महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के 500 सालों बाद 100 CE में उत्तर-पश्चिम भारत में जिस तरह का बौद्ध धर्म प्रचलित था उसे उन्होंने कभी भी मान्यता नहीं दी होती या स्वीकार नहीं किया होता. यही बात महावीर की मृत्यु के लगभग डेढ़ हजार साल बाद 1000 सीई में पश्चिमी भारत में प्रचलित जैन धर्म पर भी लागू होती है. 1000 सीई तक यह मंदिरों और रीति-रिवाजों का एक धर्म बन गया था, जहां व्यापारी राजकुमारों ने सेनाओं की कमान संभाली ली थी, तीर्थंकरों की मूर्तियां स्थापित की जाती थीं और उन पर इत्र छिड़का जाता था. एक समय में छोटे-छोटे समूहों में घूमने वाले तपस्वियों और सन्यासियों का धर्म – जैन धर्म – मध्यकाल तक, पश्चिमी भारत की महान ताकतों में से एक बन गया था. लेकिन यह कैसे हो गया?
इनोवेशन और प्रतिस्पर्द्धा
जैन धर्म के एक्सपर्ट एवं विद्वान पॉल डुंडस अपनी पुस्तक जैन (2002, पृष्ठ 201) में लिखते हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि मूर्तियों की स्थापना और उनकी पूजा ऐतिहासिक रूप से जैन सभ्यता में लगातार चलती चली आई है.”
बेशक, जबकि कई जैन आज मूर्तियों की पूजा नहीं करते हैं, उनका उल्लेख पहली शताब्दी ईसा पूर्व के शिलालेखों में मिलता है; आज तक, कुछ जैन समुदाय महामस्तकाभिषेक जैसे शानदार अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं. हालांकि, जैनियों का पूजा करने का तरीका – जिसके मुताबिक देवता को भोजन और फूल चढ़ाने का चलन है – हिंदुओं की पूजा पद्धति से कुछ अलग है. जैसा कि मानवविज्ञानी लॉरेंस बैब ने अपनी पुस्तक ओपन बाउंड्रीज: जैन कम्युनिटीज एंड कल्चर्स इन इंडियन हिस्ट्री (1998) के एडिटेड वॉल्यूम में लिखा है, कि जैन पूजा देवता को “कुछ देना नहीं” बल्कि “त्याग” है, जो कि “आम आदमी के लिए सच्चे तपस्वी या संन्यास वाले जीवन में संलग्न होने का अवसर” है.
यह एक छोटा, लेकिन महत्वपूर्ण अंतर है. ऐसा प्रतीत होता है कि आरंभिक जैनों ने मूर्ति पूजा के बढ़ते महत्व को समझ लिया था; धार्मिक गतिविधि पर ध्यान केंद्रित करके, मूर्तियां धार्मिक समुदायों के निर्माण और उन्हें बनाए रखने के लिए काफी शक्तिशाली जरिया थीं. इससे संबंधित एक और प्रगति मंदिर पूजा थी, जिसने समुदायों को पूजा करने, संसाधनों को एकजुट करने और राजनीतिक अधिकार के लिए दावा करने की स्थिति पैदा की.
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चौथी शताब्दी सीई से ही, गुजरात में जैन भिक्षु खुद को मंदिरों से जोड़ रहे थे (डुंडस 2002, 136). यहां वे आम अनुयायियों के साथ सीधे बातचीत कर सकते थे, रीति-रिवाजों में शामिल हो सकते थे, और लोगों से धन इकट्ठा कर सकते थे. यह विवादास्पद था: जैन सिद्धांतों के अनुसार, भिक्षु बिना संपत्ति के एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे. लेकिन चतुर भिक्षु इसे किसी तरह सही ठहराते थे; डुंडस ने मंदिर में रहने वाले एक प्रमुख भिक्षु को यह कहते हुए उद्धृत किया: “आखिरकार, जैन धर्म नष्ट हो जाएगा. तपस्वी मंदिरों में रहकर उनकी रक्षा करते हैं. कुछ खास परिस्थितयों में मूल सिद्धांत से बचने के लिए धर्म शास्त्रों द्वारा अनुमति दी गई थी जिसका प्रयोग इसके लिए किया जा रहा था.” (डुंडस 2002, 137).
गुजरात में धीरे-धीरे जैन मंदिरों की संख्या बढ़ने लगी. फ्रेमिंग द जिना: नैरेटिव्स ऑफ आइकन्स एंड आइडल्स इन जैन हिस्ट्री (2010) में, इंडोलॉजिस्ट जॉन ई. कॉर्ट बताते हैं कि वर्तमान गुजरात और राजस्थान में पांच स्थलों को ऐसे स्थानों के रूप में चिह्नित किया गया है जहां पांच सबसे लोकप्रिय जैन तीर्थंकर-आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर- ने ज्ञान प्राप्त किया था.
अष्टपद, जिस पर्वत पर पहले तीर्थंकर आदिनाथ को ज्ञान प्राप्त हुआ था, उसका जिक्र भी भिक्षुओं और बुद्धिजीवियों द्वारा शास्त्रीय और पौराणिक-ऐतिहासिक रूप से करने की कोशिश की गई. 11वीं शताब्दी सीई तक, गिरनार और माउंट आबू के स्थल व्यापारी राजकुमारों द्वारा बनाए गए शानदार मंदिरों वाली जगह बन गए थे.
ऐसा नहीं कि इन सभी घटनाक्रमों की प्रतिक्रिया नहीं हुई. 11 वीं शताब्दी तक, जैन मान्यताओं का कट्टरता से पालने करने वाले तपस्वियों के एक समूह ने जैन मठवाद यानी जैन संन्यासियों के मठ मे रहने की परंपरा को खत्म करने की कोशिश की.
उन्होंने मंदिर में रहने वाले भिक्षुओं पर सार्वजनिक हमले करने और उनके साथ लोगों के सामने शास्त्रार्थ या धर्म पर चर्चा करनी शुरू कर दी. मंदिर में रहने वाले इन संन्यासियों की “माला और अच्छे कपड़े, सुपारी से सने दांत, अच्छे से कटे और झाड़े हुए बाल, चेहरे पर अहंकारपूर्ण भाव, स्वच्छ सुंदर शरीर और पैर और लाख से रंगे गए हाथ व पैर” देखकर लोगों में इनकी छवि खराब होने लगी थी. (डुंडस 2002, 137). उनकी छवि एक सम्मानजनक संत की मुश्किल से रह गई थी. 1024 में, सुधारक जिनेश्वर सूरी ने मंदिर में रहने वाले भिक्षुओं को एक अदालती बहस में हरा दिया, जिससे उनका पतन हो गया. लेकिन आम जन पर अब तक मंदिर पूजा का काफी प्रभाव पड़ चुका था. जैन धर्म पहले से ही हमेशा के लिए बदल चुका था.
‘दाढ़ी वाली सरस्वती’
मध्ययुगीन गुजरात में शायद सबसे महत्वपूर्ण उपासक वास्तुपाल और तेजपाल नाम के व्यापारी भाइयों की जोड़ी थी. उनकी गतिविधियां इस समय जैन धर्म के चरित्र के बारे में बहुत कुछ बताती हैं.
ट्रेड एंड ट्रेडर्स 1000-1300 AD (1990) में इतिहासकार वीके जैन लिखते हैं, उनका जन्म अनाहिलवाड़ा (वर्तमान पाटन, गुजरात) के एक कुलीन व्यापारी परिवार में हुआ था. अनहिलवाड़ा चालुक्य वंश की राजधानी थी; वे चालुक्यों के जागीरदारों वाघेलाओं की सेवा में वे काफी खास हो गए थे. ऐसा लगता है कि “मुद्रा-व्यापार” की भूमिकाओं – जिसमें व्यापार लाइसेंस और परमिट जारी करना शामिल था – के साथ साथ उन्होंने मुख्यमंत्री की भूमिका भी अदा की.
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खंभात के गवर्नर के रूप में, वास्तुपाल ने दक्षिणी गुजरात के राजाओं को सेवा देने वाले एक मुस्लिम व्यापारी सईद पर हमला किया और उसे पराजित करके लूट लिया. (जैन 1990, 238). ये सभी गतिविधियां आर्थिक रूप से बहुत फायदेमंद थीं; 1233 में, वास्तुपाल ने गिरनार में अष्टपद पर्वत पर एक मंदिर का निर्माण किया, जिसे तीर्थंकर नेमिनाथ का ज्ञान प्राप्ति स्थल माना जाता है. उन्होंने पिछले वर्ष ही एक मंदिर का निर्माण किया था, जिसमें बाद में उन्होंने “दो भव्य मंडप” जोड़े जो कि उनकी दो पत्नियों के लिए था. (कोर्ट 2010, 130).
लेकिन वह इसका काफी छोटा सा हिस्सा था. दोनों भाइयों के शिलालेख पूरे गुजरात में दिखाई देते हैं, जो कुओं, तालाबों, भिक्षा-गृहों, विश्राम-गृहों और ध्यान स्थलों से जुड़े हैं. वे विशेष रूप से तीर्थंकरों के ज्ञान प्राप्ति के ऊपर बताए गए पांच स्थलों पर केंद्रित हैं. भाइयों ने साहित्यिक संरक्षण, पुस्तकालयों का निर्माण, धार्मिक ग्रंथों को चालू करने और यहां तक कि अपने स्वयं के कार्यों को लिखने के कार्यक्रम को भी शुरू किया.
वीके जैन (1990, पृष्ठ 244) के अनुसार, खंभात के जैन पुस्तकालय में वास्तुपाल के हाथ से नकल की गई एक पांडुलिपि है; “उनकी साहित्यिक गतिविधियों के कारण वास्तुपाल को ‘दाढ़ी वाली सरस्वती’ (कुर्कल सरस्वती) के रूप में जाना जाता था”. ये सभी ऐसी चीजें थीं जिन्हें कोई भी मध्यकालीन भारतीय राजा कर सकता था; उन्होंने एक संस्कृत स्तवन भी शुरू किया, जिसमें “पृथ्वी पर हर जगह धार्मिक प्रतिष्ठानों के साथ खुद को कलियुग के गले पर अपना पैर रखते हुए” बताया. यह काफी महत्त्वूपूर्ण है कि भाइयों ने यह सब काफी कुछ जैन कल्पना के तरीके से किया, जैसा कि हमने पिछले सेक्शन में देखा है.
माउंट आबू में तेजपाल का नेमिनाथ मंदिर इस सब का उदाहरण है. संगमरमर में बारीकी से उकेरी गई इस विशाल संरचना से पता चलता है कि जैन धर्म अपनी उत्पत्ति के बाद से कितना आगे आ चुका था. एक हिंदू मंदिर के समान, चिकनी, पॉलिश की हुई प्रतिमाएं, इसके स्तंभों को सुशोभित करती हैं; करीने से बनाए गए इसके झरोखों से सूर्य की किरणें छन-छन कर आती हैं. सैद्धांतिक इनोवेशन और इसको मानने वालों से लैस, जैन धर्म ने खुद को भारत के सबसे बड़े व्यापारिक क्षेत्रों में से एक की राजनीतिक संस्कृति में गूंथा था. पश्चिमी भारत का जैन धर्म उस भयानक दुर्भाग्य से बच गया जो दक्षिण भारतीय जैन धर्म पर मंडरा रहा था. इस टॉपिक पर हम थिंकिंग मेडीवल के भविष्य के संस्करणों पर चर्चा करेंगे.
(अनिरुद्ध कनिसेट्टी एक पब्लिक हिस्टोरियन हैं. वह लॉर्ड्स ऑफ़ द डेक्कन, ए न्यू हिस्ट्री ऑफ मेडिवल साउथ इंडिया के लेखक हैं, और इकोज़ ऑफ़ इंडिया और युद्ध पॉडकास्ट की मेजबानी करते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AKanisetti है.)
(यह लेख ‘थिंकिंग मेडिवल’ सीरीज का एक हिस्सा है जो भारत की मध्यकालीन संस्कृति, राजनीति और इतिहास में गहरा गोता लगाता है.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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