कांग्रेस सोशल जस्टिस और ओबीसी की ओर करवट ले रही है. अगर आप कांग्रेस को गौर से देख रहे हैं तो ये आपको आसानी ने नजर आ जाएगा. लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों को ये बदलाव नजर नहीं आया, क्योंकि ये बेहद चुपचाप हुआ है. सबसे पहले इन बिंदुओं पर विचार करें.
1- कांग्रेस ने अपने इतिहास में पहली बार ओबीसी डिपार्टमेंट बनाया है, इसका उद्घाटन स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने किया. इस डिपार्टमेंट के अध्यक्ष कांग्रेस के सांसद रहे ताम्रध्वज साहू हैं, जो अब छत्तीसगढ़ सरकार में मंत्री भी हैं.
2- कांग्रेस की इस समय जिन राज्यों में सरकार है उनमें से पुद्दुचेरी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ओबीसी के मुख्यमंत्री हैं. पंजाब में जाट मुख्यमंत्री हैं. मध्य प्रदेश में खत्री मुख्यमंत्री हैं, लेकिन मध्य प्रदेश कैबिनेट में 10 मंत्री ओबीसी हैं. जबकि सिर्फ दो मंत्री ब्राह्मण हैं. कर्नाटक में भी इससे पहले ओबीसी के सिद्धारमैया मुख्यमंत्री थे. कर्नाटक के कांग्रेस समर्थित मुख्यमंत्री भी ओबीसी हैं.
3- मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने घोषणा की है कि राज्य में जो ओबीसी आरक्षण अब तक 14 परसेंट था, उसे बढ़ाकर 27 परसेंट किया जाएगा और इसे अध्यादेश लाकर लागू भी कर दिया.
4- कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पिछले दिनों ये बयान दिया कि वे कुर्मी जाति के हैं. कांग्रेस में इसकी होड़ लगी हुई है.
5- कांग्रेस का 2019 का घोषणा पत्र बनाने के क्रम में जिन मसलों पर अलग अलग उपसमितियां विचार कर रही हैं, उनमें से एक उपसमिति ओबीसी मामलों की भी है.
6- जब कोर्ट ने यूनिवर्सिटी में टीचर पदों पर नियुक्ति के लिए अब तक लागू रोस्टर को निरस्त करने का फैसला किया तो राहुल गांधी ने ट्वीट करके लिखा कि कांग्रेस एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण के पक्ष में है और पुराना रोस्टर बहाल होना चाहिए.
7- रोस्टर मुद्दे पर 5 मार्च को हुए भारत बंद का कांग्रेस एससी सेल, युवा कांग्रेस और एनएसयूआई ने समर्थन किया.
8- कांग्रेस ने एक ओबीसी केशव चंद यादव को यूथ कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है.
9- राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ओबीसी जातियों के तीन दलों- महान दल, निषाद पार्टी और अपना दल के किसी एक हिस्से के साथ तालमेल करने जा रही है.
कांग्रेस का बेशक अब तक क्लेम रहा है कि देश के हर तबके की पार्टी है, लेकिन व्यवहार में इसका नेतृत्व हमेशा से सामाजिक इलीट के हाथ में रहा है. प्रतीक के तौर पर बेशक इसका अध्यक्ष किसी भी जाति से हो लेकिन इसकी अपनी सत्ता संरचना हमेशा से सवर्ण हिंदू पुरुषों की तरफ झुकी रही है. इस संरचना के साथ कांग्रेस अलग अलग सामाजिक-धार्मिक-जातीय समूहों को जोड़कर सत्ता का समीकरण बनाती रही है.
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आजादी के समय तो तमाम समूह इससे जुड़े थे, लेकिन जब प्रतियोगी राजनीति शुरू हुई तो किसान और पिछड़ी जातियां तथा राजा-महाराजाओं का एक समूह इससे अलग हो गया. पिछड़ों का बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय दलों और समाजवादी विचारधारा वाली पार्टियों के साथ चला गया. उसी समय कांग्रेस ने ब्राह्मणों के नेतृत्व में दलितों और मुसलमानों को जोड़कर एक समीकरण बनाया, जो लंबे समय तक असरदार था. कांशीराम के बहुजन आंदोलन के बाद उत्तर प्रदेश में दलितों ने अपना नया ठिकाना खोज लिया, तो बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुसलमानों का कांग्रेस पर से भरोसा टूटा और वे तमाम तरह के विकल्प आजमाने लगे. लेकिन इस दौर में भी कांग्रेस का ब्राह्मण और सवर्ण कोर बचा रहा.
इसमें सबसे बड़ी दरार बीजेपी ने डाली है. राम मंदिर आंदोलन और हिंदुत्व के सवाल पर अक्रामक राजनीति करके बीजेपी ने कांग्रेस के इस सवर्ण ब्राह्मण केंद्रित कोर को तोड़ लिया है. इन वोटों की सबसे बड़ी दावेदार अब बीजेपी है. कांग्रेस ने इसी बीच 1993 में मंडल कमीशन की सिफारिश को मानते हुए केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 परसेंट ओबीसी आरक्षण लागू कर दिया. 2006 में ओबीसी आरक्षण केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में लग गया. इससे कांग्रेस से जुड़े सवर्ण छिटक गए.
कांग्रेस की समस्या यह है कि सवर्ण और उसमें भी मुख्य रूप से ब्राह्मण उसे वोट नहीं देते लेकिन पार्टी वही चला रहे हैं. अब अगर कांग्रेस चाहे कि ब्राह्मण उसके पास लौट आए, तो ये आसान नहीं है. बीजेपी ने 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण देकर सवर्णों को और मजबूती से जोड़ लिया है. वह एससी-एसटी-ओबीसी हितों के खिलाफ जितना काम करती है, उसका सवर्ण वोट और मजबूत होता है. भाजपा ये इसलिए कर पा रही है क्योंकि हिंदुत्व या सीमा पर तनाव का मुद्दा उठाकर वो एससी-एसटी-ओबीसी के एक हिस्से को जाति से ऊपर लाकर अपने साथ जोड़ लेती है.
इसके अलावा बीजेपी ने 90 के दशक में सोशल इंजीनियरिंग करके राज्यों की कमान ज्यादातर ओबीसी नेताओं को सौंप दी. हालांकि पार्टी संगठन पर आरएसएस और ब्राह्मण नेताओं का कंट्रोल वहां बना हुआ है. अब तो उसने एक ऐसे आदमी को प्रधानमंत्री बना दिया है, जो बार-बार ये दावा करते हैं कि वो पिछड़ी जाति के हैं.
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कांग्रेस का रास्ता कठिन है. वह बीजेपी जितनी अक्रामक सांप्रदायिक राजनीति अब कर नहीं पा रही है. लेकिन सामाजिक न्याय की ओर उसका आना भी आसान नहीं है. अगर वो इन वंचित जातियों के लिए काम करती भी है तो उसके पास वो पार्टी ढांचा नहीं है, जो इन जातियों को कांग्रेस से जोड़े. वे इन जातियों का भला तो फिर भी कर पाएगी, लेकिन उनकी पार्टी नहीं बन पाएगी. कांग्रेस के पास इन जातियों से पर्याप्त और कद्दावर नेता नहीं हैं. कांग्रेस अगर अपने मौजूदा नेताओं से कहती है कि ऐसा नेताओं को पार्टी में लेकर आएं, तो वे ऐसा होने नहीं देंगे.
कुल मिलाकर कांग्रेस ने बीच का रास्ता चुना है और ऐसा करने के क्रम में कांग्रेस एक महत्वपूर्ण बदलाव की ओर बढ़ रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
