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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतगुजरात से लेकर दिल्ली तक भाजपा के साथ है चुनाव आयोग, इसके लिए कांग्रेस भी दोषी है

गुजरात से लेकर दिल्ली तक भाजपा के साथ है चुनाव आयोग, इसके लिए कांग्रेस भी दोषी है

मोदी और केजरीवाल द्वारा आदर्श आचार संहिता को धता बताए जाने का मामला हो या अनुराग ठाकुर और आदित्यनाथ के विषाक्त बयानों का, चुनाव आयोग की पक्षपाती कार्रवाइयों से बचा जा सकता था.

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गत गुरुवार को लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चिर-परिचित शब्द गूंजे- भाइयों और बहनों. ये सुनकर कुछ सांसद मुस्कुराए बिना नहीं रह सके. मोदी राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद ज्ञापन पर बहस का जवाब दे रहे थे, पर उनके दिमाग में कुछ और चल रहा था. उन्होंने तुरंत खुद को सही किया, ‘माननीय अध्यक्षजी और…’

नियमानुसार, सदस्य को लोकसभा के अध्यक्ष को संबोधित करना होता है. लाइव टेलीकास्ट और सोशल मीडिया के मौजूदा दौर में सांसदों को अपने असल दर्शकों का ख्याल रहता है. मोदी से जुड़े इस मामले में, बस उनकी जुबान फिसल गई थी. आखिर ये दिल्ली चुनावों के लिए प्रचार का अंतिम दिन जो था. मोदी के डेढ़ घंटे के संबोधन में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और 1984 के सिख विरोधी दंगे छाए रहे. उन्होंने उसी दिन राज्यसभा में भी जवाब दिया.

दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार कार्य उस दिन शाम में समाप्त हो चुका था. आचार संहिता नेताओं को मतदान की समाप्ति से पहले के 48 घंटों में जनसभाएं करने की अनुमति नहीं देती है. पर अगले दिन प्रधानमंत्री ने असम के कोकराझार में जनसभा को संबोधित किया और कहा कि देश सीएए पर ‘भारत विरोधी मानसिकता’ को बर्दाश्त या माफ नहीं करेगा. उन्होंने दिल्ली के शाहीन बाग का नाम नहीं लिया– लेने की ज़रूरत भी नहीं थी.

आचार संहिता को धता बताना

मोदी ने आचार संहिता का उल्लंघन नहीं किया, क्योंकि वो असम में बोल रहे थे. जब चुनाव अभियान आधिकारिक रूप से खत्म होने जाने के बाद या मतदान जारी रहने के दौरान प्रधानमंत्री कार्यक्रमों और सभाओं को संबोधित करते हैं तो उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कसमसा कर रह जाते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ये महज संयोग नहीं हो सकता.

झारखंड में 20 दिसंबर 2019 को जब मतदान चल रहा था, प्रधानमंत्री एसोचैम को संबोधित करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट से बचाने का दावा कर रहे थे.


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इसी तरह इसके दो साल पहले 13 दिसंबर 2017 को वह फिक्की के एक कार्यक्रम में अपनी सरकार की उपलब्धियों और यूपीए शासनकाल के घोटालों की गिनती करा रहे थे. ये गुजरात विधानसभा चुनावों में प्रचार अभियान समाप्त होने के बाद का दिन था.

उसके अगले दिन 14 दिसंबर को एक तरफ मतदान चल रहा था और दूसरी ओर टीवी चैनल लाइव दिखा रहे थे कि प्रधानमंत्री मुंबई देश के पहले स्कॉर्पीन-क्लास पनडुब्बी आईएनएस कलवरी को नौसेना में शामिल कर रहे हैं और ‘मेक इन इंडिया’ की सफलताओं को गिना रहे हैं.

ये उदाहरण महज संयोग भी हो सकते हैं, पर और भी कई उदाहरण हैं, जो एक पैटर्न की ओर संकेत करते हैं. क्या ये सब आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन है? बेशक नहीं. ये आचार संहिता की काट निकालने की होशियार चुनावी रणनीति है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी पीछे नहीं रहे हैं. लोगों ने उन्हें हनुमानभक्त के रूप में एक टीवी इंटरव्यू में हनुमान चालीसा का पाठ करते देखा.

प्रचार अभियान आधिकारिक रूप से समाप्त होने के अगले दिन शुक्रवार को वे पूजा के लिए मध्य दिल्ली के एक हनुमान मंदिर में पहुंच गए और जाहिर है हर पल को कैमरे में कैद करने के लिए उनके साथ रिपोर्टरों और कैमरा टीमों का हुजूम भी था. नरेंद्र मोदी का अनुकरण करने के लिए प्रसिद्ध केजरीवाल अपनी मंदिर यात्रा के ज़रिए वही काम करने का प्रयास कर रहे थे जोकि उनके राजनीतिक आदर्श कोकराझार में कर रहे थे. आचार संहिता को धता बताना और प्रचार कार्य जारी रखना.

शनिवार को जब मतदान जारी था, उसी दौरान दिल्ली के मतदाताओं को ‘आपका अपना केजरीवाल’ का संदेश मिल रहा था. चुनाव आयोग अंतिम क्षणों के इस प्रचार अभियान पर क्या कर सकती है? कुछ भी नहीं.

चुनाव आयोग का चुनिंदा हस्तक्षेप

आदर्श आचार संहिता की उत्पत्ति 1960 के केरल विधानसभा चुनावों के लिए तय दिशा-निर्देशों से हुई है. मौजूदा स्वरूप इसे 1991 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के कार्यकाल में मिला था. उसके बाद से यमुना में बहुत पानी बह चुका है. संभवत: आचार संहिता को कानूनी रूप से कार्यान्वित किए जाने की व्यवस्था किए जाने की ज़रूरत है, जैसा कि अगस्त 2013 में कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय पर संसद की स्थायी समिति की सिफारिश थी. समिति ने कहा था, ‘आदर्श आचार संहिता को वैधानिक रूप देने के लिए कानून बनाए जाने की दरकार है ताकि चुनाव आयोग के अवशिष्ट प्रकार की अपनी शक्तियों के इस्तेमाल में लाचारी दिखाने की गुंजाइश नहीं रहे.’

हालांकि, इसमें इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि चुनाव आयोग निष्क्रियता दिखा सकता है या पक्षपाती भूमिका निभा सकता है जैसा कि वर्तमान चुनाव आयोग ने किया है. ऐसी परिस्थिति में आचार संहिता कैसी भी हो, वह निष्पक्ष चुनाव की गारंटी नहीं बन सकती है.


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भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा के केजरीवाल को ‘आतंकवादी’ कहने पर चुनाव आयोग ने 96 घंटे के लिए उनके चुनाव प्रचार पर रोक लगा दी. लेकिन जब केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने उसी बात को दोहराते हुए कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री को आतंकवादी साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं, तो चुनाव आयोग बगलें झांकने लगा.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दिल्ली में एक विषाक्त प्रचार अभियान चलाया और अपने भाषणों में उन्होंने केजरीवाल पर निराधार आरोप लगाए. उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री पर शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को ‘बिरयानी’ खिलाने और पाकिस्तान के साथ ‘साझेदारी’ करने का आरोप लगाया. चुनाव आयोग ने आदित्यनाथ को नोटिस जारी करने के प्रचार अभियान के अंतिम दिन तक इंतजार किया और उन्हें जवाब देने के लिए शुक्रवार शाम तक का समय दिया.

कांग्रेस की गलती

ये कोई पहला मौका नहीं है कि जब चुनाव आयोग के कृत्यों के कारण उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठे हों. उसने 2017 में गुजरात चुनावों की घोषणा में देरी की थी और तब इस तरह के आरोप सामने आए थे कि आयोग प्रधानमंत्री मोदी के अहमदाबाद में रैली करने और भाजपा सरकार द्वारा गुजरात के लिए लोकलुभावन घोषणाएं किए जाने का इंतजार कर रहा था.

आयोग के महाराष्ट्र में एक ही चरण में और झारखंड में पांच चरणों में चुनाव कराने के फैसले ने भी उसकी छवि को खराब ही किया.

आयोग को आड़े हाथों लेते हुए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी ने शनिवार को इंडियन एक्सप्रेस में लिखा, ‘भाजपा नेता अनुराग ठाकुर को नोटिस में आयोग ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 और 125 का उल्लेख किया, पर अचरज की बात ये है कि यदि आयोग ने उन्हें सज़ा लायक अपराधों का दोषी पाया, तो फिर उसने प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं कराई?…आईपीसी के तहत कार्रवाई नहीं किए जाने से प्रवेश साहिब सिंह वर्मा जैसे दोषियों को अपना अपराध दोहराने के लिए प्रोत्साहन मिला…’

कांग्रेस ने चुनाव आयोग के आचरण पर अपना विरोध दर्ज कराया, पर मौजूदा स्थिति के लिए वो खुद जिम्मेदार है.
जब कांग्रेस सत्ता में थी तो उसे विपक्ष के तत्कालीन नेता लालकृष्ण आडवाणी की बात माननी चाहिए थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 2012 में लिखे पत्र में आडवाणी ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक कॉलेजियम व्यवस्था की अनुशंसा की थी जिसमें प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश, विधि मंत्री तथा लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेताओं को शामिल किया जाता. उन्होंने दलील दी थी कि प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था में ‘जोड़-तोड़ और पक्षपात’ का ख़तरा है.

तब की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस ने उस पत्र को नजरअंदाज़ कर दिया था– एक और गलती जिसका मोदी की भाजपा फायदा उठा रही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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