इस अवसर पर मुस्लिम नेतृत्व की पूर्ण अनुपस्थिति क्या बताती है?” मुझसे तब पूछा गया, जब अयोध्या में राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा समारोह चल रहा था. दरअसल, ऐसे मौके पर मुस्लिम नेतृत्व क्या करेगा? उनके ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए, चूकिं सक्रिय विरोध कोई विकल्प नहीं था, इसलिए इस बात की पूरी संभावना थी कि वे इसके खिलाफ मुस्लिमों में नाराज़गी भरने और भड़काने की कोशिश करेंगे. क्या उनके अभद्र व्यवहार से पैदा हुई खटास से मुसलमानों का भला होगा?
या, नेतृत्व ने इस खुशी के अवसर को हिंदुओं के लिए सुविधाजनक बनाते हुए मुस्लिमों को उत्सव में शामिल होने के लिए प्रेरित किया होगा. लेकिन क्या वे विश्वसनीयता खोए बिना, देशद्रोही करार दिए जाने और पीट-पीटकर मार दिए जाने का जोखिम उठाए बिना ऐसा कर पाएंगे? और, इस परिणाम के लिए, वे स्वयं जिम्मेदार होंगे, क्योंकि उन्होंने ही मुसलमानों को झगड़े में फंसा के रखा; उन्हें पीड़ित होने की अफ़ीम चटाई गई, हिंसक भावुकता और हिंदुओं के प्रति प्रतिकूल रवैया अपनाने का विचार उनके अंदर भरा गया. उन्होंने मुसलमानों के अंदर लगातार इस विचार या मनोविकार को बनाए रखने की कोशिश की कि इस्लाम-खतरे में है.
मुसलमानों को राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत नहीं है. उनके राजनीतिक हित हिंदुओं के समान ही हैं. धर्म-आधारित राजनीति का मतलब होगा कि वे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के समान एक अलग राजनीतिक इकाई हैं. अब यह न तो मुसलमान और न ही भारत के लिए अच्छा है. हालांकि, उन्हें विचारशील नेतृत्व की आवश्यकता है – एक बौद्धिक वर्ग जो उन्हें भारत में मुस्लिम शासन की विरासत की सबसे बड़ी चुनौती पर काबू पाने के लिए प्रेरित करे ताकि वे जान सकें कि समान नागरिकों के रूप में हिंदुओं के साथ पारस्परिक सम्मान के साथ कैसे रहना है, न कि अपने को पूर्व शासक के वंशज के रूप में देखें.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें अपने धार्मिक विचारों पर फिर से गौर करना होगा कि क्या यह उन्हें समानता, पारस्परिक सम्मान और शांति की शर्तों पर अन्य धर्मों के लोगों के साथ रहने के लिए सक्षम बनाता है. यदि इस्लाम ही एकमात्र सत्य है, और भारत धर्मांतरण के लिए टारगेटेड क्षेत्र बना रहेगा, तो हिंदू धर्म को बुरा और इसे फॉलो करने वालों को गुमराह माना जाता रहेगा. मुसलमानों के विचारशील नेतृत्व को इस प्रश्न का समाधान इस बात से प्रेरणा लेते हुए करना होगा कि कैसे सर सैयद ने ईसाई धर्म के प्रति मुस्लिम समझ को सुधारने की कोशिश की.
अब तक मुसलमानों ने कभी भी हिंदुओं और उनके धर्म को समझने की कोशिश नहीं की. मुस्लिम शासकों को भारतीय जनता, संस्कृति, धर्म और इतिहास के प्रति कोई जिज्ञासा नहीं थी. वे बौद्धिक रूप से बंजर थे, उनमें भारत की दार्शनिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों की सराहना करने की क्षमता नहीं थी. वे मूर्ति पूजा से आगे कुछ नहीं देख सके, जिसे उन्होंने इस्लाम के पूर्व अरब के इतिहास बुतपरस्ती जैसा समझा.
अल बिरूनी की किताब-अल हिंद के बाद से पिछले 1,000 वर्षों में किसी मुसलमान द्वारा भारत का कोई गंभीर अध्ययन नहीं किया गया है. मुस्लिम शासन बहुत पहले ख़त्म हो चुका है, लेकिन यह रवैया अभी भी कायम है. न केवल हिंदू धर्म के बारे में पूर्ण अज्ञानता है, बल्कि मुस्लिम शासन की हिंदू धारणा के प्रति भी उपेक्षापूर्ण रवैया है. हिंदुओं को जो अपमान झेलना पड़ा, उसके बारे में उनके मन में कोई पश्चाताप नहीं है. जबकि मुस्लिम के उत्पीड़न को वे वास्तविक मानते हैं, लेकिन हिंदूओं का घायल मानस एक कल्पना माना जाता है. विचारशील नेताओं को मुसलमानों को हिंदू दृष्टिकोण को समझने की ट्रेनिंग देनी होगी, जिसके बिना दोनों समुदाय अगले एक हजार वर्षों तक अजनबी बने रहेंगे.
उदारवादी हिंदू, सांप्रदायिक मुस्लिम के मुद्दे
लेकिन यह कहना ग़लत है कि मुसलमानों के पास नेतृत्व नहीं है. उनके पास है. उनके नेता हिंदू वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवी हैं – जिन्होंने अपनी लंबे समय से चली आ रही सत्ता खो दी है और सत्ता के सिंहासन पर फिर से बैठने के लिए वे मुस्लिम वोटों की ओर देख रहे हैं. उन्होंने मुसलमानों से कहा कि राम जन्मभूमि मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला समस्याग्रस्त था, और राम मंदिर के पुनर्निर्माण के साथ, संविधान मर गया, धर्मनिरपेक्षता की हत्या हो गई, मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक बन गए, और नए भारत में फासीवाद सर्वोच्च हो गया.
इसलिए, मुसलमानों को अब उदार-धर्मनिरपेक्ष कारणों से हिंदुओं के प्रति शत्रुतापूर्ण भाव रखने चाहिए, जैसे वे एक बार धार्मिक कारणों से रखते थे. वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवी आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और संवैधानिक मामलों में मुस्लिम सांप्रदायिकता के लिए तर्क गढ़ते हैं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि लिबरल मुसलमान लिबरल हिंदुओं की तरह नहीं हैं. वे मुस्लिम समुदाय की उस तरह से आलोचना नहीं करते जैसे कि लिबरल हिंदू हिंदुओं की करते हैं. बल्कि, उनके कॉमरेड साथी मुस्लिम संप्रदायवादी हैं जो मुस्लिम समुदाय में परंपरावादी प्रथाओं के बचाव में हिंदुओं की निंदा करने में उनके साथ शामिल होते हैं.
हिंदू उदारवादियों और मुस्लिम संप्रदायवादियों के बीच पैट्रन-क्लाइंट संबंध मुसलमानों की धर्मनिरपेक्षता, उन्हें मुख्यधारा में लाने और उनकी प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है. यह व्यवस्था, जिसके तहत मुसलमान उदारवादियों के नेतृत्व का स्वीकार करते हैं और उदारवादियों के समर्थन के बदले में उन्हें वोट देते रहते हैं, उन्हें निम्नतम स्थिति में बना के रखती है. जब तक मुसलमान खुद को इस संरक्षण से मुक्त नहीं करते, वे बड़े नहीं हो पाएंगे और अपना नेतृत्व विकसित नहीं कर पाएंगे. वर्तमान में, उदारवादी “मुस्लिम” मुद्दों पर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं. यदि मुसलमान अपना प्रतिनिधित्व कर सकें तो वे अपनी प्रासंगिकता खो देंगे.
लेकिन, मुसलमानों की बौद्धिक बंजरता का आलम यह है कि पर्सनल लॉ, हिजाब, तीन तलाक और धारा 370 आदि जैसे “मुस्लिम मुद्दों” पर भी ज्यादातर हस्तक्षेप गैर-मुस्लिम लेखकों का ही होता है. सुप्रीम कोर्ट में ऐसे “मुस्लिम मामले” राजीव धवन और कपिल सिब्बल जैसे वकील लड़ते हैं. मुसलमानों के पास कुछ मनोरंजक वक्ता हो सकते हैं लेकिन उनमें से शायद ही कोई नाम बौद्धिक हो.
मुसलमानों को वाम-उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष बंधन से मुक्त होने के लिए, उन्हें अपनी बौद्धिकता विकसित करनी होगी, जो तब तक संभव नहीं है जब तक कि वे आलोचनात्मक संस्कृति – आत्म-आलोचना और सुधार का स्वभाव विकसित न करें. बंगाल पुनर्जागरण के बाद से हिंदू 200 वर्षों से ऐसा कर रहे हैं.
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ऐसा वर्ग जो खुद सुधार को रोकता है
मुस्लिम संस्कृति को मुस्लिम शासक वर्ग, अशराफ़ के निहित स्वार्थों द्वारा आकार दिया गया है. यह स्थिर, पतनशील और स्वार्थी वर्ग अपने ख़त्म होते विशेषाधिकारों को संरक्षित करने से आगे नहीं सोच सकता. निहित स्वार्थों के संरक्षण पर केंद्रित संस्कृति में मतभेद के लिए कोई जगह नहीं है. विचारों की विविधता अभिशाप है. हर चीज को धार्मिक सही और गलत की कसौटी पर परखा जाता है. अनुरूपता (तकलीद) आदर्श है, और इनोवेशन (बिदअत) को धर्म की विकृति माना जाता है. असहमति को क़ौम के ख़िलाफ़ देशद्रोह माना जाता है, और असहमति जताने वाले को काफिर के रूप में बहिष्कृत करके “खारिज” कर दिया जाता है. मान्यता के विपरीत किसी राय पर जम कर मौखिक हमले किए जाते हैं और, जहां संभव हो, शारीरिक हिंसा को भी कोशिश की जाती है.
बौद्धिकता, आलोचनात्मक संस्कृति का एक उत्पाद होने के नाते, समाज में क्या गलत है, इसके बारे में कर्तव्यनिष्ठ प्रश्न पूछने और विचार की संरचनाओं में इसकी जड़ों का पता लगाने से आता है. यदि यह धर्म की ओर ले गया, तो धर्म और उसकी व्याख्याओं का मूल्यांकन करना होगा. हिंदुओं के लिए इसकी शुरुआत जाति और लिंग के नाम पर सामाजिक अन्याय पर सवाल उठाने से हुई. सुधारकों ने धर्मग्रंथों की गहराई में खोज की. महात्मा गांधी ने कहा था कि छुआछूत हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं है, लेकिन अगर ऐसा दिखाया गया तो वह हिंदू धर्म छोड़ देंगे. मुसलमान ऐसा गांधी या अंबेडकर पैदा नहीं कर सके जो उनके न्याय और नैतिकता के विचार और उनमें अंतर्निहित धार्मिक विचार पर सवाल उठाए.
राजा राम मोहन राय और सर सैयद अहमद खान की उम्र के अंतर को देखते हुए, आमतौर पर यह कहा जाता है कि हिंदू और मुस्लिम समाज के विकास के बीच लगभग 50 वर्षों का समय अंतराल है. हालांकि, तथ्य यह है कि मुसलमानों को अभी भी अपने राम मोहन राय नहीं मिले हैं. सर सैयद ने कुरान की कुछ कट्टरपंथी पुनर्व्याख्या की, लेकिन उन्होंने लिंग और जातिगत असमानता के वही सवाल नहीं उठाए जो राम मोहन और अन्य सुधारकों ने उठाए थे. दरअसल, सर सैयद का पूरा प्रयास अपने छोटे वर्ग की शक्ति और स्थिति को बहाल करने पर केंद्रित था.
ऐसी स्वार्थपरता मुस्लिम समाज का शाश्वत अभिशाप रही है. उनके “नेता” अपने व्यक्तिगत और वर्गीय हितों को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं. संकीर्ण दृष्टि और लोचदार नैतिकता के साथ, वे पैरवी करने वालों से कुछ अधिक ही रहे हैं. उनमें पूरे मुस्लिम समुदाय के कल्याण के बारे में सोचने की बौद्धिक क्षमता और भावना की कुलीनता दोनों का अभाव है. जहां तक भारत के कल्याण की बात है तो वे इसके खिलाफ वैचारिक रूप से पंगु हैं. भारत के साथ उनका रिश्ता पूरी तरह से राजनीतिक है और अपनेपन की पवित्र भावना से रहित है.
क्या इसमें कोई आश्चर्य है कि उनके पीड़ित होने की पूरी कहानी इस शिकायत पर आधारित हुई है कि कुछ राजनीतिक दल उन्हें सांसद और विधायक नहीं बनाते हैं? बेहतर होगा कि वे अपनी अप्रासंगिकता के कारणों पर गौर करें. प्रासंगिकता संबंध और प्रतिबद्धता से आती है, न कि विशिष्टता और पद से. वे देश और समुदाय दोनों के लिए शोषणकारी रहे हैं. उनकी अपरिहार्य अप्रासंगिकता शोक साहित्य की नई शैली, मुस्लिम दिलासा देने वाली कहानी में परिलक्षित होती है, जिसमें द मुस्लिम वैनिशेज़, बीइंग द अदर, बॉर्न ए मुस्लिम, और बीइंग मुस्लिम इन हिंदू इंडिया आदि जैसी किताबें शामिल हैं, जबकि बीइंग हिंदू इन बांग्लादेश जैसी किताब को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है.
यह अच्छा है कि पारंपरिक मुस्लिम नेतृत्व अप्रासंगिक हो गया है. मुसलमानों को पावर-पॉलिटिक्स वाले नैरेटिव क्रिएट करने वाले लोगों की ज़रूरत नहीं है. उन्हें विचारशील नेताओं की आवश्यकता है जो उन्हें उस ठहराव से बचा सकें, जिसने सदियों से किसी प्रगतिशील विचार को अंकुरित नहीं होने दिया है.
(इब्न खल्दुन भारती इस्लाम के छात्र हैं और इस्लामी इतिहास को भारतीय नजरिए से देखते हैं. उनका एक्स हैंडल @IbnKhaldunIndic है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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