ऑपरेशन ‘सॉर्ड्स ऑफ आयरन’, जिसे हमास और ग़ाज़ा के बीच हुए युद्ध के नाम से जाना गया इस पर अनुमानित रूप से 100 बिलियन डॉलर का पड़ा जो कि दो साल से अधिक चला और फिर भी अपने घोषित सैन्य और राजनीतिक उद्देश्य हासिल नहीं कर सका.
इस युद्ध ने ग़ाज़ा को इस तरह ध्वस्त कर दिया कि फरवरी 1945 में ड्रेस्डेन पर एंग्लो-अमेरिकन बमबारी के बाद जैसा नुकसान हुआ था, वैसा अब तक नहीं देखा गया. उस मलबे के नीचे लगभग 14,000 शव हैं, जिन्हें शायद कभी पारंपरिक तरीके से दफनाया या अंतिम संस्कार नहीं किया जा सकेगा, इसके अलावा पहले से ही पुष्टि किए गए 67,806 से अधिक हत्याओं के आंकड़े हैं. ये संख्या उस विनाश के पैमाने को दर्शाती हैं, जिसके कोई माप योग्य परिणाम नहीं हैं.
आसमान छूती लागत, कम नतीजे
100 बिलियन डॉलर की राशि इज़रायल और इसके मुख्य सहयोगी अमेरिका के संयुक्त खर्च को दर्शाती है. इसमें इज़रायल का खर्च अनुमानित 67 बिलियन डॉलर से अधिक और अमेरिका का खर्च 30 बिलियन डॉलर से पार हो गया. इसमें लेबनान, यमन और ईरान जैसे अन्य देशों में की गई अलग-अलग कार्रवाई भी शामिल है. उपयोग की गई तकनीक, परिणाम हासिल करने के लिए तैनात मानवशक्ति और युद्ध का अंतिम परिणाम को ध्यान में रखते हुए यह एक असाधारण आंकड़ा है. अब जब कई देशों ने फिलिस्तीन राज्य को मान्यता दी है और संयुक्त राष्ट्र की जांच आयोग ने ग़ाज़ा पर युद्ध को नरसंहार करार दिया है, तो कूटनीतिक लागत इज़राइल के लिए 100 बिलियन डॉलर से कहीं अधिक है, जो कि निष्कर्षहीन युद्ध में खर्च हुआ.
इज़राइली सुरक्षा बलों के लिए हताहत होने की दर भी असाधारण रही. हालांकि, उनके पास मानवशक्ति में भारी श्रेष्ठता, संचालन क्षेत्र की सीमित जगह, हमास के नेतृत्व वाले मिलिशिया समूहों पर व्यापक तकनीकी फायदे और अमेरिका तथा अन्य देशों द्वारा युद्ध-संबंधी उपकरणों की लगातार आपूर्ति थी.
नेतन्याहू नेतृत्व वाली सरकार द्वारा जारी आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि सुरक्षा बलों में कुल 916 लोग मारे गए और हज़ारों घायल हुए, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इस सूची में लड़ाई में मारे गए कप्तानों की संख्या काफी अधिक है, जो बेहद महत्वपूर्ण आंकड़ा है.
पश्चिमी प्रकार की सेना में, जो सामान्यतः गैर-कमीशन अधिकारियों (NCOs) पर भारी निर्भर होती है, लड़ाई में मारे गए कप्तानों की संख्या यह संकेत देती है कि इन जवान अधिकारियों को लगातार सैन्य अभियानों का नेतृत्व करना पड़ा, बजाय इसके कि NCOs मिशन को अंजाम दें. हालांकि, इज़राइली सेना में जवान अधिकारियों और NCOs के बीच अधिक उम्र का फर्क नहीं है. उच्च रैंक के अधिकारियों की हताहत होने की संख्या भी महत्वपूर्ण है और यह कई कारणों—जांबाज़ी, कार्य की समझ, या फिलिस्तीनी मिलिशिया द्वारा विशेष रूप से लक्षित किए जाने—की ओर इशारा करती है. इतने अधिक कमांडरों का खोना असामान्य है.
यह और भी असाधारण है क्योंकि हमास के नेतृत्व वाले मिलिशिया ने तस्करी किए गए हथियारों, कुछ स्थानीय रूप से बनाए गए राइफल और अन्य उपकरणों, जैसे रॉकेट, पर निर्भर किया. अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने युद्ध शुरू होने से पहले अक्टूबर 2023 में हमास की सशस्त्र शाखा इज़ अल-दीन अल-कासम ब्रिगेड्स की कुल ताकत 20,000 से 30,000 सक्रिय लड़ाकों के बीच अनुमानित की थी, जबकि वे सिर्फ 365 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में कार्यरत थे, एशिया के इस हिस्से की सबसे उन्नत सैन्य मशीन के खिलाफ मुकाबला कर रहे थे और युद्ध विराम तक इज़राइली सेना से लगातार लड़ते रहे. यह किसी भी मिलिशिया समूह के लिए दुर्लभ उपलब्धि है और हमास अभी भी सशस्त्र है.
जैसा कि इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने बार-बार कहा, हमास का पूर्ण विनाश ऑपरेशन ‘सॉर्ड्स ऑफ आयरन’ का लंबे समय से घोषित राजनीतिक-सैन्य उद्देश्य था. हमास को बेअस्र करना, उसे समाप्त करना और अन्य इसी तरह के उद्देश्य युद्ध के बार-बार दोहराए गए लक्ष्य थे.
यहां तक कि जब संघर्ष के पहले महीनों से ही युद्ध विराम और बंधकों या कैदियों के आदान-प्रदान का विकल्प स्पष्ट था, तब भी युद्ध को केवल हमास को पूरी तरह से नष्ट करने के लिए जारी रखा गया. यह अभी तक नहीं हुआ है और अंततः दोनों पक्षों ने एक समझौते के तहत युद्ध विराम स्वीकार किया, जबकि हमास अब भी खड़ा है.
एक मिसाल, लेकिन टिकाऊ शांति नहीं
इज़राइल द्वारा लड़ी गई सबसे लंबी लड़ाई के बाद — जिसमें ग़ाज़ा पर जबरदस्त मात्रा में बम बरसाए गए, जिनमें अमेरिका के कुछ सबसे घातक हथियार भी शामिल थे — मिस्र के शर्म अल-शेख में एक शांति सम्मेलन के दौरान युद्धविराम समझौते पर मुहर लगी. कैदियों और मृतकों के अवशेषों का आदान-प्रदान हुआ और इस पूरे समझौते की बहुराष्ट्रीय निगरानी रही. कई देश मौजूद थे और अच्छी बात यह रही कि भारत ने भी इसमें भाग लिया.
लेकिन पश्चिम एशिया में ऐसे घटनाक्रमों का एक इतिहास रहा है और अक्सर इनका नतीजा जल्दी ही शून्य में बदल जाता है. पहले भी नोबेल शांति पुरस्कार साझा किए गए, हाथ मिलाए गए, और एक अमेरिकी राष्ट्रपति की मौजूदगी में ‘नए युग’ की घोषणा की गई, लेकिन उसके बाद भी युद्ध ही हुआ.
1982 की गर्मियों में इज़राइल ने ‘ऑपरेशन पीस फॉर गैलीली’ शुरू किया, ठीक कुछ साल बाद जब उसने मिस्र के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. यह समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर की मध्यस्थता में कैंप डेविड के लॉन पर हुआ था. उस समय इसे ‘नए युग की सुबह’ बताया गया, लेकिन उसके बाद लेबनान में मौत और तबाही आई — 600 से ज़्यादा इज़राइली सैनिक मारे गए.
वह समझौता दो पड़ोसी देशों — इज़राइल और मिस्र के बीच हुआ था, लेकिन पश्चिम एशिया की बेचैनी के असली कारण, यानी फिलिस्तीनियों, को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था. अब एक और शांति समझौता हुआ है स्पष्ट ‘शांति पुरस्कार’ की मंशा के साथ और एक बार फिर, फ़िलिस्तीनियों को शामिल किए बिना.
(मानवेन्द्र सिंह बीजेपी नेता हैं, डिफेंस एंड सिक्योरिटी अलर्ट के एडिटर-इन-चीफ और सैनिक कल्याण सलाहकार समिति के चेयरमैन हैं. उनका एक्स हैंडल @ManvendraJasol है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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