scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतसौन्दर्य प्रतियोगिताएं क्यों....और क्यों नहीं?

सौन्दर्य प्रतियोगिताएं क्यों….और क्यों नहीं?

इन दोनों दृष्टिकोणों के द्वंद्व के बीच वे विभिन्न धर्म तो अपनी तरह से अपनी भूमिका निभाते ही हैं, जो सारे के सारे इस अर्थ में स्त्री के विरुद्ध हैं कि किसी भी धर्म का ईश्वर स्त्री नहीं है, बाजार भी कुछ कम भूमिका नहीं निभाता.

Text Size:

पिछले दिनों चंडीगढ़ की इक्कीस वर्षीया ऐक्टर-मॉडल हरनाज संधू ने मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता का ताज अपने नाम क्या किया, देश में सौंन्दर्य प्रतियोगिताओं के औचित्य व अनौचित्य को लेकर उन बहसों की पुनरावृत्ति-सी हो गई, जो पहली बार जोर-शोर से तब की गई थीं.

जब भूमंडलीकरण व्यापने के बाद इनमें व्यावसायिकता का नया तड़का लगाया गया था और एक के बाद एक कई विश्व सुन्दरियां भारत के हिस्से आई थीं-‘मिस वल्र्ड’ भी और मिस यूनिवर्स भी.

अन्यथा 1966 में रीता फारिया के बाद अपनी दूसरी विश्व सुन्दरी ऐश्वर्या राय के लिए उसे 1994 तक प्रतीक्षा करनी पड़ी थी.

सौंन्दर्य प्रतियोगिता

उन दिनों अनेक लोगों को इन प्रतियोगिताओं में पितृसत्तात्मक पैमानों के तहत स्त्री शरीर की नापजोख पर गहरे एतराज तो थे ही, वे मिस वल्र्ड प्रतियोगिता के ध्येय ‘ब्यूटी फार परपज’ का मजाक उड़ाते हुए कहते थे कि उसका एकमात्र मकसद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्पादित सौंन्दर्य प्रसाधनों के प्रमोशन के लिए स्वदेशी माॅडल उपलब्ध कराना है. बाद में कई भारतीय विश्व सुन्दरियों ने अपनी सुन्दरता का ज्यादातर श्रेय देश या उसकी प्रकृति के बजाय उक्त कम्पनियों के प्रसाधनों को देकर उनको सही भी सिद्ध किया था.

लेकिन तब से अब तक देश की नदियों में बहुत पानी बह चुका और भूमंडलीकरण के जाये आकांक्षा व प्रतीक्षा के द्वंद्व और ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ जैसे नारों को व्यापक स्वीकृति मिल चुकी है. साथ ही पुराने संकीर्ण नैतिक मानदंड भी काफी हद तक टूट गये हैं. इसलिए हरनाज के ‘मिस यूनीवर्स’ बनने के बाद शायद ही किसी को उक्त बहसों की ऐसी पुनरावृत्ति की उम्मीद रही हो. इस कारण कि युवा पीढ़ी के बड़े हिस्से में आमसहमति है कि इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल में इक्कीस वर्षीया हरनाज ने इक्कीस साल बाद देश के लिए मिस यूनीवर्स का खिताब जीतकर उसको और इक्कीस बना दिया है.

लेकिन इस पर बहस हो रही है तो मानना होगा कि ऐसे लोगों की आज भी कमी नहीं है जो सौंन्दर्य प्रतियोगिताओं के औचित्य पर पिछली शताब्दी के आखिरी दशक वाले सवाल फिर से पूछने में दिलचस्पी रखते हैं.


यह भी पढ़े: कोरोना के कहर से लेकर कृषि कानूनों की वापसी तक, ऐसा रहा 2021 का सफर


अरबों डॉलरो मे बिकती सुन्दरता

उनकी मानें तो ये प्रतियोगिताएं आयोजित तो स्त्री सौंन्दर्य को एक खांचे में फिटकर उसके प्रदर्शन के लिए की जाती हैं, लेकिन इन्हें लेकर भ्रम पैदा किया जाता है कि उनमें बाहरी सौंन्दर्य की नहीं, आंतरिक, बौद्धिक और भावनात्मक सौन्दर्य की भी प्रतियोगिता होती है. इसीलिए उनमें कुछ ‘बुद्धिजीवी’ जज प्रतियोगियों से ऐसे सवाल पूछते हैं जिनसे वे साबित कर सकें कि उन्होंने सिर्फ अपनी त्वचा ही नहीं चमकाई है और सच पूछिये तो आंतरिक, बौद्धिक व भावनात्मक सौन्दर्य से परिपूर्ण ’पूर्ण सौन्दर्य ’ की प्रतिमा हैं. तिस पर ‘पूर्ण सौन्दर्य’ के जान बूझकर रचे जाने वाले मिथक के पार इन प्रतियोगिताओं का एक बुरा पहलू यह भी है कि इनमें स्त्री सौन्दर्य को सहजता व सरलता से परे विशेषज्ञों के प्रमाण-पत्रों का मोहताज बना दिया गया है क्योंकि अरबों डॉलर के सौंन्दर्य प्रसाधन उद्योग को स्त्री को देह तक सीमित कर सेक्सी बनाये रखने में ही लाभ दिखता है.

उनके आलोचक कहते हैं कि वास्तविक सौंन्दर्य में संवेदनशीलता समेत कई ऐसी चीज़ें भी शामिल होती हैं, जिन्हें मापा-तौला नहीं जा सकता, लेकिन इन प्रतियोगिताओं में सौंन्दर्य का पूरा विचार ही शारीरिक सुंदरता तक सीमित है. इस कारण खेतों में दिन-रात खटने और अपने बच्चे को घर पर छोड़कर मेहनत से चार पैसे कमाने वाली कोई श्रमजीवी महिला श्रम के सौंन्दर्य से कितनी भी आपूरित क्यों न हो, इनके मानकों पर खरी नहीं उतर सकती. आम लोगों के सवालों को लेकर लड़ने वाली मेधा पाटकर या दशकों अनशन पर बैठी रही इरोम शर्मिला में इन प्रतियोगिताओं के आयोजकों को कोई सुन्दरता नहीं दिखती, जबकि वास्तविक सौंन्दर्य दुनिया के दुखों को देखने, महसूस और दूर करने के उपाय सुझाने वाली संवेदनशीलता में निहित है.

स्त्री ईश्वर नहीं है

हम जानते हैं कि न ये तर्क पहली बार दिये जा रहे हैं, न ही उनसे जुड़े सवाल अनुत्तरित हैं. दशकों पहले पूछा जा चुका है कि अगर मुक्केबाजी जैसी अमानवीयता को पौरुष के प्रदर्शन के नाम पर खेल के तौर पर मान्यता दी गई है तो स्त्री सौंन्दर्य की प्रतियोगिताओं ने भला क्या बिगाड़ा है? इसका जवाब जो भी हो, समस्या यह भी है कि स्त्री सौंन्दर्य को लेकर विभिन्न समाजों में अभी भी परस्परविरोधी व विरोधाभासी सोच प्रचलित हैं. कोई समाज यह नहीं कहता कि स्त्री देह में सौंन्दर्य नहीं हैं. बल्कि हर समाज अपनी महिलाओं को ही सबसे सुन्दर मानता आया है, पर उनमें कोई इस सौंन्दर्य को ढक-छुपाकर रखने का हिमायती है तो कोई उनकी हिमायत को पोंगापंथी व स्त्री व्यक्तित्व के विकास में बाधाएं डालने वाला करार देता और ऐसे प्रगतिशील मूल्यों की हिमायत करता है जिनमें यह फैसला स्त्री पर ही छोड़ देने पर जोर होता है कि वह अपना कितना शरीर ढकना चाहती है और कितना खोलना.

इन दोनों दृष्टिकोणों के द्वंद्व के बीच वे विभिन्न धर्म तो अपनी तरह से अपनी भूमिका निभाते ही हैं, जो सारे के सारे इस अर्थ में स्त्री के विरुद्ध हैं कि किसी भी धर्म का ईश्वर स्त्री नहीं है, बाजार भी कुछ कम भूमिका नहीं निभाता.

हां, बाजार की भूमिका को पूंजीपरस्त कहकर कितनी भी आलोचना क्यों न की जाये, उसने अपने लाभ के लिए ही सही, स्त्री के लिए कम से कम इतना तो किया ही है कि धर्मों ने जिस शरीर को उसकी कमजोरी बना रखा था, वह उसकी शक्ति बन गया हैै. इसका लाभ उठाकर वह जीवन के विविध क्षेत्रों में अपना नया भविष्य सृजित कर रही है. अब वह न सिर्फ शहरों बल्कि गांवों में भी घूंघट के अंधे युग से बाहर निकल आई है और अपने बालों को कंधों पर लहराकर या संवारने के बाद उनकी एक लट माथे के आगे निकालकर स्वाभिमानपूर्वक चल सकती है.

सवाल है कि ऐसे में स्त्री समाज, बाजार व धर्मों में से किसे अपना वास्तविक शुभचिन्तक माने और अपने संघर्षों का साथी बनाये? और जवाब इस प्रतिप्रश्न से होकर गुजरता है कि जब यह बाजार इस रूप में नहीं था तो क्या समाजों व धर्मों ने स्त्री को और तो और, उसके न्यायोचित अधिकार भी दिये? इतिहास गवाह है कि वे उस पर अपनी नैतिकताओं का तो सारा बोझ डालते रहे, लेकिन उसकी हकतल्फी में पितृसत्ता के कदम से कदम मिलाकर ही चलते रहे. अब जब उसने नाना संघर्षों से खुद को उनके सात तालों वाले अंधेरे दौर से बाहर निकाल लिया है तो उनके अलमबरदारों के स्त्री शुभचिन्तक बनकर नैतिक सवाल उठाने का हासिल क्या है?

उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि जब वे खुद हमेशा के लिए स्त्रियों को इस्तेमाल करते नहीं रह पाये तो उन्हें क्यों लगता है कि बाजार या पूंजीवाद ही स्त्रियों को हमेशा इस्तेमाल करते रह सकेंगे? बढ़ती चेतना और मंजिलें तय करते संघर्षों की बिना पर एक दिन स्त्रियां उसके फंदे से भी बाहर क्यों नहीं निकल आयेंगी या उससे अपनी शर्तें क्यों नहीं मनवा लेंगी? अभी जो कुछ हो रहा है, उसे उनके उन दिनों की कीमत चुकाने के तौर पर क्यों नहीं देखा जा सकता-खासकर जब वे कई तरफ से घिरी हुई हैं?

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़े: अर्थव्यवस्था की खातिर मोदी और RBI के लिए 2022 का मंत्र- शांति से सुधार जारी रखें


share & View comments