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Sunday, 22 December, 2024
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भारत में अनाज की अधिकता के मद्देनज़र अभाव वाली मानसिकता से उबरने की है ज़रूरत

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चावल खरीद की कीमतों में नवीनतम वृद्धि और दूध उत्पादन पर सब्सिडी, इसके और अधिक उत्पादन को प्रोत्साहित करेगी, जबकि इस नीति को किसानों को दूसरी ओर ले जाना चाहिए।

भारत कृषि पैदावार में कमी से लेकर अत्यधिक उपज तक का सफर तय कर चुका है। इस समय देश हमारी खपत से बहुत ज्यादा खाद्यान्न का उत्पादन करता हैः चावल, चीनी, दूध के साथ ही कई बार टमाटर, प्याज और आलू की उपज भी बहुत ज्यादा हो जाती है। इस समय 68 मिलियन टन गेंहू और चावल का भंडारण है जो आवश्यक बफर भंडारण के मानक के दोगुने से अधिक है। जितनी तेजी से आबादी बढ़ रही है उससे चार गुना ज्यादा तेजी से दूध का उत्पादन बढ़ रहा है। आलू की भी ऐसी ही हालत है, एक दशक में इसका उत्पादन 80 प्रतिशत बढ़ गया है जबकि इसी समयावधि में आबादी में महज 20 फीसदी की ही बढ़ोतरी हुई है। इस साल 32 मिलियन टन (3.2 करोड़ टन) चीनी का उत्पादन होने की आवश्यकता है जबकि देश में चीनी की खपत लगभग 25 मिलियन टन (2.5 करोड़ टन) ही है। इसका नतीजा यह निकलता है कि दुग्ध उत्पादक दूध की कम कीमतों का विरोध करते हुए टैंकरों में भरा हुआ दूध राजमार्गों पर बहा देते हैं (ऐसा अधिकतर गर्मियों के मौसम में देखने को मिलता है जब दूध का उत्पादन अपेक्षाकृत कम हो जाता है)। यह वे अपने अवांछित आलुओं को शीत गृहों में छोड़ देते हैं, फिर भंडार गृहों के मालिक इन हजारों टन आलुओं को सड़ने के लिए खुले में फेक देते हैं।

खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति खपत कम होने से देश के लिए इतना अधिक उत्पादन एक समस्या बन गया है। लेकिन खपत के स्तर का सीधा संबंध आय के स्तर से है। सरकार खपत बढ़ाने की दिशा में काम कर सकती है लेकिन प्रमुख खाद्यान्न पहले से ही लागत के 10 फीसदी दाम पर बिक रहे हैं। स्कूलों के मध्याह्नï भोजन में दूध का उपयोग करके आप इसकी खपत को बढ़ा सकते हैं लेकिन इसके बावजूद भी संभवता दूध बच ही जाएगा।

आप निर्यात कर सकते हैं, भारत चावल का सबसे बड़ा निर्यातक है, कुछ अन्य वस्तुओं के निर्यात में भी भारत का महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन उत्पादकता कम होने कारण हमारी कृषि प्रतिस्पर्धी नहीं है। चीन भारत से ढाई गुना ज्यादा टमाटर की पैदावार करता है जबकि उसका कृषि क्षेत्र भारत से थोड़ा ही अधिक है। जब उत्पादकता बढ़ती है तो अधिशेष के निपटान की समस्या भी बदतर हो जाती है जैसा कि हमने चीनी के मामले में देखा है। चीनी मिलों पर गन्ना किसानों के कई अरब रूपये बकाया हैं लेकिन सरकार निर्यात सब्सिडी और मिलों को चीनी भंडारण पर सब्सिडी देने का प्रस्ताव रख रही है जबकि गन्ने की कीमतों में भी बढ़ोतरी की जा रही है। इस बात को लेकर भी जागरूकता में वृद्धि हुई है कि जब हम चीनी और चावल जैसी फसलों का निर्यात करते हैं तो इनकी कृषि में बहुत ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है – गौरतलब है कि इस समय देश में भारी जल संकट चर्चा का विषय बना हुआ है।

हम किसी छोटे-मोटे कारोबार की बात नहीं कर रहे हैं। दुग्ध उद्योग वाहन उद्योग के बराबर है (लगभग 40 खरब रूपये की बिक्री का उद्योग)। चीनी का कारोबार भी कोई छोटा-मोटा कारोबार नहीं है। कुल मिलाकर टमाटर, प्याज और आलू का उत्पादन चावल के उत्पादन के तीन चौथाई के बराबर है। इन सारे कारोबारों में लाखों लोग शामिल हैं इसलिए इस मानवीय समस्या को राजनीतिक दृष्टि से देखा जाता है। हाल ही में होने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्यों में वृद्धि और दुग्ध उत्पादन में सब्सिडी जैसी घटनाएं उसी राजनीतिक दृष्टि का नतीजा हैं। इससे धान की खेती को बढ़ावा मिलेगा और दुग्ध का उत्पादन बढ़ेगा। जबकि नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि हम अत्यधिक उत्पादन की समस्या का समाधान कर सकें।

सब्सिडी के अलावा सरकारी हस्तक्षेप से भी अक्सर कीमतों में बहुत ज्यादा इजाफा हो जाता है। अतिरिक्त भंडारण, मूल्य और परिचालन पर नियंत्रण होता है और किसानों की कर्ज माफी का सिलसिला शुरू होता है। यह सारे काम किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने और उन्हें बाजार की विसंगतियों से बचाने के लिए किए जाते हैं। लेकिन भारी लागत के बिना इनका कोई स्थायित्व नहीं है। लंबे समय तक के लिए किए जाने वाले उपायों में अतिरिक्त उत्पादन वाली वस्तुओं के लिए मांग और आपूर्ति का मिश्रण तैयार करना, फसल में विविधता लाना और आयात (आवश्यक) की जाने वाली उपज (दलहन और तिलहन) की खेती करना आदि शामिल है।

इस दिशा में कुछ प्रगति हुई है लेकिन वह अपर्याप्त है। वर्षों के ठहराव के बाद दालों के उत्पादन में केवल 4 फीसदी वृद्धि हुई है। तिलहन का उत्पादन धीमा रहा है लेकिन फिर भी पहले से बेहतर है। टमाटर, आलू और प्याज अक्सर तेजी और मंदी का सामना करते हैं (दोनों ही मूल्य चक्र किसानों के लिए घातक होते हैं) इसको देखते हुए सरकार ने बजट में ऑपरेशन ग्रीन लाने की घोषणा की है। ऑपरेशन ग्रीन की घोषणा ताजा उपज के प्रसंस्करण और उत्पादन में सहकारिता को बढ़ावा देने लिए सरकार ने श्वेत क्रांति की तर्ज पर की है। बदलाव होने में सालों लग जाएंगे लेकिन मानसिकता से उत्पन्न होने वाली नीतियों से आगे बढ़कर आधुनिक युग में आने का और कोई रास्ता भी तो नहीं है।

बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष व्यवस्था द्वारा।

Read in English : Growing food mountains mean India needs to move beyond shortage mentality

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