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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतक्या भारत के युवाओं की लोकतांत्रिक समझ 'शून्य' हो चली है

क्या भारत के युवाओं की लोकतांत्रिक समझ ‘शून्य’ हो चली है

इतनी निराशा के बाद भी हिंदुस्तान में अभी भी लोकतंत्र को बचाने की उम्मीद बाकी है.

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पिछले 7 सालों में इस देश में जो भी गिने-चुने आंदोलन हुए ज्यादातर हिंदुस्तान के बुजुर्गों ने किए, आज भी पिछले 7 महीने से चल रहे किसान आंदोलन में बुजुर्गों के हाथ में ही बागडोर है.

हिंदुस्तान की आज़ादी के बाद की तमाम लड़ाईयां लड़ने वाले कुछ गिने-चुने लोग जो अब भी जीवित हैं, उनमें से कई लोग कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में पिछले साल नवंबर से चल रहे आंदोलन में भी दिखाई दिए. 26 मई को किसान आंदोलन के छह महीने पूरे होने जा रहे हैं.

कृषि आंदोलन में तमाम ऐसे बुजुर्ग शामिल हुए जिन्होंने अपने मां-बाप, दादा-दादी से आजादी के संघर्ष की कहानियां सुनकर बडे़ हुए.

इन लोगों ने आजाद भारत के तमाम बडे़ आंदोलन देखे. ये लोग इमरजेंसी के दौरान सत्ता की चूलें हिला देने वाले जय प्रकाश नारायण (जेपी) आंदोलन के भी गवाह रहे.


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युवा और आंदोलन

हमारे देश में जब-जब बडे़ राजनीतिक बदलाव हुए उसमें सबसे ज्यादा योगदान युवाओं का रहा है. युवाओं ने जिस ओर निगाह की उसे सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा दिया और जिससे निगाहें मोड़ ली उसे जमीन पर आने में ज्यादा समय नहीं लगा.

आज़ादी के बाद का युवा, जेपी आंदोलन के दौर का युवा और यहां तक कि 2014 से पहले तक के हिंदुस्तानी नौजवान में लोकतांत्रिक समझ को लेकर छिटपुट बदलाव के बावजूद लगभग एक जैसी आम समझ जरूर थी कि अगर सत्ता में बैठा शासक गलत फैसले ले रहा है तो उसका प्रतिरोध करना है. चाहे उसके खिलाफ सड़कों पर उतरना पडे़ या लाठियां खानी पडे़.

कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार के दौरान चाहे प्याज के या पेट्रोल के दाम बढ़े, बड़ी तादाद में युवाओं ने सड़कों पर उतरकर इसका विरोध किया. 2012 में दिल्ली में हुए वीभत्स निर्भया कांड के विरोध में महिला सुरक्षा के मुद्दे पर तो पूरे देश का नौजवान अपने घरों से निकलकर गुस्सा जाहिर कर रहा था. ये भारत के युवाओं की लोकतांत्रिक समझ के परिपक्व होने का दौर था.


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‘भाजपा और लोकतांत्रिक विचारों का पतन’

साल 2014 में देश की सत्ता बदली और पूर्ण बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसमें युवाओं ने उनको जमकर वोट किया. लगा कि हिंदुस्तान के सबसे बडे़ चुनावी त्यौहार में लोकतंत्र की जीत हो गई. लेकिन असल में बीजेपी की चुनावी जीत शायद आजाद भारत के लोकतंत्र के लिए सबसे बुरे दौर की शुरुआत थी. वो जीत भारत की एक बड़ी युवा आबादी के लोकतांत्रिक विचारों के पतन की शुरुआत थी और आज 2021 आते-आते यह बात साबित भी हो गई कि आज की युवा पीढ़ी को बहकाना और बेवकूफ बनाना हिंदुस्तान की सांप्रदायिक राजनीति के लिए कितना आसान हो गया है. इसकी मिसाल के तौर पर सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे दुष्प्रचार को ही ले लीजिए.

जिस युवा आबादी की वजह से हम कुछ साल पहले तक गर्व कर रहे थे कि हम दुनिया के सबसे ज्यादा युवा शक्ति वाले देश हैं, जो कुछ ही सालों में इन्हीं युवाओं के बलबूते महाशक्ति बनेगा- आज वही युवा हिंदुस्तान की ‘स्थाई अशांति’ के कच्चे माल बन चुके हैं- ‘बेहद क्रूर, हिंसक, गालीबाज़, दंगाई और सांप्रदायिक ‘. जिनकी लोकतांत्रिक समझ अब शून्य हो चुकी है.

बताने की जरूरत नहीं है कि इसमें मीडिया और सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है. सोशल मीडिया पर आईटी सेल के झूठ और जहर फैलाने के लिए चलाए गए प्रोपेगैंडा ने इन्हें बिल्कुल चेतना शून्य बना दिया और जब तक गलत बातों का खंडन करने वाले तंत्र खडे़ हो पाते तब तक ये युवा पीढ़ी कुतर्कों के नाले में डुबकी लगाकर आ चुकी थी.

अब ना किसी बेटी के बलात्कारियों के खिलाफ संसद की सड़कें युवाओं की भीड़ से हिलती हैं और ना ही सरकारी अमानवीयता के विरोध में युवाओं के आंदोलन होते हैं, आज जब कोरोना महामारी के वक्त युवाओं को खुलकर सरकार से सवाल पूछने चाहिए तब भी ज्यादातर युवा मौतों पर निष्ठुरता से अट्टहास कर रहे हैं और मौत का सबूत मांग रहे हैं.

हां, जो कुछ मुट्ठी भर छात्र और पढे़ लिखे युवा आवाज उठाते हैं तो उनको आतंकी बताने के लिए ट्विटर ट्रेंड शुरू हो जाते हैं. बात तो यहां तक आ गई है कि ये लोग ‘देश में तानाशाही’ लाने का भी समर्थन करने लगते हैं.


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कुछ उम्मीद बाकी

इतनी निराशा के बाद भी हिंदुस्तान में अभी भी लोकतंत्र को बचाने की उम्मीद बाकी है. उन्हीं जेपी आंदोलन के दौर के युवाओं की वजह से, उन्हीं कुछेक जीवित बचे स्वतंत्रता आंदोलनकारियों की वजह से जो पहले देश की आज़ादी के लिए लड़े और अब लोकतंत्र को बचाने के लिए भी सड़कों पर हैं, जो अब बुजुर्ग हो चले हैं.

पिछले 7 सालों में इस देश में जो भी गिने-चुने आंदोलन हुए ज्यादातर हिंदुस्तान के बुजुर्गों ने किए, आज भी पिछले 7 महीने से चल रहे किसान आंदोलन में बुजुर्गों के हाथ में ही बागडोर है. मतलब साफ है इस देश का बुजुर्ग चाहे भले ही वो अनपढ़ ही क्यों न हो, इस देश के युवाओं से ज्यादा लोकतांत्रिक समझ रखता है.

इन्हीं बुजुर्गों की वजह से जो अपनी जवानी में जेपी आंदोलन का हिस्सा थे, जिन्होंने इंदिरा गांधी के घमंड को अपने वोट की चोट से मिट्टी में मिला दिया- आज फिर से उन्हीं के कंधों पर हिंदुस्तान के जर्जर हो चुके लोकतंत्र की मरम्मत करने की जिम्मेदारी है. अपनी युवावस्था में भी उन्होंने एक निरंकुश प्रधानमंत्री का घमंड तोड़ा और अब वो अपने बुढ़ापे में एक ‘क्रूर तानाशाह’ का घमंड खत्म करेंगे. यही हिंदुस्तानी बुजुर्ग इस देश के युवाओं को लोकतंत्र का असली मतलब भी समझायेंगे.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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