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Sunday, 22 December, 2024
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हार्दिक के चुनाव लड़ने पर रोक क्या जनांदोलनों की मौत की इबारत है?

अंग्रेजी राज के समय से ही जनांदोलनों में मुकदमा होना या निचली अदालतों में सजा हो जाना कोई दुर्लभ बात नहीं है. निचली अदालतों के आदेश के आधार पर चुनाव लड़ने से अयोग्य करार दिए जाने के कानून पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए.

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गुजरात में हार्दिक पटेल एक तूफान की तरह आए. पाटीदार आरक्षण के अगुआ के रूप में जब उन्होंने आंदोलन शुरू किया, उसके पहले हार्दिक को जानने वाला कोई नहीं था. मीडिया से लेकर सरकार तक तलाश करने में जुट गई कि यह कौन युवा है, जिसने गुजरात में लाखों लोगों की रैली कर दी. संभवतः हार्दिक भारत के पहले ऐसे आंदोलनकारी हैं, जिन्होंने महज 21-22 साल की उम्र में इतनी विशाल जनसभा की. उस जनांदोलन के बाद हार्दिक केंद्र व गुजरात की भाजपा सरकार की मुखर आवाज बनकर उभरे. उसी आंदोलन में भड़की हिंसा के क्रम में उन पर एक मुकदमा दर्ज हुआ, उन्हें दो साल की सजा हुई. जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(3) के तहत वे अब चुनाव लड़ने के य़ोग्य नहीं रह गए. इससे पहले उनके खिलाफ राजद्रोह का केस भी लगाया गया था, जिसे कोर्ट ने निरस्त कर दिया.

भारत में आमतौर पर उन नेताओं को सम्मान के तौर पर देखा जाता रहा है, जो जनांदोलनों से निकले हैं. चाहे वह छात्र राजनीति के दौरान फीस में बढ़ोत्तरी के खिलाफ आंदोलन हो, रेलवे की हड़ताल हो, स्थानीय समस्याओं और जनता की तकलीफों को लेकर हो रही मांगें हों. हार्दिक पटेल ने भी अपने समुदाय के लिए आरक्षण आंदोलन चलाया, जो पटेलों की सकारात्मक प्रतिक्रिया के हिसाब से ऐतिहासिक रहा. हम आंदोलन के उद्देश्य से भले असहमत हों, लेकिन इस पर संदेह नहीं किया जा सकता कि वह बड़ा आंदोलन था और लोगों में इसे समर्थन मिला.


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जन आंदोलन सामान्य तौर पर सरकार के खिलाफ होते हैं. अंग्रेजों के शासनकाल में सत्ता का विरोध राजद्रोह माना जाता था. वह कानून अब भी मौजूद है. जब भारत स्वतंत्र हुआ तो अमूमन वही नेता सरकार में शामिल हुए, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी, जिनके खिलाफ अदालतों ने सजा सुनाई और जिन्होंने लंबा समय जेलों में बिताया था. इसके बाद भाषा के आधार पर राज्यों के गठन के आंदोलन हुए और इससे निकले नेता भी सत्ता तक पहुंचे.

अगली पीढ़ी में जयप्रकाश नारायण (जेपी) का आंदोलन प्रमुख माना जाता है. जेपी आंदोलन से लालू प्रसाद, राम विलास पासवान, जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार, बीजू पटनायक, सुशील मोदी, रविशंकर प्रसाद सहित अनेक चेहरे सामने आए, जो अब तक भारतीय राजनीति में छाए हुए हैं. इसके अलावा असम में प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन से लेकर, झारखंड आंदोलन, गोरखालैंड आंदोलन, तेलंगाना अलग राज्य आंदोलन वगैरह के नेताओं ने भी सरकार बनाई या सरकार में शामिल हुए.

हार्दिक ने राज्य में पटेल समुदाय के आरक्षण के लिए जोरदार आंदोलन चलाया था. आरक्षण की मांग को लेकर पहले तमाम छोटी-मोटी गतिविधियां हुईं. पटेलों की सबसे बड़ी रैली 25 अगस्त 2015 की महाक्रांति रैली रही. हार्दिक ने कहा कि हम भीख नहीं, केवल अपना हक मांग रहे हैं. उन्होंने गुजरात में 6 हजार किसानों की खुदकुशी का भी हवाला दिया और इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया.

25 अगस्त को शाम होते-होते गुजरात में आरक्षण मांग रहा पटेल समुदाय हिंसक हो गया. शाम को हार्दिक पटेल को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. इससे लोग भड़क गए. माहौल बिगड़ता देख सरकार ने घंटेभर बाद ही हार्दिक पटेल को छोड़ दिया. लेकिन तब तक अहमदाबाद, सूरत समेत 12 से ज्यादा शहरों में पटेल समाज के लोग सड़कों पर उतर आए. मेहसाणा में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री रजनी पटेल के घर और गांधीनगर समेत कई शहरों में कलेक्टर और एसपी दफ्तर में भी आग लगा दी गई. देर रात अहमदाबाद, सूरत, मेहसाणा, ऊंझा, विसनगर में कर्फ्यू लगा दिया गया. 2002 के दंगों के बाद पहली बार गुजरात में इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और कर्फ्यू लगायी गई.

हार्दिक जिस पाटीदार जाति के लिए आरक्षण की मांग कर रहे थे वे मुख्य रूप से गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में रहते हैं. मध्य प्रदेश के पाटीदारों को पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण मिला हुआ है. माना जाता है कि पंजाब के कुर्मी 15वीं सदी के आसपास गुजरात में बस गए. उन्हें गुजरात के शासक सोलंकी राजाओं ने पेटलैड तालुका में गैर कृषि भूमि आवंटित किया, जिसे कुर्मियों ने खेती योग्य बनाया. सोलंकी राजाओं ने कुर्मियों से कर समझौता किया और उन्हें पाट के हिसाब से फसलों के रिकॉर्ड रखने की जिम्मेदारी सौंपी. रिकॉर्ड रखने वाले को पाटलिक कहते थे, जिसे संक्षेप में पटेल कहा जाने लगा. पटेलों में दो वर्ग हैं. लेउआ पटेल और कड़वा पटेल. हार्दिक पटेल के आंदोलन में दोनों ही शामिल हुए.

गुजरात में ज्यादातर पटेल खेतिहर हैं. खेती से जुड़े कुटीर उद्योगों के अलावा हीरे की तराशी से लेकर तमाम लघु उद्योगों में इनका हस्तक्षेप है. हालांकि नौकरियों में इनका प्रतिशत कम है, लेकिन लघु एवं कुटीर उद्योगों में अच्छी खासी दखल के कारण पटेलों की आर्थिक स्थिति मजबूत बनी रही. अब नोटबंदी, जीएसटी और वैश्विक मंदी जैसी वजहों से कुटीर और लघु उद्योग मंदी की चपेट में है.

हार्दिक की राष्ट्रीय स्तर पर अपील को देखते हुए उन्हें कांग्रेस ने अपने दल का स्टार प्रचारक बनाया है. लोकसभा चुनाव की घोषणा और कांग्रेस में शामिल होने के पहले वे उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान समेत दर्जनों किसान सभाएं कर चुके थे. पूर्वांचल के पिछड़े इलाके कुशीनगर के एक कस्बे में किसान सम्मेलन कर उन्होंने प्रेक्षकों को चौंका दिया, जहां 20,000 से ज्यादा लोग उन्हें सुनने जमा हो गए और करीब सभी दलों के किसान जातियों के नेताओं ने सम्मेलन में हिस्सा लिया. हार्दिक की अपील सिर्फ गुजरात के पाटीदार में नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश के कुर्मी, राजस्थान व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गुर्जर और महाराष्ट्र के मराठा समुदाय में भी है.


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2015 में हुए दंगे में निचली अदालत ने हार्दिक को दोषी करार देते हुए 2 साल की सजा सुनाई है. इसके खिलाफ वह उच्च न्यायालय में पहुंचे, जहां उन्होंने अदालत के फैसले पर स्थगनादेश देने की मांग की, ताकि वे लोकसभा चुनाव लड़ सकें. हाईकोर्ट ने इस मसले में राहत देने से इनकार कर दिया तो हार्दिक सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस याचिका में तत्काल सुनवाई योग्य कुछ नहीं पाया. इस तरह तय हो गया कि हार्दिक पटेल इस बार का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं.

हालांकि हार्दिक कह रहे हैं कि उनकी उम्र ही 25 साल है और उन्हें चुनाव लड़ने की जल्दबाजी नहीं है. लेकिन देश की संसद को इस बारे में विचार करना चाहिए कि निचली अदालत के फैसले के आधार पर चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराए जाने की राजनीति और समाज पर क्या असर हो सकता है. कहीं ये कानून आंदोलनकारियों को राजनीति में आने से रोकने का जरिया न बन जाए?

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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