हार्दिक पटेल का भाजपा में शामिल होना इस बात को पुनः साबित करता है कि बहुसंख्यकवाद और सांप्रदायिकता को वैचारिक चुनौती देने का साहस और क्षमता जातीय पहचान की राजनीति के पास नहीं है. जातीय पहचान के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी आरक्षण और प्रतिनिधित्व तक ही सिमट कर रह गयी है.
जाति आधारित आइडेंटिटी पॉलिटिक्स (पहचान की राजनीति) ने हिंदू राजनीतिक गोलबंदी को जरूर कुछ दिनों तक रोक कर रखा, परंतु इसका एक दूरगामी परिणाम यह रहा कि जातीय पहचान की राजनीति ने हिंदू धार्मिक पहचान को सहर्ष स्वीकार किया.
अर्थात जब कोई जाट, गुज्जर, यादव, पाटीदार आदि जाति के आधार पर कोई आंदोलन या राजनीति करता है तब उसकी हिंदू धार्मिक पहचान बनी रहती है और यही हिंदू धार्मिक पहचान तब गोलबंद हो जाती है जब मसला मंदिर-मस्जिद और मुसलमानों का हो.
हार्दिक पटेल ने भी भाजपा में शामिल होते वक्त गाय पूजन जैसे प्रतीकों को अपनाकर यह बताने की कोशिश की कि वह पाटीदार नेता के साथ-साथ हिंदू भी हैं.
यानी राजनीतिक तौर पर जातीय पहचान होने के साथ-साथ मैक्रो हिंदू धार्मिक आयडेंटिटी (जो कि समय-समय पर हिंदू राजनीतिक गोलबंदी का हिस्सा भी बनती है) आज की भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा सच है. दो चार अपवादों को यदि छोड़ दें तो ऐसा कोई जाति आधारित क्षेत्रीय राजनीतिक दल नहीं है जो भाजपा के साथ राजनीतिक गठबंधन में न रहा हो.
उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में बसपा, अनुप्रिया पटेल का अपना दल, बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड, लोक जनशक्ति पार्टी, जीतनराम मांझी की पार्टी, बंगाल में ममता बनर्जी, दक्षिण में अन्नाद्रमुक आदि.
वजह साफ है कि भले राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए समर्थक अपने जातीय नेता और दल के साथ रहते हों लेकिन उनकी धार्मिक पहचान तो हिंदू ही है. इसलिए ऐसे दलों को भारतीय जनता पार्टी के साथ समय-समय पर गठबंधन करने में कोई खास परेशानी नहीं होती.
यह भी पढ़ें: ज्ञानवापी मसले पर मोदी और भागवत के विचार मिलते हैं लेकिन इस पर संघ परिवार में क्या चल रहा है
पहचान की राजनीति
इसी तरह हिंदुस्तान में हिंदुस्तानी मुसलमानों के बीच मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातियों के उत्थान की पसमांदा राजनीति इसलिए सफल नहीं हो सकी क्योंकि मुस्लिम की धार्मिक पहचान मुस्लिम के भीतर शेख, पठान, क़ुरैशी आदि जातीय पहचान अधिक महत्वपूर्ण और ताकतवर है.
पसमांदा राजनीति के नेता अली अनवर अंसारी द्वारा अपनी किताब ‘मसावात की जंग ’ और ‘पसमांदा मुस्लिम महाज़’ जैसी संस्था के सहारे मुस्लिमों के भीतर पिछड़ी जातीय पहचान की राजनीति भारतीय लोकतंत्र में भाजपा के बढ़ते कद के साथ कमजोर होती चली गई. वर्ष 2006 से वर्ष 2017 तक राज्य सभा के सदस्य रह चुके अली अनवर अंसारी अपने राजनीतिक पद के साथ-साथ राजनीतिक पहचान भी खोते जा रहे हैं. आज न ही वो किसी राजनीतिक पद पर हैं और न ही उनकी पसमांदा राजनीति ही चल पा रही है.
वर्ष 2015 में शुरू हुए पाटीदार आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व व संचालन करने के एवज़ में हार्दिक पटेल पर देशद्रोह जैसे गंभीर अपराध का मुकदमा किया गया और उन्हें महीनों जेल में बंद रखा गया. कुछ ही समय के भीतर हार्दिक पटेल को एक राष्ट्रीय पहचान मिली जिसमें भाजपा विरोधी उनकी पहचान निहित थी और संभवत: यही कारण था कि वर्ष 2020 में हार्दिक पटेल ने विधिवत तौर पर कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली.
परंतु, हार्दिक पटेल इस दौरान कभी नागरिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर मुखर नहीं रहे. यानी उनकी राजनीति पाटीदार आंदोलन तक ही सीमित रही. ऐसा क्यों हुआ?
क्या भारतीय राजनीति में अब नागरिक स्वतंत्रता, धर्म-निरपेक्षता, बेरोज़गारी, विचारों की स्वतंत्रता जैसे मुद्दों की प्रासंगिकता नहीं रही है? शायद हां, क्योंकि जब लंबे वक्त तक देश पहचान की राजनीति में उलझा रहे तो बाकी मुद्दों की प्रासंगिकता खत्म होना लाज़मी है.
यह भी पढ़ें: पर्यावरण को लेकर लोगों में लगातार बढ़ रही उदासीनता, भुगतने पड़ेंगे बुरे नतीजे
जातीय जनगणना से जगी उम्मीद
अब चूंकि मुद्दों की प्रासंगिकता बची नहीं और जातीय पहचान की राजनीति लगातार कमजोर हो रही है तो जातीय पहचान की राजनीति को जातीय जनगणना से काफी उम्मीद है. जातीय पहचान केंद्रित राजनीति करने वाले आरजेडी, सपा, आदि राजनीतिक समूहों को उम्मीद है कि जातीय जनगणना एक बार फिर से आरक्षण और जातीय प्रतिनिधित्व की राजनीति के दायरे का विस्तार करेगी जिससे धर्म आधारित हिंदू गोलबंदी कमजोर पड़ेगा और जातीय गोलबंदी एक बार पुनः राजनीतिक डिसकोर्स में स्थापित हो पाएगा.
भले ही जातीय जनगणना की संभावना से हिंदुत्व की राजनीति विचलित है और उसका विरोध कर रही है और यह भी संभव है कि कुछ समय के लिए हिंदुत्व की राजनीति कमजोर भी पड़ जाए जैसा कि 1930 के दशक के दौरान कमजोर पड़ी थी जब बाबा साहेब आंबेडकर और गांधीजी के बीच पिछड़ों के लिए आरक्षण/पृथक निर्वाचन प्रणाली के प्रावधान पर तना-तनी हुई थी. लेकिन कालांतर में हिंदू राजनीतिक गोलबंदी को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि कम से कम इतिहास इसी ओर इशारा कर रहा है.
1920 व 1930 का ही दशक था जब भारत में आरएसएस जैसे हिंदुत्ववादी संगठन का जन्म हुआ और हिंदू महासभा जैसी संस्था की राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापना हुई. भारतीय राजनीति में इसी हिंदुत्वीकरण और जाति आधारित पहचान के संबंधों के साथ-साथ जातिगत जनगणना के अन्य पहलुओं का अध्ययन करती हाल ही में एक किताब प्रकाशित हुई है.
संजीव कुमार द्वारा लिखी और नवारम्भ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किताब ‘जातिगत जनगणना: सब हैं राज़ी, फिर क्यों बयानबाज़ी ‘, ऐसे समय में सर्वाधिक प्रासंगिक हो जाती है जब वर्ष 2011 में भारत सरकार द्वारा ‘सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना’ और कर्नाटक सरकार द्वारा वर्ष 2015 में करवाई गई ‘सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना’ की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई है. ऐसे में बिहार सरकार द्वारा राज्य में जातिगत जनगणना करवाने का फैसला इस किताब को और प्रासंगिक बना देती है.
इस किताब के साथ-साथ आरजेडी, जेडीयू, सपा जैसी जातिगत जनगणना का समर्थक राजनीतिक तबका सामाजिक न्याय की लड़ाई में जातिगत जनगणना से काफी उम्मीद रखता है. लेकिन सामाजिक न्याय की लड़ाई के भीतर निहित नागरिकता और बंधुत्व की भावना का विकास, बेरोज़गारी, भुखमरी और बढ़ती असमानता जैसे मुद्दों की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं देता है.
जबकि सच्चाई यह है कि उपरोक्त मुद्दों के साथ संवाद किए बगैर बहुसंख्यकवाद और सांप्रदायिक राजनीति को चुनौती देना कठिन ही नहीं असंभव है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)
यह भी पढ़ें: मोदी सरकार की कश्मीर नीति सफल रही, असफल रही या वही है जो पहले थी