अगर उनका बस चले तो हमारे “ग्रेट इंडियन ब्यूरोक्रेट” वायुसेना के मार्शल भी बन बैठें. बोफोर्स ने हमारे रक्षा अधिग्रहणों को ठन्डे बस्ते में डाला था, संभव है रफाल उसकी कब्र ही खोद डाले
इतिहास फ़िलहाल इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं है कि क्या गूगल के पहले आया और क्या बाद में, यह बीस साल पुरानी कहानी बिलकुल उपयुक्त है क्योंकि यह बात 1998 के शुरुआत की है. जॉर्ज फर्नांडीस को अटल बिहारी कैबिनेट का आकस्मिक रक्षा मंत्री नियुक्त किया गया था, एक ऐसा फैसला जिसकी काफी आलोचना भी हुई. एक ट्रेड युनियन का नेता जो पैरों में चप्पलें और सिलवटों से भरा कुरता पजामा पहनता था, वह भला देश के सबसे औपचारिक और संभ्रांत मंत्रालय को कैसे चला पाता?
फर्नांडीस ने जिस तेज़ी से अपनी जगह बनाई, उससे हम सभी आश्चर्यचकित थे. उन्होंने जिस पहली चुनौती का सामन किया वह था शातिर सरकारी बाबुओं का घेरा था या यू कहें घेरे के अंदर कई घेरे थे जो न स्वयं कुछ करते न दूसरों को कुछ करने देते. नास्तिक फर्नांडीस (उन्होंने भगवान का नाम पर शपथ नहीं ली थी) के लिए सियाचिन ग्लेशियर एक तीर्थस्थान बन चुका था.
उन्होंने सियाचिन में रिकॉर्ड किये गए एक साक्षात्कार में मुझे बताया था ,” मेरा सबसे कष्टप्रद अनुभव यह रहा है कि रक्षा मंत्रालय में कोई आपको सीधे तौर पर मना नहीं करता. वे बस फ़ाइल चला देते हैं, आप उसका पीछा करते रहिये. इस दौरान युद्ध होते रहेंगे, आपकी जीत हो या हार, फ़ाइल चलती रहेगी. ”
अपनी एक यात्रा पर, उन्होंने पाया कि सैनिकों को ग्लेशियर पर जाने के लिए आयातित स्नोमोबाइल और स्कूटर की ज़रुरत थी. पता करने पर उन्होंने पाया कि उस बाबत चलायी गयी फ़ाइल अभी अपनी परिक्रमा पूरी नहीं कर पायी थी.
वापस आकर उन्होंने इस मसले के ज़िम्मेदार अफसरों की फाइलें निकलवाईं. उन्हें तत्काल सियाचिन भेजा गया, इस निर्देश के साथ की जबतक वे उन स्कूटरों का महत्त्व न समझ लें, लौटकर वापस न आएं.
यह दुखद है कि फर्नांडीस अब बोल नहीं सकते हैं, इसलिए हम केवल अनुमान लगा सकते हैं कि उन्होंने रक्षा मंत्रालय में संयुक्त सचिव और अधिग्रहण प्रबंधक (वायु) के बारे में क्या सोचा होगा, जिन्होंने रफाल फ़ाइल पर अपना असंतोष प्रकट करते हुए टिप्पणी लिखी थी .
अगर उन्होंने इसे पढ़ा होता तो वे तुरंत उसे एक शानदार रॉकेट वैज्ञानिक घोषित कर देते जो रफाल जैसी अत्यधिक ज़रुरत की वस्तु को भी फाइलों की तरह कक्षा में डालने में सक्षम था.
अगर तत्कालीन सीएजी भी यूपीए के समय जैसी ही दोषदर्शी हुई तो संभव है कि वे अब भी एक “व्हिसल – ब्लोअर ” के रूप में सामने आ जाएँ. अतः मैं एक सम्मानित नौकरशाह के ज्ञान पर प्रश्न उठाकर एक बड़ा जोखिम मोल ले रहा हूँ. मैं उनके उस कथित सझाव से बहुत प्रभावित हूँ जिसमें उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत 36 रफालों की जितनी कीमत डासाउ को देता, उतने में एचएएल कहीं अधिक सुखोई विमान तैयार कर सकती थी.
अब अगर हमें सस्ते और एचएएल द्वारा निर्मित सुखोई ही लेने थे तो बाहर जाने की ज़रुरत ही क्या थी? यह संभव है कि फर्नांडीस उनसे पूछते कि जब पैसों की ही बात है तो एक सुखोई की जगह एचएएल से 6 नए मिग-21 विमान क्यों न खरीदे जाएँ? और फिर उन्हें एक मिग ट्रेनिंग यूनिट में डालकर पायलट के पीछे वाली सीट पर बिठाकर हर सुबह सॉर्टी के लिए भेजते. एक ऐसा अफसर जो यह सोचे कि एक रफाल की कीमत में अधिक सुखोई मिलना फायदे का सौदा है, अवश्य ही फर्नांडीस की सियाचिन ट्रीटमेंट का भागी होता. वहीँ मेरी नज़र में यह अफसर एक “ब्लडी ब्यूरोक्रेट ” का शानदार उदहारण होता जिससे सेना के अफसर नफरत करते.
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मैने आजतक खरीद में हुए घोटाले के लिए किसी को जेल जाते हुए नहीं देखा. मैं बोफोर्स पीढ़ी के लोगों की गालियां सुनने का जोखिम उठाते हुए यह कह रहा हूँ. लेकिन तथ्य तो यही है कि घोटाले के पैसे को किसी भारतीय से नहीं जोड़ा जा सका था. यहाँ तक कि वीपी सिंह और वाजपेयी सरकार ने भी स्वीडन को उसके वादे की याद नहीं दिलाई. इसका मतलब यह नहीं कि घोटाला नहीं हुआ था. लेकिन शायद इस घोटाले को वोट बैंक बनाकर रखना आरोपियों के जेल भेजे जाने और पैसे की रिकवरी से ज़्यादा महत्वपूर्ण था.
बोफोर्स ने एक काम और किया और वह था गैर-रूसी स्रोतों से हमारे सैन्य अधिग्रहण को लगभग ख़त्म कर देना. इंदिरा गांधी द्वारा वर्ष 1982 में मिराज-2000 ऑर्डर किये जाने के बाद यह पहला मौका है जब भारत 36 साल बाद, रफाल की शक्ल में एक गैर रूसी लड़ाकू विमान खरीदेगा.
यह अत्यंत दुःख की बात होगी अगर रफाल खरीद भी भारतीय डिफेन्स प्लेबुक की बलि चढ़ जाए जो अब किसी वेद या शास्त्र से कम नहीं है. एक अत्यधिक आवश्यक आयटम को बीस वर्षों की टालमटोल के बाद खरीदो, फिर कुछ अफवाहें उठेंगी, हर इंसान दूसरे को चोर बोलेगा, चुनाव प्रचार में हथियारों के प्लास्टिक खिलौने दिखाए जाएंगे, कोई पकड़ा नहीं जाएगा, पहली खेप के बाद किसी में और कुछ खरीदने की हिम्मत नहीं बची होगी और हमारी सेनाएं कुछ इधर और कुछ उधर से खरीदकर भटकती रहेंगी, ठीक टॉयज़ “आर ” अस के लार टपकाते बच्चे की तरह. रफाल की भी वही परिणति होनी है. इसी तरह से हर आयुध प्रणाली संख्या और प्रभाव में सीमित रह जाती है.
चुनाव के इस मौसम में रफाल विवाद का सबसे आकर्षक कोलैटरल इफेक्ट रहा है एक नए “पूजनीय” , एचएएल का उदय. मैं मानता हूँ कि वर्तमान रिलायन्स-एडीएजी की तुलना में वह शानदार है लेकिन भारत में जड़ फैला चुके इस विशालकाय पीएसयू (भारत की सबसे बड़ी रक्षा कम्पनी) एकाधिकार को एक रियलिटी चेक दिए जाने की ज़रुरत है.
भारत के पास विश्व की चौथी सबसे विशाल सेना है. एचएएल नौसेना (66 प्रतिशत), थल सेना (100 प्रतिशत) , वायु सेना (75 प्रतिशत) और कोस्ट गार्ड (100 प्रतिशत) की विमानन आवश्यकताओं को पूरा करती है. आप आंकड़ों की जांच कर सकते हैं.
लगभग 18 ,0000 करोड़ रुपयों का इसका कारोबार भारतीय ट्रक निर्माता अशोक लेलैंड, इंडिगो एयरलाइंस (इंटरग्लोब एविएशन) और हिंदुजा परिवार के छोटे से बैंक इंडस-इंड, इन सबसे कम है. अगर आप किसी तरह से एचएएल को फॉर्चून 500 की भारत की लिस्ट में डाल भी दें तो उसका रैंक 80 -90 के बीच कहीं होगा. और ऐसा तब है जब एचएएल के पास बाज़ार पर एकाधिकार के साथ साथ बंधुआ खरीददार भी हैं. मिर्ज़ापुर और पानीपत के कुछ बुनकर भी इससे अधिक निर्यात करते हैं.
150 एचएफ -24 मरुत (भारत में निर्मित और बेकार ) एचएएल ने अबतक 4000 से अधिक विमान बनाये हैं और वे सारे के सारे लाइसेंसी प्रतिरूप या कॉपियां हैं. एचएएल का एक साधारण व्यापार मॉडल है: सरकार एक विदेशी विमान खरीदती है, एक सह-उत्पादन सौदा जोड़ती है और इसे एचएएल को उपहार में देती है.
इसने कई क्षेत्रों में काफी अच्छा काम करने के अलावा इसरो और एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एस्टाब्लिशमेंट (एडीई) के सहयोगी के रूप में भी काम किया है. लेकिन आत्मनिर्भरता का यहाँ कोई स्थान नहीं. यहाँ सारा काम “पकी पकाई” रूम सर्विस से चलता है. भारतीय वायुसेना भी एचएएल पर पूरा भरोसा नहीं करती. वर्तमान प्रमुख द्वारा तेजस के 12 स्क्वाड्रन खरीदे जाने की घोषणा पर मत जाइये. जो आपको नहीं बताया जा रहा वह यह है कि एचएएल का रिकॉर्ड देखते हुए, जबतक इनमें से आधे विमान भी बनकर तैयार होंगे, तबतक मानवचलित यानों का ज़माना ख़त्म हो चुका होगा, कम से कम तेजस की श्रेणी में तो अवश्य ही.
चाहे कोई पैसा चुराए या नहीं, हमारी रक्षा खरीद में निश्चित रूप से एक बड़ा घोटाला है. हम कुछ खरीदते नहीं हैं और सशस्त्र बालों को उनके हाल पर छोड़ देते हैं. एक हफ्ते में जब पुतिन का दौरा हों रहा है, नरेंद्र मोदी उन्हें एचएएल द्वारा भारत में बने मिग -21 उपहार में देंगे. दुःख की बात यह है कि हम अपना ही मज़ाक बना रहे होंगे क्योंकि यह हेरिटेज विमान भारतीय वायुसेना के अलावा कहीं और इस्तेमाल नहीं किया जाता.
हमारे निजी क्षेत्र के निर्माता वैश्विक स्तर के हैं और भारत उनका इस्तेमाल रक्षा क्षेत्र में न करके अपना ही नुकसान कर रहा है. कभी कभी तो ऐसा लगता है कि पूर्व जज मार्कण्डेय काटजू सही थे और भारत सच में मूर्खों का देश है. हम भारत में निजी क्षेत्र को हथियार नहीं बनाने देंगे लेकिन विदेशों में निजी कंपनियों से हथियार खरीदेंगे. डासाउ भी एक निजी कम्पनी ही है.
यूपीए ने इसपर विचार अवश्य किया था लेकिन एके ऐंटनी कुछ ख़ास कर नहीं पाए. मोदी सरकार ने एक नयी शुरुआत की और उसे मेक इन इंडिया का नाम दिया. यह सरकार निजी क्षेत्र के खिलाफ नहीं थी. लेकिन यह भी सच है कि इस सम्बन्ध की शुरुआत रिलायंस – एडीएजी से करने की आवश्यकता नहीं थी. और अगर ऐसा हुआ भी तो बेकार के घमंड और अस्पष्टता से हालात को और बिगड़ने देना बिलकुल अनावश्यक था. यहाँ आवश्यकता पारदर्शिता और सत्यवादिता की थी.
उपसंहार : क्या आप जानते हैं कि सिकोर्स्की एस-92 हेलीकॉप्टर,( “मरीन वन “, जिसका प्रयोग अमरीकी राष्ट्रपति करते हैं ), का केबिन हैदराबाद स्थित टाटा की एक कम्पनी बनाती है? यह एक प्रत्यक्ष संयुक्त उद्यम है, नाकि उपहारस्वररूप दिया हुआ ऑफसेट. यह कम्पनी अब चिनूक और अपाचे विमानों के लिए केबिन बनाकर वैश्विक सप्लाई श्रृंखला में आगे बढ़ रही है. पूरा विश्व भारत के निजी क्षेत्र की ताकत समझ रहा है लेकिन हम हैं कि आँखें मूंदे बैठे हैं.
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