं शाह के साथ कवि प्रदीप से मिलने गया. मैं उनके ऑटोग्राफ के लिए किस्मत और बंधन का एक एलपी साथ ले गया था, लेकिन उन्होंने देखा कि उस पर उनका नाम नहीं है तो दस्तखत करने से इनकार कर दिया (किसी वजह से एचएमवी ने उनका नाम छोड़ दिया था). इस पर शाह ने हौले से उन्हें झिडक़ा, ‘यह आदमी क्या कर सकता है? क्या उसने कवर बनाया है? आप उस पर दस्तखत करो.’ प्रदीप कुमार ने वही किया. ऐसे बेबाक थे शाह.
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एलआइसी अफसर से मिड-डे के स्तंभकार
पश्चिम महाराष्ट्र के छोटे-से गांव चिंचणी में 1934 में जन्मे नलिन शाह एलआइसी में डेवलपमेंट अफसर और वेस्ट जोन डेवलपमेंट अफसर्स यूनियन के नेता थे. उन्होंने फिल्म संगीत के बारे में 1971 में अंग्रेजी में लिखना शुरू किया और बड़ी फिल्मी पत्रिकाओं और कुछ अखबारों में लिखा. उन्होंने फिल्मफेयर में भूले-बिसरे महान संगीतकारों पर एक शृंखला लिखी. मुंबई केे मिड-डे में उनका हर पखवाड़े स्तंभ काफी लोकप्रिय हुआ था.
वे अपने लेखन में हास्य-व्यंग्य का पुट देने से भी नहीं घबराते थे. एक बार, एक वरिष्ठ संगीतकार को लता मंगेशकर अवार्ड देने की घोषणा की गई, जिन्होंने लता के शुरुआती करियर को बनाने में मदद की थी. उस समय मैं यूं ही कह गया कि यह तो महात्मा गांधी को मोरारजी देसाई अवार्ड देने जैसा है. शाह को यह बात इतनी पसंद आई कि उन्होंने अपने स्तंभ में इसका जिक्र कर दिया.
वे पंडित रामनारायण और उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खान जैसे शास्त्रीय संगीतकारों के भी करीब थे. यंग इंडिया रिकॉर्ड कंपनी के पुराने मालिक हेमराज बेटाई ने जब ज्योति नाम से एक नई रिकॉर्ड कंपनी शुरू करने की सोची तो एक दोस्त ने नलिन शाह को पीआर पर्सन के रूप में उसमें जॉइन करने की सलाह दी. उनका काम अपने रसूख के जरिए कलाकारों को नई, अनजानी कंपनी के लिए प्रदर्शन के खातिर तैयार करना था. अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल शाह ने अपने करीबी दोस्त सितार वादक उस्ताद जाफर खान को रिकॉर्ड बनाने के लिए तैयार कर लिया. हालंकि कंपनी के मालिक ने तय किया कि वे सामान्य के बदले लॉन्ग प्ले रिकॉर्ड से बाजार में हलचल मचाना चाहते हैं. शाह मानते थे कि यह संभव नहीं. वे सही भी थे. कंपनी उठ नहीं सकी और शाह एलआइसी में बने रहे.
1990 के दशक में अपने एक चेन्नै दौरे में वे इलैयाराजा से मिले. वे शाह के हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास की बारीक जानकारियों, 1940 के दशक में न्यू थिएटर की फिल्मों में भारतीय तथा पश्चिमी संगीत वाद्यों के मिश्रण और पंजाबी असर की सूचनाओं से इस कदर मंत्रमुग्ध हुए कि उन्होंने अपना लिखा एक म्यूज़िकल स्कोर पेश किया.
मुझे वह दिन भी याद है, जब हम शाह के घर पर दिग्गज गायिका राजकुमारी से मिले थे. वे अपने गाए गानों के गीत चाहती थीं. शाह ने धीमी गति में रिकॉर्ड बजाया, मैंने शब्दों को कागज पर उतार लिया. इस तरह हम इंटरनेट के दौर के पहले गीतों को ट्रांसक्राइव किया करते थे.
मंच पर कश्मीरी टीेपी, पठानी जैकेट
नलिन शाह ने पुराने हिंदी गानों के मंचीय क्राय्रक्रमों के फॉर्मेट को भी बदला. अपनी खास कश्मीरी टोपी और जैकेट के साथ पठानी सूट के लिवास में धाराप्रवाह उर्दू में भूले-बिसरे कलाकारों की याद के साथ फिल्म इतिहास पर बोलते और पुराने गीतों को पेश करते थे. उन्होंने अहमदाबाद के ग्रामोफोन क्लब के लिए यादगार कार्यक्रम की मेजबानी की थी. बहुत-से गुजराती दर्शकों ने उनके लिवास और धाराप्रवाह उर्दू से उन्हें कश्मीरी समझ लिया. अपने मंचीय कार्यक्रमों से उन्होंने अपने प्रशंसकों का व्यापक दायरा बना लिया था. दिग्गज गायक सहगल पर उनकी जानकारी तो लाजवाब थी. वे सहगल के परिवार वालों और उनके ड्राइवर पॉल से भी मिल चुके थे.
शाह ने दूरदर्शन और विविध भारती के लिए भी कई प्रोग्राम पेश किए और सिद्धार्थ काक की शृंखला गाता जाए बंजारा की पटकथा भी तैयार की. लेकिन अजीब बात है कि उनकी रुचि किताब लिखने में नहीं थी. हमलोगों के बार-बार कहने पर उन्होंने अपने मिड-डे के लेखों का संपादन किया और 2016 में मेलोडिज, मूवीज ऐंड मेमोरिज शीर्षक से छपवाया. यही उनकी पहली और इकलौती किताब है, जिसमें कई विरली तस्वीरें और अनछपे फोटो हैं. दुर्भाग्य से, हिंदी फिल्म संगीत के बहुत सारे कहानियां उनके साथ विदा हो गए.
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(उर्विश कोठारी अहमदाबाद स्थित एक वरिष्ठ स्तंभकार और लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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