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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतहमारे बारह को लेकर गुस्सा दिखाता है कि मुसलमानों की हल्की आलोचना को भी इस्लामोफोबिया समझा जाता है

हमारे बारह को लेकर गुस्सा दिखाता है कि मुसलमानों की हल्की आलोचना को भी इस्लामोफोबिया समझा जाता है

बॉम्बे हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि हमारे बारह में कोई मुस्लिम विरोधी कंटेंट नहीं है और इसका उद्देश्य महिलाओं का उत्थान करना है.

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हमारे बारह विवादास्पद फिल्मों की फेहरिस्त में नई एंट्री है, जिसने प्रतिबंध की मांग को उकसाया है.

फिल्म के ट्रेलर लॉन्च होने के बाद से सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई है, जिसने लोगों को दो गुटों में विभाजित कर दिया है. ट्रेलर ने समाज में मुस्लिम महिलाओं द्वारा सामना किए जाने वाले संस्थागत उत्पीड़न के बदसूरत पक्ष को साहसपूर्वक दर्शाया है कि कैसे मौलवी महिलाओं के साथ ऐसे व्यवहार को मंजूरी देने के लिए धार्मिक आयतों की अपनी व्याख्या बनाते हैं. हालांकि, प्रतिवाद यह है कि फिल्म यथास्थिति को चुनौती देने वाली कलात्मक योग्यता के बारे में कम और घृणित प्रचार पर ज्यादा है जो बताती है कि मुसलमान जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं.

यह उसी पुराने पैटर्न के जैसा है जहां मुस्लिम समुदाय और धार्मिक भावनाओं से संबंधित हल्की आलोचना भी शत्रुतापूर्ण तरीके से की जाती है और उसे नफरत का जामा पहनाया जाता है. मुस्लिम समुदाय से कम उम्मीदें रखने की स्पष्ट कट्टरता है, जहां सामाजिक बुराइयों और समस्याग्रस्त मानसिकता को संबोधित करना पूरे समुदाय पर हमला माना जाता है, जबकि अन्य समुदायों ने भी प्रतिबंध लगाने की मांग की है या न्यायपालिका के दरवाज़े खटखटाए हैं, ऐसी फिल्मों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकारों और उदार मूल्यों से जुड़े लोगों का समर्थन मिला है.


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प्रतिबंध की राजनीति

बॉम्बे हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि हमारे बारह में कोई मुस्लिम विरोधी कंटेंट नहीं है, लेकिन उसने फिल्म में कुछ कट लगाने का सुझाव दिया है. कोर्ट ने निर्माताओं से फिल्म की शुरुआत में 12 सेकंड का डिस्क्लेमर देने को कहा है, जो दर्शकों को बहुविवाह की इस्लामी प्रथा के बारे में बताता है. इसके अलावा, निर्माताओं को 5 लाख रुपये का जुर्माना देना होगा क्योंकि ट्रेलर के कुछ दृश्यों ने सिनेमैटोग्राफ अधिनियम 1952 का उल्लंघन किया है. हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि फिल्म का उद्देश्य महिलाओं का उत्थान करना है और भारतीय जनता संदर्भ को गलत समझने वाली “भोली या मूर्ख” नहीं है. फिल्म में कुरान की ‘गलत व्याख्या’ के बारे में, कोर्ट ने कहा कि फिल्म में एक मौलवी द्वारा की गई व्याख्या शामिल है, जिसे अन्य मुस्लिम पात्रों ने चुनौती दी थी.

अगर अभी भी इस बात की चिंता है कि फिल्म नफरत फैलाती है, तो सवाल उठता है: हम कैसे तय करें कि फिल्म सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने वाली वास्तविक कलात्मक अभिव्यक्ति है या आपत्तिजनक है? पैरामीटर क्या है? सच तो यह है कि “कलात्मक योग्यता” और “आक्रामकता” की अवधारणाएं अस्पष्ट हैं और उनमें वस्तुनिष्ठता का अभाव है, जो सामाजिक प्राथमिकताओं और मानदंडों के साथ विकसित होती रहती हैं.

भारतीय धार्मिक समुदायों, खासकर मुसलमानों को, भावनाओं को ठेस पहुंचाने के कारण फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने की मांग करना बंद कर देना चाहिए. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाया नहीं जा सकता और न ही दबाया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से चुनौतीपूर्ण विषयों पर सार्थक बातचीत में बाधा आती है.

जब अदालतें जनहित याचिका (PIL) पर सुनवाई कर रही थीं, तब कर्नाटक सरकार ने संभावित सांप्रदायिक तनाव का हवाला देते हुए राज्य में फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया. यह पहली बार नहीं है जब किसी फिल्म पर राज्य या केंद्र सरकार ने प्रतिबंध लगाया है. 2023 में सरकार ने 2002 के गुजरात दंगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित भूमिका पर BBC की एक डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगा दिया था. इसने अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया.

सरकारें भाषण को प्रतिबंधित करने, आलोचनात्मक आवाज़ों को चुप कराने और अपने मतदाता आधार द्वारा नापसंद की गई फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने की शक्ति का इस्तेमाल करती हैं. हम यह भी देख सकते हैं कि कैसे राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति के लिए सामग्री प्रतिबंधों का समर्थन या विरोध करते हैं. इस शक्ति का पूर्वाग्रहों और राजनीतिक प्रेरणाओं के आधार पर आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है.

आज की परस्पर जुड़ी दुनिया में प्रतिबंध लगाने का कोई भी प्रयास निरर्थक है. इसके अलावा, यह धारणा कि प्रतिबंध सामाजिक मुद्दों को हल कर सकते हैं, बहुत ही दोषपूर्ण है. भारत सरकार समय-समय पर मुद्दों को संबोधित करने के लिए एक रणनीतिक दृष्टिकोण के रूप में फिल्मों की रिलीज़, शराब की बिक्री और यहां तक कि पोर्नोग्राफी पर भी प्रतिबंध लगाती है. हालांकि, ये प्रतिबंध आमतौर पर पैचवर्क की तरह काम करते हैं, जो समस्या की जड़ से निपटने के बजाय तत्काल समाधान पर ध्यान केंद्रित करते हैं. हालांकि किसी चीज़ पर प्रतिबंध लगाना अल्पावधि में मददगार हो सकता है, लेकिन यह शायद ही कभी टिकाऊ हो.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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