scorecardresearch
Tuesday, 30 December, 2025
होममत-विमतहेडगेवार का संघ और आज का RSS: सौ साल में मकसद से कितना भटका संगठन

हेडगेवार का संघ और आज का RSS: सौ साल में मकसद से कितना भटका संगठन

हिंदुओं की हालत पर आरएसएस और भाजपा के इस मौन की तुलना डॉ. हेडगेवार की चिंताओं, वक्तव्यों से करें. तब साफ दिखाई पड़ेगा कि आरएसएस केवल अपने लाभ-हानि के हिसाब में डूबा रहा है.

Text Size:

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सौ साल पूरे हो गए. क्या यह एक उपलब्धि है? जवाब इस पर निर्भर है कि जिस उद्देश्य से वह बना था, उसका क्या हुआ. डॉ. केशव बालिराम हेडगेवार ने किसलिए इस संगठन को बनाया था? उस की स्थापना से पहले या बाद में वे क्या कहते और करते रहे? इस सवाल पर आरएसएस समारोहों में मौन है.

अपनी शताब्दी पर सभी चर्चाओं में आरएसएस के नेताओं द्वारा आत्मश्लाघा ही मिलती है. कहीं उस लक्ष्य का स्मरण तक नहीं होता जिस के लिए आरएसएस बना था—ताकि आज की तुलनात्मक स्थिति दिख सके. वे केवल अपने बढ़ते चले जाने, ‘सब से बड़ा संगठन’ बन जाने पर गर्व करते हैं. किंतु न किसी संघर्ष, न किसी जीत, या किसी बलिदान का उल्लेख होता है जो गत सौ साल में आरएसएस के नेताओं ने किसी सामाजिक उद्देश्य हेतु किए हों. जबकि उसी दृष्टि से कोई समीक्षा सार्थक होगी.

जैसे, किसी खेल स्टेडियम की उपलब्धि में बताना होगा कि उस में कितने और किस श्रेणी के मैच खेले गए. न कि उस में कितने सभा-सम्मेलन या कितने विवाह-समारोह हुए, या वह कितना विशाल बन गया है. उसी तरह, किसी संगठन की कसौटी उस के मूल उद्देश्य का संदर्भ ही है.

‘हिंदू-मुस्लिम एकता’

तो, आरएसएस के नाम और विचार, दोनों में पहला बिंदु ‘राष्ट्र’ है. यह राष्ट्र 1947 में विभाजित किया गया. यदि राष्ट्र ‘भारत माता’ थी—तो इस के टुकड़े करने के विरुद्ध आरएसएस का कौन सा नेता जेल गया? पता चलता है कि जेल जाना, विरोध करना तो दूर, आरएसएस का कोई कागज़ी बयान तक नहीं आया. सो, ‘भारत माता’ दो टुकड़े हुई और आरएसएस मूक, बधिर, अपंग-सा, निश्चेष्ट पड़ा रहा. तो उस के ‘राष्ट्र’ का अर्थ क्या था?

डॉ. हेडगेवार आरएसएस के संस्थापक थे. उन की ‘राष्ट्र’ की धारणा केवल हिंदुओं को राष्ट्र मानने की थी. उन्होंने मुसलमानों और क्रिश्चियनों को राष्ट्र से बाहर माना था (नाना पालकर, ‘डॉ. हेडगेवार चरित’, 2020, पृ. 282, 291, 261,). वे मुसलमानों को ‘देश का शत्रु’ मानते थे. इसलिए, मुसलमानों को ‘देशद्रोही’ कहना भी डॉ. हेडगेवार को अस्वीकार था. क्योंकि देश से द्रोह तो वह करेगा, जिसका यह देश हो (पृ. 299-300). डॉ. हेडगेवार भारत में हिंदुओं के अलावा दूसरे समुदायों को ‘बाहरी’, ‘अराष्ट्रीय’, ‘भोगवादी’, मानते थे, जो देश के संसाधनों से सिर्फ मजे करते थे और जिन्हें देश रूपी घर की परवाह नहीं थी (पृ. 374-75). इसीलिए डॉ. हेडगेवार को ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ शब्द से भी आपत्ति थी. इसे वे ‘निर्रथक बात’ मानते थे (पृ. 99, 201).

डॉ. हेडगेवार ने ही शुरुआत से पंद्रह साल तक आरएसएस का नेतृत्व भी किया. उन्होंने आरएसएस को दलीय राजनीति से काफी दूर रखा था. यह उन का स्थाई दृष्टिकोण था (पृ. 394). इसलिए उन्होंने कांग्रेस और हिंदू महासभा को भी सहयोग देने से मना किया था. उन के कार्यक्रमों मे मात्र ‘व्यक्तिगत रूप से’ भाग लेने की अनुमति डॉ. हेडगेवार ने अपने स्वयंसेवकों को दी थी.

उक्त दोनों मूल बिंदुओं पर आज आरएसएस की क्या स्थिति है? उसके नेता अब हिंदू की दूसरी परिभाषा बना चुके है. दूसरी ओर, कई दशकों से अपना सर्वस्व दलीय राजनीति को सौंप चुके हैं. बल्कि ‘मुस्लिम मंच’ बनाकर मुस्लिमों के ‘तृप्तिकरण’ की सारी योजनाएं बनाना भी उसी दलीय राजनीति के लिए है. यह शब्द उन के नेता ने ही गढ़ा है. आरएसएस के नेता मुसलमानों के प्रति अपनी ‘तृप्तिकरण’ नीति को छिपाते भी नहीं. सो, यह किसी खेल स्टेडियम को स्थाई रूप से ‘विवाह मंडप’ में बदल कर, उस से व्यवसाय करने जैसा बदलाव है. चाहे उस स्टेडियम की आयु सौ साल हो जाए.

इस प्रकार, डॉ. हेडगेवार की दोनों ही मूल धारणाएं आरएसएस दशकों पहले छोड़ चुका. इसीलिए उन के लेखन का कुछ भी आरएसएस के प्रकाशन भंडार में अब उपलब्ध नहीं हैं. डॉ. हेडगेवार के लेख, पत्र, पुस्तिकाएं, आदि जो पहले छापी थी — (जैसे ‘डायरी’, ‘संघ का विधान’, ‘आलोक पुस्तिका’, ‘हस्तलिखित टिप्पणियां’, ‘पत्र-रूप व्यक्ति दर्शन’, तथा ‘स्वातंत्र्य’ दैनिक में लिखे उन के संपादकीय, लेख, आदि), यह सब भी हटा लिया गया है. यह सब पहले आरएसएस ने प्रकाशित की थी. अब सब विलुप्त हैं. क्यों?

कायदे से आरएसएस के शताब्दी वर्ष पर अपने संस्थापक का समग्र लेखन नई सुंदर जिल्द में प्रकाशित करके गौरवान्वित होना था. इस के बदले उन का संपूर्ण लेखन, भाषण लुप्त क्यों कर दिया गया? इसलिए, क्योंकि या तो डॉ. हेडगेवार की बातें गलत थी या आज के आरएसएस नेता गलत हैं. दोनों हाल में आरएसएस कबंध साबित होता है, जिसके पास कहने को भी कोई सिद्धांत नहीं. या तो कभी था ही नहीं (यदि हेडगेवार की बातें गलत थी); अथवा, अब नहीं रह गया है (यदि आरएसएस के वतर्मान नेता गलत हैं).

फलत: हिंदू समाज असहाय, नेतृत्वहीन ही नहीं, भ्रमित भी है. उसे आरएसएस तथा उस के विरोधियों, दोनों ने भरमाया है. दोनों उसे हिंदुओं का संगठन बताते हैं, जबकि दरअसल आरएसएस केवल अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं का संगठन है. किसी प्राइवेट को-ऑपरेटिव जैसा, जिसके सदस्यों को कुछ भावनात्मक एवं भौतिक लाभ मिलते हैं. वह हिंदुओं का, हिंदुओं के लिए संगठन कभी बना ही नहीं! लगभग शुरू से वह ‘आरएसएस का, आरएसएस के लिए’ संगठन बन कर रह गया.

हिंदू-हित के संबध में ठोस सवालों पर आरएसएस के सर्वोच्च नेता भी बात-चीत में कहते हैं कि ‘‘हम ने हिंदुओं का ठेका नहीं ले रखा.’’ मानो वे स्वयं हिंदू नहीं हैं और हिंदू समाज से अलग कोई चीज हैं! यह विडंबना एक कड़वा सच है. जिसे हर कठिन समय में दुर्गति झेलने वाले हिंदू महसूस करते हैं. उन राज्यों में भी जहां भाजपा-आरएसएस की सत्ता हो. बीते पचास साल से भारत में ऐसी असंख्य घटनाएं और दूरगामी मार करने वाले राजनीतिक फैसले होते रहे जो हिंदुओं के विरुद्ध थे. पर उस पर कुछ करना, लड़ना तो दूर—आरएसएस के नेता एक बयान तक देने से भागते रहे हैं!

जम्मू या बांग्लादेश के हिंदू इस के हालिया उदाहरण हैं. जब कांग्रेसी सत्ता थी, तब बंगलादेश या जम्मू के हिंदुओं के लिए आरएसएस के नेता बड़ी-बड़ी मांगे करते थे. अब चुप रहते हैं. बोलते हैं तो जैसे-तैसे, अनिच्छा से और इस अंदाज़ में कि सारी समस्या में चाहे और सब की जिम्मेदारी हो, परंतु आरएसएस नेताओं की तो नहीं ही है! यदि इतनी सत्ता और संसाधन हासिल कर लेने के बाद वे इतने बोगस साबित हुए तो यह आकस्मिक नहीं है. यह उनके सौ वर्षों के क्रमिक अभ्यास की सहज परिणति है. यह किसी फुटबॉल स्टेडियम को विवाह-मंडप हॉल व्यवसाय में बदल देने वाली बात जैसा ही है.

आखिर, सौ साल पहले जिस मुस्लिम आक्रामकता से उद्वेलित होकर, उस से सीधे लड़कर, हिंदुओं के बीच लाठियां और वीरता साहित्य बांट कर डॉ. हेडगेवार ने आरएसएस बनाया था—वह स्थिति आज पहले से काफी बदतर है. इस बीच देश का तिहाई हिस्सा हिंदू-विहीन हो गया. भारत से काट कर दो इस्लामी देश बन गए. बचे भाग में भी हिंदुओं को कानूनन दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है.

आज भारत में हिंदुओं की शिक्षा व मंदिर उन के हाथ में नहीं हैं, जबकि मुस्लिमों व क्रिश्चियनों की शिक्षा और मस्जिदें, चर्च उनके हाथों में हैं. इस तरह, हिंदुओं को व्यवहार में कानूनन हीन नागरिक बना देने में आरएसएस-भाजपा का योगदान भी रहा है. निष्क्रिय और सक्रिय, दोनों तरह का योगदान. चाहे ऐसी बेपरवाही से कि उन के नेताओं को हिंदू के रूप में खुद अपने भी दूसरे दर्जे के नागरिक हो जाने का भान तक नहीं है! वे इतने अधिक सीमित, संकीर्ण स्वार्थ और अज्ञान में मस्त रहते हैं.

अत: बीते वर्षों के आकलन से कह सकते हैं कि जब कोई हिंदू आरएसएस का स्वयंसेवक बनता है तो न केवल एक हिंदू व्यर्थ होता है, बल्कि हिंदू हितों से उदासीन रहने वाला एक नेता और बढ़ जाता है. यह कोई भी परख सकता है कि आरएसएस के आम नेतागण केवल ‘संघ-हित’ जानते हैं. उसी को धर्म, उसी को कर्तव्य, उसी को मंत्र समझते हैं! किसी ‘हिंदू-हित’ से वे सदैव अनजान रहे.

फलत: उन के नेता ऊल-जलूल बयानबाजी और काम करते रहते है. विशाल, सत्ताधारी, संपन्न, साधनवान संगठन बन जाने के बाद, इस्लामी आक्रामकता से लड़ना तो दूर, उन के नेता उसे चादर चढ़ाते, उन के लिए संस्थान-इमारतें बनवाते, अनुदान, और ‘पेंशन’ भी देते रहते हैं! राष्ट्रीय साइंस एग्जीबिशन में कुरान का प्रचार करते हैं! देशी-विदेशी मुस्लिमों को खुश करने में लगे रहते हैं और पूछने पर बेचारे हिंदू को फटकारते हैं: ‘‘हम ने हिंदुओं का ठेका नहीं ले रखा.’’

इस प्रकार, वे अपने संस्थापक की लगभग सभी बुनियादी बातें छोड़ चुके. उन से ठीक उल्टी और झूठी बातें कहते और करते हैं. इसलिए अपने संगठन के आरंभिक पच्चीस सालों का इतिहास एवं दस्तावेज उन्होंने गायब कर दिया है. जबकि आरएसएस से भी दशकों पुराने सामाजिक-राजनीतिक संगठनों, संस्थाओं — जैसे आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन आदि के सभी आरंभिक दस्तावेज, भाषण, पुस्तिकाएं, प्रस्ताव, आदि उपलब्ध हैं.

लेकिन आरएसएस के 1925 से 1950 ई. के बीच का कुछ भी उस की वेबसाइट पर नहीं है. न किसी लाइब्रेरी में मिलता है. उसने अपने संस्थापक डॉ. हेडगेवार के लेखन को तो मानो नष्ट कर दिया है. ताकि अपने संगठन का मूल उद्देश्य त्याग देने की बात उस के वर्तमान सदस्य भी न जान सकें! उस के नेताओं ने सत्ता-सुख भोग के लिए हिंदू हितों का सौदा किया है. यह एक जमाने में आरएसएस और जनसंघ के सब से नेता रहे बलराज मधोक ने अपनी तीन-खंडी पुस्तक ‘ज़िंदगी का सफर’ में प्रमाणिक रूप से दिखाया है.

अतः कहना चाहिए कि संघ-परिवार आकार में बढ़ा, परंतु उसकी काया खोखली और रोगी है. उन के नेताओं की मति और भी क्षीण हुई है. वे बस कागज़ी शेर हैं. खुद अपनी बड़ाई करने में सर्वाधिक समय खराब करते हुए. चाहे हर कहीं, वास्तविक स्थिति कितनी भी बिगड़ती क्यों न चली जाएं.

ऐतिहासिक क्रम में संघ नेताओं के विचार, मनोबल, चरित्र, आदि लगातार गिरते गए हैं. जबकि इसी बीच इस्लामियों, मिशनरियों, वामपंथियों, यहां तक कि कांग्रेसियों तक के विचार और कार्य यथावत हैं. चाहे उनका आकार कुछ भी हो. राज-कुर्सी विहीन होकर भी उन का मनोबल संघ-परिवार नेताओं पर प्रायः भारी है. यह नियमित दिखता है. मीडिया का सामना करने से हमेशा भागना इस का स्थाई उदाहरण है. दूसरा उदाहरण, बांग्लादेश में हिन्दुओं की स्थिति पर संसद में सदैव मौन रहना भी अत्यंत लाक्षणिक है.

मुसलमानों या क्रिश्चियनों पर चोट होने पर एक भी मुस्लिम या क्रिश्चियन नेता यदि संसद में हो, तो आवाज़ उठाता है. आरएसएस के सैकड़ों सांसद भी हिंदुओं पर होती चोट पर सदा मुंह सिए रहते हैं. उलटे, आरएसएस के राजनीतिक रूप, यानी भाजपा नेतागण सब से अधिक समय दूसरे हिंदू दलों, नेताओं की निंदा करने में लगाते हैं. सत्ता में आने पर उन की यह प्रवृत्ति दस गुनी बढ़ जाती है. मानो इसी के लिए उन्हें सत्ता मिली!

अभी भी, यह लिखते समय जब बांग्लादेश में हिंदुओं का रोज सफाया हो रहा है, उस समय भी आरएसएस-भाजपा के सिरमौर नेता पानी पी-पीकर नेहरू परिवार को कोसने में अपनी ऊर्जा और राष्ट्रीय संसाधन लगा रहे हैं. यह कैसा रुख है? इस में कौन सा हिन्दुत्व या राष्ट्रवाद भी है?

हिंदुओं की हालत पर आरएसएस और भाजपा के इस मौन की तुलना डॉ. हेडगेवार की चिंताओं, वक्तव्यों से करें. तब साफ दिखाई पड़ेगा कि आरएसएस केवल अपने लाभ-हानि के हिसाब में डूबा रहा है. भारतवर्ष के हिंदू आज भी नेतृत्वविहीन, लाचार, दूसरे दर्जे के नागरिक और भ्रमित हैं. इस हालत के बनने और बने रहने में सबसे बड़ा योगदान आरएसएस का है. इस अर्थ में आरएसएस और हिंदू समाज एक दूसरे का आइना हैं.

(लेखक हिंदी के कॉलमनिस्ट और पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


यह भी पढ़ें: 1917 से 2025 तक: भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन क्यों गिन रहा है अंतिम सांसें


 

share & View comments