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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतरवीश कुमार की पत्रकारिता हमारे वक्त में घायल हो रहे सच का आईना है, पर सच इतना अकेला क्यों है

रवीश कुमार की पत्रकारिता हमारे वक्त में घायल हो रहे सच का आईना है, पर सच इतना अकेला क्यों है

आदर्शवादी नौजवान, पत्रकार या ज़मीन से जुड़कर काम करने वाले एक्टिविस्ट्स से भेंट होती है तो वे रवीश का ज़िक्र किसी ‘हीरो’ के रुप में करते हैं और रवीश का नायकत्व उनके मन में कुछ इस कदर बसा है कि खुद रवीश को पता चले तो वे भी इस बात से डर जायें.

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सुख के साथ दुख और वाह के साथ आह गुंथी-बिंधी होती है. ऐसा ही हुआ रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार लेने गये रवीश कुमार की स्पीच सुनकर. उनकी स्पीच पर मुझे गर्व है तो कुछ मलाल भी. गर्व इस कारण से नहीं कि एक देसी आदमी को वैश्विक ख्याति वाली अवार्ड मिला है (सच कहूं तो मैं इस अवार्ड को ज्यादा भाव नहीं देता. यों मैगसेसे फाउंडेशन ने अभी तक अवार्ड के लिए शख्शियतों को चुनने में अपना रिकार्ड बड़ा साफ-सुथरा और चमकदार रखा है) बल्कि गर्व की वजह रही ये सोच कि रवीश कुमार अपनी तरह के गजब के देसी आदमी हैं और जहां तक मलाल का सवाल है, यह उनकी कही गई बातों पर नहीं. बल्कि उनके कहने में जो कुछ छूट गया, उन बातों को सोचकर हुआ.

‘हिंदी मीडियम-टाइप’

रवीश ने जब ज्ञान की दुनिया में गैर-बराबरी की बात उठायी और इस गैर-बराबरी को झेल रहे छोटे कस्बों तथा गांवों का सवाल उठाया तो मेरा दिमाग पीछे दौड़कर 1994-95 के वक्त में जा पहुंचा. उस वक्त मैं चंडीगढ़ से दिल्ली बस आया ही था और दिल्ली विश्वविद्यालय वाले इलाके में किराये के एक फ्लैट में रह रहा था. इसी फ्लैट में मेरी मुलाकात कुछ तेजस्वी और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों से हुई. इनमें ज्यादातर बीए-एमए के छात्र थे, अधिकतर बिहार के छोटे कस्बों और गांव से आये थे और हिंदी में वैसा ही जर्नल निकालना चाहते थे जैसा कि अंग्रेज़ी में ईपीडब्ल्यू निकलता है. माने कि ‘हिंदी का ईपीडब्ल्यू’. शरीर से दुबले-पतले और सूरत से तेज जान पड़ते रवीश कुमार उन्हीं विद्यार्थियों में एक थे.

छात्रों की ये टोली मेरे फ्लैट पर आ जुटती. हिन्दी की हालत, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की दशा-दिशा और अंग्रेज़ीदां बुद्धिजीवियों की रीति-नीति को लेकर हमारे बीच लंबी बहस चलती. हमलोग तब इसे ‘ज्ञान की दुनिया में गैर-बराबरी’ का नाम नहीं देते थे. लेकिन भाषायी और सांस्कृतिक अलगाव के एकदम ही परले सिरे पर छूट जाने के बोध ने इस टोली को एकजुट किया था. जमात में तकरीबन सभी छात्र वैसे ही थे, जिन्हें दिल्ली में ‘हिन्दी मीडियम टाइप’ कहा जायेगा. मैं भी ऐसा ही था, अन्तर बस इतना भर था कि इन छात्रों से तनिक सीनियर और दिल्ली की चमकऊआ अंग्रेज़ीदां जमात में मुझे तनिक चिन्हा-जाना लगा था.


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ज़िन्दगी मुझे रवीश की ज़िन्दगी से जोड़ती रही, यों इस जुड़ाव पर अंतरंगता का कोई रंग नहीं चढ़ा था. मैंने उन्हें बीए-एमए करते देखा, तमाम बाधाओं से जूझते देखा, रिसर्चर से रिपोर्टर बनते देखा और फिर रिपोर्टर से एंकर बनते भी. हम जुड़े रहे, मेरी और रवीश की ‘गृहस्वामिनी’(दोनों ही दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं) भी आपस में जुड़ी रहीं और ठीक इसी तरह हमारे बच्चे भी जो एक ही स्कूल में पढ़ते हैं. तो, ये बातें हमें इतना नज़दीक तो लाती ही है कि मैं और रवीश अपने को एक-दूसरे का दोस्त कह सकें. लेकिन, ये दोस्ती कभी भी इतनी गाढ़ी नहीं रही कि हमारे पेशेवर भूमिकाओं पर असर डाल सके. मैंने अपने घर पर टेलीविज़न नहीं रखा सो मैं ये दावा नहीं कर सकता कि मैं रवीश के कार्यक्रमों को टकटकी बांधकर देखने वाले दर्शकों में हूं. लेकिन, मेरी नज़र में ये हमेशा रहा कि रवीश क्या कर रहे हैं, टेलीविज़न को कैसा बरत रहे हैं और ये बातें बड़ी अवार्ड समारोह में रवीश की प्रशस्ति में कही गई बातों में बड़े बेहतर ढंग से रखी भी गईं.

पेशकश से ज्यादा तथ्य का महत्व

अवार्ड समारोह के मंच पर गर्व से तनकर खड़े रवीश को किंचित असहजता के साथ अंग्रेज़ी बोलते हुए देखकर मुझे ये बातें याद आती चली गईं. मुझे लगता है कि हिंदी का रुतबा भी बढ़ा.  मुझे याद आये राजेन्द्र माथुर, रघुवीर सहाय और प्रभाष जोशी जिन्होंने आजादी के बाद के वक्त में हिन्दी पत्रकारिता को शक्ल दी. मुझे याद आये सुरेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ ‘एसपी’ जिन्होंने दूरदर्शन पर ‘आजतक’ के नाम से 20 मिनट का बुलेटिन शुरु किया और इस तरह आज़ादी के बाद के सालों में हिन्दी न्यूज चैनल के अगुआ बने (एसपी का मुझपर विशेष स्नेह था और टेलीविज़न की दुनिया में मुझे खींच लाने का एकलौता श्रेय उन्हीं को है. मेरे साथ उनका ये सिलसिला 1997 यानि उनके देहावसान के साल तक कायम रहा). एसपी ने अपने जीवन का राग बना रखा था कि मीडिया के हिसाब से हिन्दी को अव्वल दर्जे का बनाना है ना कि उसे अंग्रेज़ी की छोटी बहन बनाकर रखना है जैसा कि उस वक्त चलन था. हिन्दी पत्रकारिता के तकरीबन सभी शीर्ष नाम उसी टोली के हैं, जिन्हें एसपी ने ‘आजतक’ में नौकरी पर रखा. रवीश इन लोगों मे नहीं. लेकिन मुझे लगता है कि एसपी होते तो उनके बारे में कहते- ‘मोतिहारी का लड़का है’. ऐसा कहते हुए एसपी की आंखों में एक जानी-पहचानी चमक होती.

अवार्ड समारोह में रवीश के कार्यक्रमों के कुछ वीडियो क्लिप दिखाये गये और इन वीडियो क्लिप्स से एक अलहदा सी बात साबित हुई जिसपर एसपी का गहरा यकीन था कि टेलीविज़न पर आखिरकार जीत दिखावे और पहिरावे की नहीं बल्कि दर्शक के आगे परोसी जा रही असली चीज़ की होती है. रवीश की लोकप्रियता इसका जीवंत प्रमाण है. रवीश अपने प्राइम टाइम की शुरुआत एक लंबे एकालाप से करते हैं और इस एकलाप को जब मैंने पहली बार सुना था तो मेरे मन में रवीश को लेकर तनिक आशंका के भाव जागे थे. कोई एकलौता शख्स टेलीविज़न के पर्दे पर चंद सेकेंड्स से ज़्यादा बोलता नज़र आये तो समझिए वो टेलीविज़न के व्याकरण का उल्लंघन कर रहा है. लेकिन, रवीश ने मेरी इस मान्यता को गलत साबित किया. तथ्यों और आंकड़ों से भरे रवीश के 3-5 मिनट तक चलने वाले एकालाप को दर्शक पसंद करते हैं. ये एकालाप तीखे व्यंग्य और गहरी विडंबनाओं को उजागर करने वाले तर्कों से भरा होता है और इसमें होती है सत्ता से सीधे आंख मिलाकर सवाल पूछने का साहस जो रवीश की पत्रकारिता को हिन्दी मीडिया के एक बड़े हिस्से में हो रही पत्रकारिता से एकदम अलग बनाता है. रवीश के शो की कामयाबी ने साबित किया है कि टेलीविज़न के पर्दे पर अच्छा माल परोसने के लिए किसी व्याकरण से बंधकर चलना ज़रुरी नहीं, अच्छी चीज़ें अपना रुप-रंग खुद ही तय कर लेती हैं.

रवीश ने अपने लाखों चाहने वालों का धन्यवाद किया तो मेरी नज़र में चेहरों का वो समंदर एकबारगी तैर उठा. सच कहूं तो मुझे नहीं पता कि रवीश के शो कि टीआरपी क्या है और ना ही मैं इसकी कोई खास फिक्र करता हूं. मैं बस इतना भर जानता हूं कि जब भी मेरा दिल्ली से बाहर जाना होता है और आदर्शवादी मन-मिजाज़ के नौजवानों, पेशे में नाम कमाने की चाह रखने वाले पत्रकारों या ज़मीन से जुड़कर काम करने वाले एक्टिविस्ट्स से भेंट होती है तो वे रवीश का ज़िक्र किसी ‘हीरो’ के रुप में करते हैं और रवीश का नायकत्व उनके मन में कुछ इस कदर बसा है कि खुद रवीश को पता चले तो वे भी इस बात से डर जायें. आदर्शवादी नौजवानों, पत्रकारों और एक्टिविस्ट्स की ये टोली मुझसे कहती है ‘सर, इस आदमी में सच बोलने की हिम्मत है.’ रवीश को लेकर दिल्ली से बाहर सबसे ज्यादा सुनायी देने वाला स्वर यही है. मैं जानता हूं कि ऐसा कहना हिन्दी तथा कई अन्य भाषा के पत्रकारों के प्रति गहरा अन्याय है, क्योंकि वे भी समान रुप से साहसी और सच बोलने वाले हैं लेकिन उन्हें रवीश कुमार की तरह वैसा मंच और समर्थन हासिल नहीं जैसा कि रवीश को एनडीटीवी में. और, मुझे खुशी है कि रवीश ने अपनी स्पीच में ये बात रखी. फिर भी, रवीश कुमार की किसी महानायक की सी छवि हमें आश्वस्त करती है कि पोस्ट-ट्रूथ यानि सत्याभास का युग जैसी कोई चीज़ नहीं होती (यों सत्याभासी मीडिया और सत्याभासी राजनीति का समय आज जारी है लेकिन सत्याभास के युग से इन्हें अलग करके देखने और समझने की ज़रुरत है). हक की बात ये है कि लोगों में सच जानने की ललक बनी हुई है.

भारतीय मीडिया में अंधेरा है

लेकिन रवीश को लेकर उम्मीद और गर्व के जो भाव मेरे मन में जागे उनमें कुछ मलाल भी मिला था. जब रवीश ने कहा कि ‘लोकतंत्र तभी ज़िन्दा रह सकता है जब समाचार सच्चे हों’ तो इस बात को सुनने वाला हर व्यक्ति ये जान रहा था कि ये शब्द हमारे लोकतंत्र के दोष पर अंगुली रखने के मकसद से कहे गये हैं. इस साल हमारा देश ग्लोबल प्रेस फ्रीडम के सूचकांक पर 138वें दर्जे से खिसकर 140वें दर्जे पर पहुंचा है. रवीश ने कश्मीर को लेकर हो रही रिपोर्टिंग की बात कही लेकिन बात सिर्फ कश्मीर की रिपोर्टिंग तक सीमित नहीं. चौतरफा हालत कुछ वैसी ही है. बस हफ्ते भर पहले की ही बात है, मिड डे मील की सच्चाई सामने लाने की कोशिश करने वाले एक पत्रकार पर एफआईआर दर्ज हुआ है. रवीश ने अवार्ड समारोह की अपनी स्पीच में समझौता ना करने वाले पत्रकारों की हालत का ज़िक्र किया जिन पर नौकरी से निकाल दिये जाने का खतरा मंडरा रहा है. बीते दस दिनों में कई पत्रकारों को नौकरी से निकाला गया है: अजित अंजुम और स्मिता शर्मा ने टीवी9 को छोड़ा है, फेय डी सूज़ा को मिरर नाऊ के मुख्य एंकर की गद्दी छोड़नी पड़ी है और नितिन सेठी बिज़नेस स्टैन्डर्ड से बाहर हुए हैं. इन पत्रकारों के नौकरी से बाहर होने को लेकर किसी ने मीडिया हाऊस के मालिक या सरकार पर अंगुली नहीं उठायी. एक ऐसे वक्त में जब हम ईमानदारी और सत्यनिष्ठा की एक नज़ीर के रुप में रवीश कुमार को लेकर जश्न मना रहे हैं, क्या हम ठीक उसी वक्त में रवीश कुमार के चारो तरफ भारतीय मीडिया में जो अंधेरगर्दी मची है, उसे लेकर कोई टिप्पणी कर रहे हैं?

मुझे दिखा कि वक्त से लड़ाई मोल लेने से पैदा थकान रवीश के चेहरे पर है. अवार्ड की घोषणा के बाद कुछ पत्रकारों ने रवीश के काम मे दोष निकालने के जतन किये, छोटी-छोटी कमियों को ढूंढ़ने-गिनाने का काम किया. लेकिन हाल के सालों में रवीश की जिस सुनियोजित तरीके से ट्रोलिंग हुई है, उन्हें गाली और धमकी का निशाना बनाया गया है उसके आगे पत्रकार साथियों का रवीश में दोष गिनाने का ये काम कुछ भी नहीं. आखिर को रवीश के मुंह से एक मार्मिक बात निकली कि सारी लड़ाइयां जीतने के मकसद से नहीं लड़ी जातीं. कुछ लड़ाइयां ये जताने के भी लड़ाई जाती हैं कि कोई है जो अभी लड़ रहा है, कि समर अभी शेष है, समाप्त नहीं हुआ. निराशा का जो भाव मैंने रवीश में हाल-फिलहाल नोट किया है, क्या वो रवीश की इस बात से झांकती नज़र आती है आपको? मुझे रवीश से ये बात पूछनी है.


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रवीश कुमार की पत्रकारिता हमारे वक्त में घायल हो रहे सच का आईना है. रवीश की पत्रकारिता आपसे कहती है कि सच हरचंद मायने रखता है, वो कल भी मायने रखता था, आज भी मायने रखता है और आगे के वक्तों में भी सच ही मायने रखेगा. रवीश की पत्रकारिता आपको एक उकसावा है ये पूछने का कि क्या सच को इतना अकेला और निहत्था हो जाना था?

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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