हमने अभी-अभी भारत का 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाया है. जैसे ही हम एक आज़ाद राष्ट्र के रूप में अपने अस्तित्व के 79वें साल में प्रवेश कर रहे हैं, मुझे ‘बंगाल के कवि’ रवीन्द्रनाथ टैगोर की मशहूर और अक्सर उद्धृत की जाने वाली पंक्तियां याद आती हैं— “जहां मन भय से मुक्त हो और मस्तक ऊंचा हो, उस स्वतंत्रता के स्वर्ग में, पिता, मेरा देश जागे.”
क्या हम उस स्थिति तक पहुंच गए हैं जहां हम सिर ऊंचा करके कह सकें कि हमें भारत पर गर्व है? क्या हमारा मन भय से मुक्त है? क्या हम रात को सुरक्षित और निश्चिंत होकर सो सकते हैं, यह जानते हुए कि हमारे लोगों के साथ न्याय हो रहा है? मेरे लिए 15 अगस्त से पहले का समय हमेशा आत्मचिंतन का समय रहा है—पिछले साल की उपलब्धियों की सराहना करने और यह समझने का कि कहां सुधार की ज़रूरत है.
जैसे-जैसे हम “आज़ादी का अमृत काल” की ओर बढ़ रहे हैं, आइए अपने स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को याद करें और अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि दें—विकास की गति को और तेज़ रखकर तथा सबके लिए ऊर्जा और समृद्धि लाकर.
जनसंख्या और प्रजनन
भारत की जनसंख्या 1951 की जनगणना से अब तक लगभग चार गुना हो गई है — करीब 36.1 करोड़ से बढ़कर आज लगभग 145.5 करोड़ तक पहुंच चुकी है. 1947 में पैदा हुए एक बच्चे की औसत उम्र 32 साल मानी जाती थी. 2025 में जन्म लेने वाले बच्चे की औसत उम्र 72 साल है, जो दुनिया के औसत 73.4 साल से थोड़ी कम है.
औसत आयु किसी देश के विकास स्तर का संकेतक मानी जाती है, क्योंकि यह जनसंख्या के स्वास्थ्य और कल्याण को दर्शाती है. यह स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता, जीवन स्तर और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों जैसे कारकों पर निर्भर करती है. विकसित देशों में बेहतर संसाधनों और जीवन की गुणवत्ता के कारण औसत आयु अधिक होती है.
प्रजनन दर 1950 के दशक में प्रति महिला लगभग 6 जन्म से घटकर अब करीब 2 पर आ गई है, जो ‘रिप्लेसमेंट लेवल’ के करीब है. यह जनसांख्यिकीय बदलाव भारत की बदलती आर्थिक और सामाजिक तस्वीर का अहम हिस्सा रहा है.
1947 में भारत में लगभग 7,000 अस्पताल और औषधालय थे, जिनमें 700 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र शामिल थे. 2025 में यह संख्या बढ़कर करीब 24,000 सरकारी अस्पतालों तक पहुंच गई है, जिन्हें कई निजी अस्पतालों का सहयोग प्राप्त है. आज भारत ‘मेडिकल टूरिज्म’ का एक बड़ा केंद्र बन चुका है.
1950 के दशक में शिशु मृत्यु दर 1,000 जन्म पर 146 थी, जबकि आज यूनिसेफ के अनुसार यह घटकर 25 रह गई है. 1990 से 2020 के बीच मातृ मृत्यु दर में 83 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है.
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अर्थव्यवस्था और विकास
पिछले महीने भारत की अर्थव्यवस्था की हालत को लेकर काफी नकारात्मक बातें कही गईं. विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने भी ट्रंप के ‘Dead Economy’ वाले बयान से सहमति जताई, लेकिन तथ्य और आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं.
1960 में भारत का जीडीपी लगभग 37 अरब डॉलर आंका गया था और प्रति व्यक्ति आय 85 डॉलर से भी कम थी. शुरुआती दशकों में विकास दर करीब 3.5 प्रतिशत के आसपास रही.
आईएमएफ के अनुसार, 2025 (वित्त वर्ष 2026) में भारत का नाममात्र जीडीपी लगभग 4,187 अरब डॉलर रहने का अनुमान है और प्रति व्यक्ति आय लगभग 2,800 डॉलर होने की उम्मीद है. हाल के वर्षों में भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि औसतन 6–7 प्रतिशत रही है.
आरबीआई गवर्नर संजय मल्होत्रा ने ट्रंप के बयान को पूरी तरह खारिज किया. उन्होंने कहा, “हम करीब 18 प्रतिशत का योगदान दे रहे हैं, जो अमेरिका से भी ज्यादा है. अमेरिका का योगदान तो इससे काफी कम लगभग 11 प्रतिशत के आसपास है. हम अच्छा कर रहे हैं और आगे और भी बेहतर करेंगे.” भारत की वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जबकि आईएमएफ की वैश्विक औसत वृद्धि दर सिर्फ 3 प्रतिशत बताई गई है.
डेलॉइट की रिपोर्ट, जिसे अर्थशास्त्रियों डॉ. रुमकी मजूमदार और देबदत्ता घाटक ने तैयार किया है, में कहा गया है, “नए वित्त वर्ष में भारत की आर्थिक संभावनाएं तीन बड़े इंजनों से मजबूत हैं: एक मज़बूत उपभोक्ता वर्ग, निवेश का फैलता हुआ दायरा और डिजिटल कौशल से लैस, गतिशील कार्यबल. शहरी खर्च बढ़ रहा है, निजी निवेश में सकारात्मक संकेत दिख रहे हैं और भारत की टेक्नोलॉजी अपनाने वाली प्रतिभा नवाचार को बढ़ा रही है और वैश्विक स्तर पर अपनी क्षमता दिखा रही है.” यह रिपोर्ट ठीक उसी समय आई थी, जब राहुल गांधी ने अर्थव्यवस्था पर बयान दिया था.
आज़ादी के समय कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था रहा भारत अब STEM और AI का ‘Growth Engine’ बन चुका है.
तो फिर ‘Dead Economy’ वाली बात कितनी सच है?
गरीबी में कमी
पिछले दस सालों में खासकर हाल ही में, भारत ने गरीबी घटाने में बड़ी प्रगति की है. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट कहती है कि बेहद गरीब लोगों का प्रतिशत—यानी जो लोग रोज़ 2.15 डॉलर से भी कम पर गुज़ारा करते थे 2011–12 में 16.2% था, जो 2022–23 में घटकर सिर्फ 2.3% रह गया. यानी लगभग 17.1 करोड़ लोग इस सीमा से ऊपर आ गए.
यह स्थिति 1956 से बिलकुल अलग है, जब योजना आयोग के बीएस मिन्हास ने अनुमान लगाया था कि भारत की 65% आबादी यानी 21.5 करोड़ लोग गरीब थे.
2021–22 के बाद से रोज़गार के अवसर कामकाजी उम्र की आबादी से तेज़ी से बढ़े हैं. महिलाओं के लिए रोज़गार की स्थिति बेहतर हुई है. वित्तीय वर्ष 2024–25 की पहली तिमाही में शहरी बेरोज़गारी घटकर 6.6% रह गई—जो 2017–18 के बाद का सबसे कम स्तर है. ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2018–19 के बाद पहली बार पुरुष मज़दूर ग्रामीण इलाकों से शहरों की तरफ जा रहे हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं अब खेती-किसानी में ज़्यादा काम पा रही हैं.
शिक्षा और साक्षरता
आज़ादी के समय सिर्फ 12% भारतीय पढ़े-लिखे थे. 1950 में हर 10 में से 8 से ज़्यादा लोग अशिक्षित थे. 2011 तक साक्षरता दर 74% हो गई और लड़कियों व लड़कों के बीच का अंतर काफी कम हुआ. 2023 तक यह 80.3% पर पहुंच गई.
2000 के बाद स्कूल में दाखिले की दर तेज़ी से बढ़ी, जिसमें सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा का अधिकार कानून जैसे कार्यक्रमों की बड़ी भूमिका रही.
प्राथमिक शिक्षा में, खासकर लड़कियों की पढ़ाई में बड़ा सुधार हुआ है. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना ने भी लड़कियों की शिक्षा को और बढ़ावा दिया. कोविड-19 के दौरान थोड़ी रुकावट ज़रूर आई थी, लेकिन लक्ष्य है कि 2047 तक देश में 100% साक्षरता हासिल की जाए.
बिजली, पानी और स्वच्छता
आज़ादी के समय बिजली, साफ पानी और स्वच्छता तक पहुंच बेहद सीमित थी. 1950 में देश के 5 लाख से ज़्यादा गांवों में से सिर्फ 3,000 गांवों में ही बिजली का खंभा था, लेकिन 2023 तक 99.5% भारतीयों को बिजली की सुविधा मिल चुकी है. शहरीकरण भी दोगुना हो गया है 1951 में जहां यह लगभग 18% था, वहीं 2024 में बढ़कर करीब 37% हो गया है.
साफ पानी की उपलब्धता भी सरकारी योजनाओं जैसे जल जीवन मिशन और हर घर जल से तेज़ी से बढ़ी है. पीआईबी के अनुसार, अब 74% ग्रामीण घरों में नल से पानी की सुविधा है.
आज़ादी के समय भारत में खुले में शौच आम था. 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की और शौचालय जैसे विषय पर खुलकर चर्चा कर लोगों की सोच बदलने का काम किया. 2014 से 2019 के बीच एसबीएम (ग्रामीण) के तहत 10 करोड़ से ज़्यादा घरेलू शौचालय और 2,30,000 सामुदायिक व सार्वजनिक शौचालय बनाए गए. भारत में पहली बार इस वर्जित विषय पर खुली बातचीत हुई, जिसने लोगों के दृष्टिकोण को बदल दिया.
उभरती वैश्विक महाशक्ति
दुनिया की राजनीति तेज़ी से बदल रही है. कभी भारत एक वैश्विक महाशक्ति था, जिसे व्यापार, स्वतंत्रता, धर्म और आर्थिक विकास के लिए सम्मान मिलता था. तभी इसे “सोने की चिड़िया” कहा जाता था, लेकिन आक्रमणकारियों ने देश की संस्कृति और आत्मा को बदलकर हमें गरीब बना दिया.
आज भारत फिर से मज़बूत होकर खड़ा हो रहा है. अब हम उन वैश्विक ताक़तों का भी डटकर सामना कर रहे हैं, जो हमारे राष्ट्रीय हितों के खिलाफ नीतियां थोपना चाहती हैं. हम अपने पड़ोसी देशों—नेपाल, श्रीलंका, भूटान और म्यांमार की मदद भी बिना कोई शर्त रखे या अपमानजनक शब्दों जैसे ‘एड’ का इस्तेमाल किए बिना करते हैं. वैक्सीन मैत्री इसका एक उदाहरण है.
सार्वभौमिक देशों से बराबरी और मित्रता के आधार पर पेश आना ही असली कला है और भारत अब यही संदेश दे रहा है कि हम मदद करते हैं, न कि अपमानजनक एकतरफा हावी होने की कोशिश.
भारत अब जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों में भी सक्रिय भूमिका निभा रहा है और अब तक फिलिस्तीन/इज़रायल और रूस/यूक्रेन जैसे विवादों पर कूटनीतिक संतुलन बनाए रखने में सफल रहा है. हालिया भारत-पाकिस्तान विवाद और ऑपरेशन सिंदूर ने भी दुनिया को दिखा दिया कि भारत एक आत्मनिर्भर सैन्य ताकत बन चुका है, जिसने एफ-16 विमानों को कड़ी चुनौती दी. यह 1962 के युद्ध से बिल्कुल अलग स्थिति थी, जब हमारे जवानों के पास पर्याप्त साधन नहीं थे और घरों में महिलाएं उनके लिए ऊनी मोज़े बुन रही थीं.
लेकिन जैसा कि नेहरू के प्रिय कवि रॉबर्ट फ्रॉस्ट ने लिखा था हमें अभी बहुत दूर जाना है. 2047 की ओर बढ़ते हुए हमारी बातचीत विकसित भारत 2047 पर होनी चाहिए: महिला सशक्तिकरण, साक्षरता, युवाओं को रोज़गार, स्वच्छता, शिक्षा और सबके लिए स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर, न कि जाति और भाषा की विभाजनकारी राजनीति पर.
यह लक्ष्य तभी हासिल होगा जब इस देश की पूरी जनता एक साथ, एक स्वर और एक ताकत बनकर खड़ी होगी.
(मीनाक्षी लेखी भाजपा की नेत्री, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका एक्स हैंडल @M_Lekhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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