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Thursday, 14 November, 2024
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हरियाणा, J&K के नतीजों से एक सबक मिलता है — BJP के खिलाफ लड़ाई में INDIA गठबंधन का कोई सानी नहीं

भाजपा के पास संसाधनों की भरमार है और वह जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. कांग्रेस को अपने सामने आने वाली चुनौतियों को पहचानने और समझने की ज़रूरत है कि केवल इंडिया गठबंधन ही इस चुनौती का सामना कर सकता है.

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यह साल बड़े चुनावी आश्चर्यों का साल साबित हो रहा है. आम चुनाव प्रचार में भारतीय जनता पार्टी ने घोषणा की थी कि उसे 400 पार सीटें मिलेंगी, लेकिन वह 240 सीटों पर सिमट गई, जो बहुमत के आंकड़े से काफी कम है. अब हरियाणा विधानसभा चुनाव में, जहां कांग्रेस बड़ी जीत के लिए आश्वस्त दिख रही थी, मौजूदा भाजपा सरकार बनाएगी. यह तब है, जब जनता में भारी नाराज़गी और असंतोष के चलते एक भी एग्जिट पोल ने भाजपा की जीत की भविष्यवाणी नहीं की थी.

और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में, जहां एग्जिट पोल ने त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की थी, कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया है.

इस चुनावी दौर ने दोनों राष्ट्रीय दलों को वास्तविकता की कसौटी पर कस दिया है. कांग्रेस हरियाणा में भाजपा को हराने में असमर्थ रही, लेकिन कश्मीर में एक मुखर क्षेत्रीय ताकत, अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस (नेकां) ने दिखाया कि उसके पास भाजपा की चुनावी मशीन को हराने के लिए ज़रूरी स्थायित्व और स्थानीय संपर्क है.

2024 के आम चुनावों में विपक्ष को सबसे ज़्यादा फायदा उन राज्यों से मिला, जहां मज़बूत क्षेत्रीय पार्टियां हैं, तमिलनाडु में DMK, पश्चिम बंगाल में TMC, महाराष्ट्र में शिवसेना (UBT)- एनसीपी (SP) गठबंधन और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा). क्षेत्रीय दलों ने कड़ी टक्कर दी और आक्रामक तरीके से भाजपा को पीछे धकेल दिया. कांग्रेस ने 99 सीटें जीतीं, लेकिन एमके स्टालिन, ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे बड़े नेताओं के साथ INDIA गठबंधन ने सामूहिक रूप से विपक्ष की सीटों की संख्या 234 तक पहुंचा दी. भाजपा को चुनौती देने में क्षेत्रीय दलों के महत्व को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए.

आत्म-विनाशकारी मानसिकता

हरियाणा में यह धारणा प्रबल थी कि खराब प्रदर्शन करने वाली भाजपा सरकार के 10 साल उसे सत्ता से बेदखल करने के लिए पर्याप्त थे. इन परिस्थितियों में एक तरह की आत्मसंतुष्टि और अति आत्मविश्वास हावी हो गया. हरियाणा में कांग्रेस के मुख्य दलित चेहरे कुमारी सैलजा को अभियान में ज्यादा जगह नहीं दी गई, वे अलग-थलग दिखीं, यहां तक ​​कि जानबूझकर अभियान से दूर रहीं, इससे दलितों को सही संदेश नहीं मिला, वो समाज जिसने लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का जोरदार समर्थन किया था.

वरिष्ठ जाट नेता 77-वर्षीय भूपेंद्र सिंह हुड्डा कांग्रेस का एकमात्र चेहरा थे. नतीजतन, पार्टी ने यह संदेश दिया कि हरियाणा में उसका दृष्टिकोण जाट-केंद्रित है. ऐसे राज्य में जहां हाल के वर्षों में पिछड़ी जातियां भाजपा के इर्द-गिर्द एकजुट हुई हैं, एक जाति, एक नेता-केंद्रित अभियान उल्टा पड़ गया.

जब लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की सहयोगी आम आदमी पार्टी (आप) आधा दर्जन सीटें चाहती थी, तो कांग्रेस ने जीत की निश्चितता के कारण उसे नज़रअंदाज करना चुना. फिर भी राहुल गांधी खुद ऐसे गठबंधन के समर्थक रहे हैं. चुनावी राजनीति में जीत की निश्चितता एक आत्मघाती मानसिकता है. अगर कोई पार्टी यह मान लेती है कि वह लैंपपोस्ट चुनाव में आसानी से जीत रही है, जिसमें जीत अपरिहार्य है, तो पारंपरिक जातिगत कारकों और सामाजिक इंजीनियरिंग गठबंधनों को अक्सर नज़रअंदाज कर दिया जाता है. नतीजतन, उम्मीदवारों की सीट-दर-सीट, ज़मीनी स्तर पर सूक्ष्म प्रबंधन की महत्वपूर्ण भूमिका गायब हो गई.

नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस के पास यह सुनिश्चित करने के लिए कोई रणनीति नहीं थी कि अलग-अलग सीटों पर जाट बनाम नॉन-जाट एकीकरण न हो.

हरियाणा के जाट गढ़, जींद-सोनीपत क्षेत्र में, जहां कांग्रेस को हावी होने की उम्मीद थी, उसने अधिकांश सीटें खो दीं. जीतने वाले कुछ लोगों में से एक विनेश फोगाट थीं. हर सीट पर जाट उम्मीदवारों के साथ-साथ कांग्रेस के बागियों की मौजूदगी ने बहुध्रुवीय मुकाबले सुनिश्चित किए, जो भाजपा के लिए फायदेमंद रहा. भाजपा ने चतुराई से उम्मीदवारों का मिश्रण और ध्रुवीकरण और वोटों का विभाजन सुनिश्चित किया. भाजपा ने कई मौजूदा विधायकों को छोड़ने का जोखिम भी उठाया, जबकि कांग्रेस ने उन्हीं चेहरों को बरकरार रखा. यह वो चतुर माइक्रो लेवल की योजना है जिसकी कांग्रेस में कमी नज़र आती है.

अकेले मत लड़िए

हरियाणा में कांग्रेस की विफलता की तुलना जम्मू-कश्मीर में उसके दृष्टिकोण से कीजिए. यहां, पार्टी ने नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी कश्मीर घाटी में स्थित एक मजबूत मुख्यधारा की ताकत के साथ गठबंधन में काम किया. इसने स्थानीय रूप से निहित एनसी को स्थान और नेतृत्व की भूमिका दी, जो कश्मीर अभियान का मुख्य केंद्र था. रणनीति ने गठबंधन को जोरदार जीत दिलाई.

यह इंडिया गठबंधन मॉडल है: क्षेत्रीय दलों के महत्व को पहचानना और विशाल मंच बनाना. क्षेत्रीय दलों ने अपने राज्यों के समुदायों और इलाकों में गहरी पैठ बना ली है और इस प्रकार वह हर नुक्कड़, और मोहल्ले में आरएसएस के पैदल सैनिकों को चुनौती दे सकते हैं.

कांग्रेस का ‘एकला चलो रे’ दृष्टिकोण राज्य चुनावों में काम नहीं करता है. हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनावों के परिणाम इस बात की पुष्टि करते हैं कि भाजपा के खिलाफ लड़ाई में इंडिया गठबंधन को ही चेहरा होना चाहिए. कांग्रेस गठबंधन में एक महत्वपूर्ण और अभिन्न तत्व है, लेकिन अगर वो अकेले लड़ती है तो वो बहुत अधिक जीत की उम्मीद नहीं कर सकती है. क्षेत्रीय ताकतों से मिलकर बना इंडिया गठबंधन भाजपा का मुख्य विपक्षी दल है.

दफन मिथक

अब भाजपा का विश्लेषण करते हैं. भाजपा के पास हरियाणा में अपनी जीत का जश्न मनाने के लिए हर कारण है, लेकिन बहुत ही सुविधाजनक तरीके से, भाजपा-अनुकूल मुख्यधारा का मीडिया जम्मू और कश्मीर में पार्टी की दयनीय विफलता को अनदेखा कर रहा है. राज्य भर में निर्दलीय उम्मीदवारों को आगे बढ़ाने और निर्वाचन क्षेत्रों में हेराफेरी करने के इसके प्रयास काम नहीं आए. यह जनसांख्यिकीय बहुमत को बदलने की कोशिश करके राजनीतिक बहुमत बनाने में विफल रहा.

भाजपा का “नया कश्मीर” मिथक दफन हो गया है. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कश्मीर घाटी में जीत हासिल की, भाजपा एक भी सीट जीतने में विफल रही. यह केवल जम्मू के कुछ हिस्सों में ही जीत पाई, जो वैसे भी इसका गढ़ रहा है.

2019 में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने न केवल अनुच्छेद-370 को निरस्त किया, बल्कि भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू और कश्मीर को एक राज्य से केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया. तब से, भाजपा यह मिथक फैला रही है कि कश्मीरियों ने “नया कश्मीर” के विचार को उत्साहपूर्वक अपनाया है. चुनावी नतीजे इसकी विपरीत तस्वीर बयान करते हैं.

अगर कश्मीरी वास्तव में “नया कश्मीर” को लेकर उत्साहित थे, तो भाजपा कश्मीर घाटी में क्यों विफल रही? कश्मीरी मतदाता राज्य को छोटा करके केंद्र शासित प्रदेश बनाने के पक्ष में नहीं हैं.

तो चुनाव के इस चक्र के बाद हम कहां खड़े हैं? मोदी फैक्टर मौजूद है, लेकिन कम हो गया है. राहुल गांधी फैक्टर मौजूद है, लेकिन अपने दम पर भाजपा मशीनरी की ताकत का मुकाबला नहीं कर सकती.

1980 के दशक में चुनाव के जादूगर प्रणय रॉय ने विपक्षी एकता सूचकांक (IOU) शब्द गढ़ा था. IOU का मतलब था कि तत्कालीन प्रमुख कांग्रेस को हराना इस बात पर निर्भर करता है कि विपक्ष कितना एकजुट है.

दशकों बाद भी भारतीय राजनीति में IOU है, लेकिन वर्तमान में IOU प्रमुख भाजपा के खिलाफ है.

भाजपा के पास संसाधनों की भरमार है और वह किसी भी हद तक जा सकती है. वह किसी भी कीमत पर जीतने के लिए साम, दाम, दंड और भेद का इस्तेमाल करेगी. यह संघीय एजेंसियों का दुरुपयोग करेगी, महाराष्ट्र में लाडकी बहिण योजना जैसी वोट-केंद्रित योजनाओं में पैसा लगाएगी, सुनिश्चित करेगी कि निर्वाचन आयोग हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों को अलग-अलग करे और गुरमीत राम रहीम जैसे बलात्कारी और हत्या के दोषी को रिहा करेगी, यह सब अपनी चुनावी संभावनाओं को बढ़ाने के लिए करेगी.

कांग्रेस को अपने सामने आने वाली चुनौती को पहचान कर महसूस करना होगा कि केवल मजबूत नेताओं का गठबंधन ही इस घातक ताकत का मुकाबला कर सकता है. ज़रूरत एक वास्तविक इंडिया गठबंधन की है जो राज्य के नेताओं का सम्मान और पहचान करता है, जहां कांग्रेस वास्तविक साझेदारी में काम करती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भाजपा की फूट डालो और राज करो की रणनीति सफल न हो.

इन चुनावों में, स्कोर इंडिया-1 और भाजपा-1 है. महाराष्ट्र और झारखंड के शेष 2024 विधानसभा चुनाव अब और भी महत्वपूर्ण टाईब्रेकर बन गए हैं. अब कोई और सेल्फ-गोल नहीं हो सकता.

(लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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