उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के सहारनपुर, कुशीनगर व हरिद्वार जिलों में जहरीली शराब सवा सौ से ज्यादा जानें ‘पी’ गई है, तो जहां प्रभावित क्षेत्रों में रह-रहकर जनाक्रोश भड़क रहा है, वहीं इन मौतों को लेकर की जा रही स्वार्थी राजनीति न सिर्फ कुरूप बल्कि हृदयहीन भी हो उठी है. उसका यह ‘हो उठना’ इस अर्थ में कहीं ज्यादा दुःखद है कि न सिर्फ इन प्रदेशों बल्कि सारे देश में राजनीति ने खुद को निहित स्वार्थों की चेरी और ऐसे हादसों का पर्याय बना डाला है, जो रोज-ब-रोज किसी न किसी बहाने लोगों की जान से दुश्मनी निभाते रहते हैं और कई बार जहरीली शराब से ज्यादा जानें ले लेते हैं.
तिस पर सत्ताएं हैं कि एक की मार्फत दूसरे का औचित्य सिद्ध करती हुई कहती नहीं लजातीं कि ऐसे हादसे कोई पहली बार थोड़े ही हो रहे हैं. वे यह याद करना भी गवारा नहीं करतीं कि मतदाताओं ने उन्हें ‘जो कुछ होता आया है’, वही होते जाना देखने के लिए नहीं, इस उम्मीद से चुना है कि वे अपनी पूरी शक्ति ऐसे किसी हादसे का आखिरी होना सुनिश्चित करने में लगायें.
लेकिन इसके उलट उन्होंने अनेक देशवासियों को ऐसे दुर्दिन में डाल दिया है कि एक शायर की जुबानी उन्हें सम्बोधित करके कहा जा सके- मौत से आप नाहक परेशान हैं, आप जिन्दा कहां हैं जो मर जायेंगे! विडम्बना देखिये: सत्ता की राजनीति को जहरीली शराब से इन मौतों की जिम्मेदारी लेना या शर्म महसूस करना तो दूर ईमानदारी से उनकी पुष्टि करना भी गवारा नहीं है. ये पंक्तियां लिखने तक उसने सिर्फ 36 मौतों की पुष्टि की है और शेष के बारे में ‘कारणों की जांच’ करा रही है. यकीनन, यह जांच ऐसे बहाने की तलाश है, जिसकी बिना पर उन्हें शराब से नहीं, किसी और वजह से हुई बताकर स्थिति की गम्भीरता को घटाया जा सके. सत्ताओं के ऐसे करतब कितने पुराने हैं, समझने के लिए याद कीजिए, बाबा नागार्जुन ने अरसा पहले लिखा था- मरो भूख से फौरन आ पहुंचेगा थानेदार, लिखवा लेगा…..! आप चाहें तो इसे ‘मरो शराब से…’ में बदल लीजिए.
अकारण नहीं कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पूरी तरह अविचलित भाव से कह रहे हैं कि इन मौतों के पीछे कोई साजिश हो सकती है, जिसका पता लगाकर दोषियों को सख्त से सख्त सजा दिलाई जायेगी. वे यह भी याद दिला रहे हैं कि आजमगढ़ में शराब से मौतें हुई थीं तो उनके सिलसिले में समाजवादी पार्टी का एक नेता पकड़ा गया था, लेकिन न कोई पूछ रहा है और न वे बता रहे हैं कि क्या साजिश की बात कहकर या मरने वालों के परिजनों व बीमारों को मुआवजे की घोषणा कर वे इस कहर की जिममेदारी किसी और पर डाल सकते हैं?
कोई साजिश थी भी तो उसका समय रहते पता लगाना भी उन्हीं की जिम्मेदारी थी. फिर उन्होंने इसके लिए सवा सौ लाशें गिर जाने का इंतजार क्यों किया? क्या इसलिए कि जिनकी लाशें गिरी हैं, उन्हीं की पार्टी के एक छुटभैये नेता के अनुसार वे ‘पियक्कड़’ थे? अगर हां, तो उन्हें इसमें इतना और जोड़ लेना चाहिए कि ये पियक्कड़ ऐसे आम लोग थे, जिनके जीने या मरने से कोई सांस्कृतिक या राजनीतिक संकट उत्पन्न हुआ महसूस करने का रिवाज अब खत्म होता जा रहा है! तभी तो एक ओर इन लाशों ने कोहराम मचा रखा था और दूसरी ओर उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य अयोध्या में राम मन्दिर को ही नहीं, राम के धाम को भी भव्य बनाने का राग अलाप रहे थे!
इस राग को छोड़ भी दें तो सवाल अपनी जगह है कि योगी को आजमगढ़ के जहरीली शराब कांड में कथित सपा नेता के पकड़े जाने के फौरन बाद शराब माफियाओं के सारे नेटवर्क को तहस-नहस करके जनजीवन को सुरक्षित कर देने से किसने और क्यों रोक रखा था? अगर किसी ने नहीं, योगी को खुद समय रहते इसका इलहाम नहीं हुआ और वे धोखे में रह गये तो किसी न किसी को तो उन्हें याद दिलाना चाहिए कि 1962 में देश पर हमला हुआ और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि वे चीन से धोखा खा गये, तो समाजवादी नेता डाॅ. राममनोहर लोहिया ने पूछा था कि उनके धोखा खाने की कीमत यह देश क्यों चुकाये? उनका तर्क था कि धोखा खाना स्वीकारने के बाद पंडित नेहरू को एक पल भी प्रधानमंत्री रहने का अधिकार नहीं है.
दुर्भाग्य से अब ऐसा कोई नीतिगत विपक्ष बचा ही नहीं है, जो इस तर्क से योगी से इस्तीफा मांगे. कोई मांगे भी तो उसके मांगने में इतनी नैतिक चमक नहीं होगी कि योगी यह कहकर उसका मुंह न बन्द करा सकें कि उसके राज में तो जनता से इससे भी ज्यादा बड़ी-बड़ी धोखाधड़ियां हुई थीं. इसीलिए उनकी प्रतिद्वंदी सपा जहां सिर्फ यह कह रही है कि उन्हें सरकार चलाना नहीं आता, वहीं बसपा उस सीबीआई द्वारा जांच की मांग कर रही है, जिसकी विश्वसनीयता निम्नतम स्तर पर जा चुकी है.
बहरहाल, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड दोनों में भाजपा की ही सरकारें हैं. इस कारण इन दोनों ही सरकारों की यह सुविधा छिन गई है कि वे इस त्रासदी को लेकर एक दूजे पर बरस-बरस कर उससे पल्ला झाड़ सकें. अन्यथा आज आप उन्हें शराब तस्करों और माफियाओं को संरक्षण देने को लेकर एक दूजे पर लाल-पीली होती या गरजती-बरसती देख रहे होते. फिलहाल, वे ऐसा नहीं ‘दिखा’ सकतीं इसलिए यह दिखा रही हैं कि कहर के वक्त भले ही सोती पकड़ ली गईं, अब जाग गई हैं और शराब तस्करों व माफियाओं के खिलाफ ताबड़तोड़ छापे डलवा रही हैं. साथ ही, उन पर यथासमय कार्रवाई में काहिली बरतने में उन पुलिसकर्मियों को बलि के बकरे भी बना रही हैं, जो अपने काम में लगातार राजनीतिक दखल झेलते रहते हैं.
निर्दोषों की प्राण रक्षा को लेकर सत्ता की अगंभीरता इस दिखावे में भी जस की तस है. रायबरेली में शराब माफिया पर छापा मारने गई पुलिस ने अपने बाग की रखवाली कर रहे निर्दोष अधेड़ को पीट-पीटकर मार डाला जबकि बहराइच में एक दलित युवक को हिरासत में लेकर इतना सताया कि उसकी मौत हो गई.
किसी ने ठीक ही लिखा है कि जब से उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार बनी है, पूरी सरकारी मशीनरी, खासकर पुलिस को, अजीब-सा नशा चढ़ा रहता है. उसके लिए नागरिकों की जान से खेलना इतना आसान पहले कभी नहीं था, जितना अब है.
जैसा कि पहले कह आये हैं, राजनीति में नीतिगत विपक्ष की अनुपस्थिति में सरकारों की पार्टियां, झंडे और रंग कितने भी बदल जायें, शराब को लेकर वह दुरंगी नीति कभी नहीं बदलती, जिसमें वही जिलाधिकारी, जो मद्य निषेध का अभियान चलाता है, शराब के ठेकों की नीलामी भी कराता है-ज्यादा राजस्व के लिए साल-दर-साल बढ़ती जाती दरों पर. ये दरें शराब का उपभोग बढ़े बगैर संभव ही नहीं है.
हां, भूमंडलीकरण की नीतियों को अंगीकार किये जाने के बाद देश में यह उपभोग अंधाधुंध बढ़ता गया है तो इसका एक बड़ा कारण पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष मान लेने वाली आर्थिक नीतियां हैं, जो अब ‘नई’ भी नहीं रह गयीं. सच पूछिये तो शराब जहरीली होती ही इसी मुनाफे के जहर से है. वरना आदिवासियों की जो शराब उनकी संस्कृति का अभिन्न अंग है, वह कभी यों जानें नहीं लेती.
कोढ़ में खाज यह कि देश और समाज में मुनाफे यानी ‘लाभ’ के साथ ‘शुभ’ होने की जो पुरानी शर्त जुड़ी रहती थी, उसे हम किस कदर पीछे छोड़ आये हैं, इसे यों समझ सकते हैं कि जो एक्साइज ड्यूटी कभी शराब का उपभोग घटाने के उद्देश्य से लगाई गई थी, उसका आज सरकारों की राजस्व आय में बड़ा हिस्सा है और बिहार जैसे अपवाद को छोड़ दें तो सरकारें उसमें वृद्धि के लिए ही ज्यादा चिंतित रहती हैं- शराब के उपभोग से उत्पन्न हो रही समस्याओं व उद्वेलनों की फिक्र ही नहीं करतीं. इसकी जरूरत महसूस की जाती तो उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की सरकारों से इस वक्त यह जरूर पूछा जा रहा होता कि जो कर्मकांड वे सवा सौ लाशें गिरने के बाद कर रही हैं, वे उन्होंने पहले क्यों नहीं किये?
(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)