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Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमतहो सकता है सोरेन के राजनीतिक भविष्य का पता न हो, लेकिन अब उनकी छवि एक चतुर राजनेता की बन चुकी है

हो सकता है सोरेन के राजनीतिक भविष्य का पता न हो, लेकिन अब उनकी छवि एक चतुर राजनेता की बन चुकी है

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने दिखा दिया कि वह इस मनोवैज्ञानिक या दिमागी खेल को अच्छे से खेल सकते हैं और बीजेपी को इस स्थिति में रख सकते हैं कि वह अनुमान ही लगाती रह जाए. गठबंधन के नेता इससे खुश तो जरूर होंगे.

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मनोरंजन, सस्पेंस, अनिश्चितता के साथ पिकनिक और रिसोर्ट की राजनीति. झारखंड पिछले एक हफ्ते से सुर्खियां बटोर रहा है. और इसकी वजह बना- 25 अगस्त को भारत के चुनाव आयोग की ओर से राज्यपाल रमेश बैस को भेजा गया एक सीलबंद लिफाफा.

चुनाव आयोग ने कथित तौर पर इस पर अपनी राय दी है कि क्या झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को कथित लाभ के पद के मामले में अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए. बैस को ईसीआई के आधिकारिक वक्तव्य और राज्यपाल की ओर से देरी ने लगभग तीन साल पुरानी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को संकट में डाल दिया. यह सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है जिसका सामना सोरेन ने अपने युवा राजनीतिक जीवन में अभी तक नहीं किया होगा.

अनुभवी आदिवासी नेता और तीन बार के सीएम शिबू सोरेन के राजनीतिक उत्तराधिकारी 47 वर्षीय सोरेन इस तनाव भरे समय में भी शांत बने रहे और विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा सत्तारूढ़ पार्टी के विधायकों की खरीद-फरोख्त की आशंका और तीव्र अटकलों के बीच, झामुमो-कांग्रेस-राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के झुंड को एक साथ बनाए रखने में कामयाब रहे.

झारखंड की राजनीति पर नजर रखने वालों के मुताबिक, मुख्यमंत्री की कुर्सी के साथ-साथ खनन विभाग के रूप में खुद को खनन पट्टा आवंटित करने का सोरेन का फैसला एक बड़ी गलती थी. उनका ये फैसला न सिर्फ उनकी अपरिपक्वता को दर्शाता है, बल्कि उनके सलाहकारों की अयोग्यता का भी बखान करता है, जो उनकी इस गलती की ओर इशारा करने में विफल रहे.

लेकिन वे यह भी कहते हैं कि जिस तरह से सोरेन विवाद के बाद से तनाव भरे माहौल में शांत तरीके से खुद को संभाले हुए हैं, उससे पता चलता है कि वह एक तेज-तर्रार राजनेता हैं, जिन्होंने बढ़ती अनिश्चितता के बावजूद, भाजपा के अगले कदम के बारे में पहले ही अनुमान लगा लिया.

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कांग्रेस के तीन विधायकों के दलबदल करने की अटकलें जब सामने आईं तो सोरेन प्रशासन ने उनकी गिरफ्तारी को लेकर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार के साथ कोऑर्डिनेट किया. बाद में वह गठबंधन के नेताओं के तनाव से दूर करने के लिए रांची के पास लतरातू बांध पर ले गए, और फिर उन्हें राज्य से बाहर पड़ोसी छत्तीसगढ़ के एक रिसॉर्ट की भी सैर कराई. सोरेन की इस चाल ने बीजेपी को भी हैरान कर दिया.

तमाम राजनीतिक अनिश्चितताओं के बीच सोरेन का शासन पर ध्यान कम नहीं हुआ. वह विकास परियोजनाओं का उद्घाटन करते रहे और कल्याणकारी प्रस्तावों को मंजूरी देते रहे.

यही कारण है कि हेमंत सोरेन दिप्रिंट के सप्ताह के न्यूज़मेकर हैं.


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2019 में खुद को साबित किया

हेमंत सोरेन 2009 में अपने बड़े भाई दुर्गा की मौत के बाद राजनीति में शामिल हुए थे. उस समय दुर्गा को शिबू सोरेन का राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाता था.

2019 से पहले हेमंत ने थोड़े समय के लिए दो बार सत्ता का स्वाद चखा था. पहली बार 2010 में, जब वह अर्जुन मुंडा के डिप्टी सीएम बने और दूसरी बार तब, जब उन्होंने 2013 में सीएम के रूप में सत्ता संभाली थी. लेकिन वह हमेशा अपने पिता शिबू सोरेन की छाया में बने रहते थे.

यह 2019 में था जब सोरेन उस छाया से निकलकर बाहर आए और खुद को साबित किया. उन्होंने आंतरिक मतभेदों और गठबंधन की जटिलताओं से ग्रस्त झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन को विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ जीत दिलाई और अपने पिता की विरासत पर सफलतापूर्वक दावा किया.

उस समय यह जीत काफी मायने रखती थी, सिर्फ सात महीने पहले झामुमो को लोकसभा चुनाव में अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा था. भाजपा ने राज्य की 14 संसदीय सीटों में से 11 पर जीत हासिल की थी.

2019 के चुनावों में झामुमो के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 81 विधानसभा सीटों में से 47 पर (बाबूलाल मरांडी की पार्टी से दो विधायकों के शामिल होने के बाद गठबंधन की संख्या 49 तक पहुंच गई) जीत हासिल की थी. इस जीत ने बता दिया कि झामुमो, जिसका मुख्य रूप से संथाल परगना के आदिवासी क्षेत्र में अपना गढ़ था, गैर-आदिवासी क्षेत्रों में भी पार्टी का विस्तार करने में कामयाब रही है.

मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के बाद से सोरेन ने आदिवासियों और गैर-आदिवासियों दोनों के लिए कई फैसले लिए हैं. उन्होंने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 और संताल परगना काश्तकारी (पूरक प्रावधान) अधिनियम 1949 में संशोधन का विरोध करने पर भाजपा सरकार द्वारा आदिवासियों के खिलाफ दर्ज किए गए आरोपों को हटा दिया.

जब मार्च 2020 में कोविड महामारी फैली, झारखंड लेह में फंसे प्रवासी कामगारों को एयरलिफ्ट करने वाला पहला राज्य था.

हालांकि सोरेन को अन्य गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों की तरह नहीं माना जाता है, लेकिन पिछले कुछ सालों में उन्होंने बंगाल की ममता बनर्जी और दिल्ली के अरविंद केजरीवाल के साथ धीरे-धीरे लेकिन लगातार अच्छे संबंध बनाए रखे हैं.

बनर्जी के साथ उनके अच्छे संबंध ही थे, जिसके चलते एक गुप्त सूचना के बाद, पश्चिम बंगाल पुलिस इस मामले में कूदी और कांग्रेस के तीन विधायकों को गिरफ्तार कर लिया, जो पिछले महीने 50 लाख रुपये की नकदी के साथ कार में यात्रा कर रहे थे. या फिर खनन पट्टा मामले में सोरेन के खिलाफ जनहित याचिका दायर करने वाले याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले झारखंड के वकील राजीव कुमार की गिरफ्तारी का मामला हो.

सोरेन ने खुद को ढालना सीख लिया

कांग्रेस नेताओं का कहना है कि हेमंत सोरेन बेहद चतुर राजनेता हैं, जिन्होंने मौजूदा हालात के मुताबिक खुद को ढालना सीख लिया है. वे एक हालिया घटना का जिक्र करते हैं जब सोरेन ने कांग्रेस के राज्य प्रभारी अविनाश पांडे से मुलाकात की, जो चुनाव आयोग की सीएम की विधानसभा सदस्यता को अयोग्य घोषित किए जाने की सिफारिश के बाद गठबंधन के भविष्य के बारे में रणनीति तैयार करने के लिए आए थे.

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि सोरेन की पांडे से मुलाकात अकल्पनीय थी क्योंकि 2019 में सीएम का पद संभालने के बाद वह ‘अहंकारी’ हो गए थे और अपने गठबंधन के सहयोगियों तक उतना नहीं पहुंच पाए जितना उन्हें पहुंचना चाहिए था.

कांग्रेस नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘वहां कम्यूनिकेशन गैप था, एक जानबूझकर बनाई गई दूरी… कई मुद्दों पर उलझते हुए, सीएम ने सरकार में हमारे नेताओं को नहीं रखा था. लेकिन अब वह समझ गए हैं कि यह एक मुश्किल समय है. और अगर वह गठबंधन को एक साथ रखना चाहते हैं तो उन्हें अपना अभिमानी रूप छोड़ना होगा.’

संदेश अब ज्यादा साफ हो गया है. गठबंधन मिलकर इस चुनौती से लड़ेगा.

कांग्रेस के एक नेता ने हल्के-फुल्के अंदाज में कहा कि गठबंधन के नेताओं की पिछले तीन साल में उतनी बैठकें नहीं हुईं, जितनी पिछले एक हफ्ते में हुई हैं.

राजनीतिक पर नजर रखने वालों का कहना है कि सीएम के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में सोरेन ने अपने पीआर को बेहतर बनाने के लिए भी काम किया है. वह हर कुछ महीनों में एक समय लंच पर दिल्ली में पत्रकारों से मिलने के लिए रखते हैं.

उन्होंने अपने समकालीनों से सोशल मीडिया के महत्व को भी जाना है. वह ट्विटर पर सक्रिय हैं. वह इस पर न सिर्फ अपने दिन के कार्यक्रम को पोस्ट करते हैं, सभी प्रमुख फैसलों की घोषणा करते है, बल्कि अपने विरोधियों से भी भिड़ रहे हैं.

आने वाले दिनों में यह साफ हो जाएगा कि क्या बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, मेसरा से चौथे साल के ड्रॉपआउट सोरेन राजनीतिक गतिरोध से बाहर निकलने में कामयाब हो पाएंगे और सीएम के तौर पर अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले पहले आदिवासी नेता बन जाएंगे या अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान उनकी शुरुआती गलतियां उनकी सरकार को परेशान करेंगी.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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