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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतऐसे ‘दोस्तों’ के रहते हिन्दी को दुश्मनों की क्या जरुरत

ऐसे ‘दोस्तों’ के रहते हिन्दी को दुश्मनों की क्या जरुरत

एक प्रेक्षक ने ठीक ही लिखा है कि ‘किच्चा ने जहां सही अर्थों में कलाकार होने का परिचय दिया और सभी भाषाओं के सम्मान की बात कही, वहीं अजय देवगन भाषाई राजनीति का मोहरा बनते नजर आए.

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अपने देश में हिन्दी की दशा या दुर्दशा पर बात करने के लिए आम तौर पर साल का एक दिन तय है-14 सितम्बर. दरअसल, देश को आजादी मिलने के दो साल बाद 1949 में 14 सितबंर को ही संविधान सभा में एक मत के बहुमत से हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया था और वर्धा की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अनुरोध पर 1953 से हर साल इस दिन को ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा.

शुरू में इसका उद्देश्य खासकर उन क्षेत्रों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार और उन्नयन की गतिविधियों को प्रोत्साहित करना और उनके पक्ष में माहौल बनाना था. जो तब तक उसकी पहुंच की परिधि में नहीं थे. लेकिन अब हिन्दी दिवस एक ऐसा दिन हो गया है, जब ‘भूली-बिसरी’ हिन्दी को याद किया जाता है, उसके ‘पिछड़ेपन’ पर आंसू बहाये जाते हैं, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान और चिन्तन के बजाय, विज्ञापन व बाजार की ही भाषा होकर रह जाने को लेकर चिन्ताएं जताई जाती हैं, प्रचार-प्रसार के प्रति समर्पण की झूठी-सच्ची कसमें खाई जाती हैं, सरकारी दफ्तरों में हिन्दी सप्ताह, पखवारे या माह वगैरह मनाये जाते हैं और अगले हिन्दी दिवस तक के लिए बात खत्म मान ली जाती है.

यही कारण है कि अब हिन्दी दिवस को इस अर्थ में भी लिया जाने लगा है कि हिन्दी के हिस्से तो बस यही एक दिन है और इस दिन भी इस बाबत गम्भीर चिन्तन-मनन नहीं ही होता कि उसके उन्नयन की राह के कांटे कैसे बुहारे जा सकते हैं और उसे उन अहमन्यतावादियों की तिकड़मों से मुक्त कैसे कराया जा सकता है जो खुद को उसका स्वयंभू प्रतिनिधि करार देकर उसके नाम पर अपना हित साधते व तमाम अंधताओं व पोंगापंथों की ओर ले जाकर उसकी राह के कांटों को और नुकीला करते रहते हैं.

‘एक राष्ट्र, एक भाषा’

क्या आश्चर्य कि अब हिन्दी पर कोई भी चर्चा विवादों के रूप में ही सामने आती है. इन विवादों के कोढ़ में तब खाज हो जाता है, जब कोई सत्ताधीश अहमन्यतावादियों को खुश करने के लिए हिन्दी के वृहत्तर हितों को दरकिनार कर कोई ऐसी सस्ती लोकप्रियता हासिल कराने वाली घोषणा कर देता है, जिससे गैरहिन्दीभाषियों में घर कर गई यह धारणा और मजबूत होने लगती है कि हिन्दी राज्याश्रय का लाभ उठाकर अंग्रेजी की ही तरह साम्राज्यवादी हो गई है और अपने प्रभुत्व से उनकी भाषाओं को बेदखल कर उनकी जगह हथियाना चाहती है.

ऐसी घोषणा की एक मिसाल केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा गत सात अप्रैल को संसदीय राजभाषा समिति की बैठक में दिया गया भाषण भी है, जिसमें उन्होंने कहा कि देश के अलग अलग राज्यों के लोगों को आपस में हिन्दी में बात करनी चाहिए तो अहिन्दी भाषी राज्यों में उसे उनके 2019 के ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ वाले भाषण से जोड़कर देखा जाने लगा जिसे देश के बहुलवादी स्वरूप के विरुद्ध माना गया था.


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अभी यह सब चल ही रहा था कि फिल्म अभिनेता अजय देवगन के ‘हिन्दी प्रेम’ ने ऐसा उबाल मारा कि उन्होंने दक्षिण भारतीय अभिनेता किच्चा सुदीप से हिन्दी को राष्ट्रभाषा मनवाने को लेकर बेतुकी बहस शुरू कर दी और उसमें चाहे-अनचाहे कई और महानुभाव भी कूद पड़े हैं, पहले तो किच्चा के एक कथन से चिढ़े हुए से अजय देवगन ने उनसे यह अजीब-सा सवाल कर डाला कि ‘अगर हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है तो आप अपनी मातृभाषा की फिल्मों को हिन्दी में डब करके क्यों रिलीज करते हैं?’ फिर खुद ही फैसला भी सुना डाला कि ‘हिंदी हमारी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा थी, है और हमेशा रहेगी. जन गण मन.’

क्या पता अजय देवगन को अब तक किसी ने बताया या नहीं कि उनका यह ‘सवाल’ और ‘फैसला’ किच्चा द्वारा की गई इस शिकायत का जवाब नहीं है कि ‘पैन इंडिया क्या है और हम साउथ से आते हैं तो हमें पैन इंडिया क्यों कह दिया जाता है?’ साफ कहें तो देश के दक्षिणी राज्यों के लोगों की ऐसी शिकायतों के प्रति आक्रामक रुख ही आजादी के बाद से अब तक हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाने के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा रहा है. निस्संदेह, अजय देवगन ने उसका हिस्सा बनकर यही सिद्ध किया है कि ऐसे समर्थकों के रहते हिन्दी को भला दुश्मनों की क्या दरकार?

हिन्दी के सच्चे हितचिन्तक तो वे तब कहलाते, जब किच्चा के इस ट्वीट का कि ‘आपने जो हिंदी में लिखा, मैं उसे समझ सकता हूं. ऐसा इसलिए क्योंकि हम सभी हिंदी का सम्मान करते हैं, उससे प्रेम करते हैं और हमने इसे सीखा. कृपया बुरा न मानें…लेकिन मैं यह सोच रहा था कि अगर मैं अपनी प्रतिक्रिया कन्नड़ में लिखता तो इस पर क्या होता…!! क्या हमारा भी वास्ता भारत से नहीं है सर?’ यह कहकर जवाब दे सकते कि ‘हां, हम हिन्दी वालों को भी देश की सभी भाषाओं से प्यार है.’ लेकिन कैसे दे सकते? हिन्दी क्षेत्रों में गैरहिन्दी भारतीय भाषाओं के पठन-पाठन का हाल यों ही थोड़े बुरा है!

हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है

एक प्रेक्षक ने ठीक ही लिखा है कि ‘किच्चा ने जहां सही अर्थों में कलाकार होने का परिचय दिया और सभी भाषाओं के सम्मान की बात कही, वहीं अजय देवगन भाषाई राजनीति का मोहरा बनते नजर आए. नामालूम उन्हें किनकी नजरों में अपने अंक बढ़वाने हैं या राष्ट्रवादी कलाकार होने का ठप्पा और गहरा करवाना है. लेकिन राष्ट्रवाद उनके भीतर इतने गहरे तक पैठा है, तो उन्हें यह तो पता होना ही चाहिए कि एक धारणा के तहत बार-बार कह भले ही दिया जाता है कि हिंदी राष्ट्रभाषा है, वास्तव में वह है नहीं. कर्नाटक के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों सिद्धारमैया और एचडी कुमारस्वामी ने भी यही कहा है.’

इस सिलसिले में फिल्म निर्देशक राम गोपाल वर्मा द्वारा सामने लाया गया दूसरा पहलू भी कुछ कम चिन्तनीय नहीं है. उनकी मानें तो इस सारी बहस के पीछे उत्तर भारत के सितारों द्वारा दक्षिण के सितारों से असुरक्षा व ईष्र्या महसूस करना है, क्योंकि एक कन्नड फिल्म केजीएफ-2 ने बॉक्स ऑफिस पर पहले दिन 50 करोड़ रुपये से अभूतपूर्व शुरुआत की और बॉलीवुड व सैंडलवुड (दक्षिण भारतीय फिल्मों) के बीच युद्ध जैसी स्थिति है.

ऐसा है तो एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या हिन्दी को इस युद्ध जैसी स्थिति का हथियार बनना या बनाया जाना चाहिए? उसके निकट इस हथियार बनने का हासिल क्या है? क्या राष्ट्रभाषा या राजभाषा बनने से उसके उत्थान में किंचित भी मदद मिली है? फिर वरिष्ठ साहित्यकार नरेश सक्सेना क्यों कहते हैं कि उसका भला इसी में है कि उसको फौरन राजभाषा पद से हटा दिया जाये? क्यों पूछते हैं वे कि आखिर अब तक क्या हासिल क्या कर पाई है वह राजभाषा बनकर? ‘एक तो उसका यह पद हाथी के दांतों जैसा है, जो खाने के और होते हैं, दिखाने के और. दूसरे, इस दिखावे की बिना पर वह अन्य भारतीय भाषाओं की घृणा, दूसरे शब्दों में कहें तो सौतियाडाह, झेलती रहने को अभिशप्त हो गई है. उनके साथ समतल पर नहीं चल पा रही.

इसी क्रम में नरेश सक्सेना आगे कहते हैं, ‘मैं पूछता हूं कि हिन्दी राजभाषा न रहे, जो वह वास्तव में अभी बन भी नहीं पायी है, तो किसी भारतीय भाषा को उसके कथित साम्राज्यवाद का भय क्यों सतायेगा? इसका प्रतिप्रश्न यह है कि किसी भी अन्य भाषा को राजभाषा या राष्ट्रभाषा बना दिया जाये, हिंदी से क्या छिन जायेगा, जब इस बिना पर उसे कभी कुछ मिला ही नहीं? वह बिना राजभाषा पद के भी अपना काम चला लेगी, लेकिन ज्ञान की भाषा बने बिना तो न उसका निस्तार होने वाला है, न उसके समाज का.’

लेकिन सवाल है कि हिन्दी ज्ञान की भाषा बने कैसे, जब उन क्षेत्रों में भी शिक्षा के माध्यम के तौर पर उसका दर्जा अंग्रेजी के बाद दूसरा होता जा रहा है, जिन्हें हिन्दीभाषी माना जाता है? अगर हिन्दी के राष्ट्रभाषा या राजभाषा होने को लेकर बहस के पीछे ऐसे चिन्ताजनक सवालों से मुंह छिपाने की नीयत है, जो है ही, तो इस बहस में मुब्तिला महानुभावों से यही कहा जा सकता है कि किसी भाषा के लिए राज्याश्रय से जनाश्रय ज्यादा जरूरी है और इस लिहाज से हिन्दी की बड़ी चिन्ता यह होनी चाहिए कि उसके जन भी उसमें अपना भविष्य नहीं देख पा रहे और ऐसा गैरहिन्दीभारतीय भाषाओं के कारण नहीं अंग्रजी के प्रभुत्व के कारण है.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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