जैसा कि मैंने कुछ हफ्ते पहले अपने कॉलम में लिखा था, भारत के लिए कोविड-19 महामारी के प्रसार पर नियंत्रण पाना तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि सरकारी अधिकारी मिशन मोड में काम नहीं करते और ‘टेस्ट, ट्रेस एंड आइसोलेट’ के काम में तेज़ी नहीं लाते. महामारी पर नियंत्रण की रणनीति का पहला और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है परीक्षण (टेस्टिंग), क्योंकि बड़ी संख्या में लोगों की टेस्टिंग करने और शीघ्रता से उनकी रिपोर्ट पाने के बाद ही रोगियों के संपर्कों को ढूंढना (ट्रेसिंग) और उन्हें अलग-थलग रखना (आइसोलेशन) संभव है.
पूरे भारत में कोविड-19 के मामले बढ़ रहे हैं क्योंकि देश में पर्याप्त संख्या में टेस्टिंग नहीं हो रही है और जांच रिपोर्ट आने में लंबा वक्त लग रहा है. जबकि टेस्टिंग में भारत के पिछड़ने की मुख्य वजह है सरकार का सही तरीके से निजी जांच लैब और चिकित्सा केंद्रों को इस काम से नहीं जोड़ना. वरना ये कैसे हो सकता था कि देश में प्रचुर संख्या में टेस्ट किट की उपलब्धता के बावजूद भारत प्रति व्यक्ति परीक्षण के मामले में सबसे निचली पांत के देशों में शामिल है? भारत के मुकाबले फिलीपींस, मलेशिया, रवांडा और क्यूबा अपनी आबादी के अनुपात में प्रतिदिन अधिक लोगों की जांच कर रहे हैं.
हालांकि भारत की जांच दर में पिछले महीनों के दौरान निश्चित रूप से तेज़ी आई है और वर्तमान में प्रतिदिन करीब 2,80,000 लोगों की टेस्टिंग हो रही है. चूंकि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्य स्तर पर अधिकारियों के मार्गदर्शन के लिए कोई राष्ट्रीय मानदंड तय नहीं किया है. इसलिए स्थिति ऐसी है मानो बाद में बैटिंग करने वाली टीम को एक नामालूम स्कोर का अज्ञात आस्किंग रेट से पीछा करना हो.
क्षमता की समस्या नहीं
तक्षशिला इंस्टीट्यूशन के मेरे सहकर्मियों ने सिफारिश की है कि हर प्रशासन को हर दस लाख (एक मिलियन) की आबादी पर प्रति सप्ताह न्यूनतम 2,500 लोगों की जांच करनी चाहिए. जब तक कि जांच के पॉजिटिव परिणाम की दर 1 प्रतिशत से कम नहीं हो जाए. इस हिसाब से देखें तो भारत को प्रतिदिन कम-से-कम 4,60,000 लोगों की टेस्टिंग करनी चाहिए और इस क्षमता का तब तक विस्तार करना चाहिए. जब तक कि पॉजिटिव रिजल्ट की दर 10 प्रतिशत से गिरकर 1 प्रतिशत से नीचे ना आ जाए. संभवत: इसका मतलब ये हुआ कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें रोज़ाना 10 लाख या अधिक लोगों की जांच करनी होगी. यानि मौजूदा स्तर से करीब चार गुना अधिक. जैसा कि कार्तिक शशिधर के किए विश्लेषण (संलग्न चार्ट देखें) से जाहिर है यहां तक कि हमारे न्यूनतम मानदंड को भी कुछेक राज्य और केंद्रशासित प्रदेश ही पूरा कर रहे हैं.
भारत परीक्षण दर को तेज़ी से बढ़ाने में पीछे क्यों छूट रहा है? महामारी के आरंभिक दिनों में ये कहा जा सकता था कि हमारे पास पर्याप्त संख्या लैब और टेस्ट किट नहीं हैं. लेकिन अब वैसी बात नहीं है. इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘भारतीय कंपनियों के पास हर महीने 146 मिलियन आरटी-पीसीआर टेस्ट किट तैयार करने की क्षमता है, यानि प्रतिदिन 4.87 मिलियन किट.’ एक अकेली कंपनी, पुणे स्थित माय लैब डिस्कवरी सॉल्यूशंस, रोज़ाना 2,00,00 आरटी-पीसीआर टेस्ट किट का निर्माण कर सकती है. फिर भी, इस संबंध में एक चौंकाने वाला तथ्य है- टेस्ट किट निर्माण करने वाली अनेक कंपनियां या तो अपना उत्पादन कम कर रही हैं या केंद्र सरकार से टेस्ट किटों के निर्यात की अनुमति मांग रही हैं, क्योंकि घरेलू मांग कम है.
टेस्टिंग की वास्तविक लागत
हम इस नितांत असंगत स्थिति में इसलिए हैं क्योंकि कई राज्य सरकारों ने टेस्टिंग की कीमत इतनी कम तय की हैं कि बहुत कम निजी जांच लैब की इसमें दिलचस्पी रह गई है. राज्य सरकारें प्रति आरटी-पीसीआर जांच के लिए निजी जांच लैब को 2,000 रुपये (उत्तरप्रदेश) से लेकर 3,000 रुपये (तमिलनाडु) तक का भुगतान करती हैं और इसका औसत स्तर 2,300 रुपये के करीब है. जाहिर है ये इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा विगत में तय 4,500 रुपये की अधिकतम सीमा से बहुत कम है. टेस्टिंग में प्रयुक्त सामग्री की ही लागत 1,800 से 2,000 रुपये के बीच होने के कारण सरकारी नीतियों ने सिर्फ भारी संख्या में परीक्षण करने वाले या फिर गुणवत्ता से समझौता करने वाले लैब के लिए ही टेस्टिंग को व्यवहार्य रहने दिया है.
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कीमत तय करते समय सरकारी अधिकारी अक्सर निजी कंपनियों के ऑपरेटिंग खर्चों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं. टेस्ट किट की लागत के अलावा नमूने एकत्र करने और डेटा इंट्री से जुड़े कर्मियों, हैंडलिंग और हानिकारक कचरे के निस्तारण से जुड़े खर्च भी होते हैं. साफ तौर पर सरकार ने इनकी अनदेखी की है. इतने कम मार्जिन के रहते बहुत कम निजी जांच लैब जांच क्षमता के विस्तार या टेस्टिंग बढ़ाने के लिए अतिरिक्त कर्मियों की नियुक्ति के लिए निवेश करने की स्थिति में हैं.
दूसरे शब्दों में, क्षमता होने के बावजूद पर्याप्त संख्या में परीक्षण करने में भारत की असमर्थता मुख्य रूप से मूल्य सीमा तय किए जाने की वजह से है. यह शायद ही एक अप्रत्याशित स्थिति है – वास्तव में, इसका पूर्वानुमान लगाया जा सकता था और इसका पूर्वाभास था भी.
असल में दुर्भाग्यपूर्ण बात है टेस्टिंग लागत में कुछ सौ रुपये बचाने के चक्कर में कई राज्य सरकारों का पैसा बचाने और रुपया गंवाने की कहावत को चरितार्थ करना. आर्थिक रूप से अलाभकर कार्यों के लिए निजी हेल्थकेयर कंपनियों को डराने-धमकाने की बजाय सरकारी अधिकारियों को सकारात्मक प्रोत्साहनों की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि अधिकाधिक संख्या में कंपनियां काम के लिए आगे आ सकें. उनको इस बात का एहसास होना चाहिए कि निजी हेल्थकेयर कंपनियों का अच्छी आर्थिक स्थिति में होना सार्वजनिक हित में है.
टेस्टिंग को नियंत्रण मुक्त करना
आईसीएमआर द्वारा टेस्टिंग प्रोटोकॉल को उदार बनाते हुए सभी डॉक्टरों को कोविड-19 जांच लिखने की अनुमति दिए जाने के बाद हमें आने वाले सप्ताहों में जांच दर में थोड़ी बेहतरी देखने को मिलेगी. इसी तरह सस्ते त्वरित एंटीजन परीक्षण उपलब्ध होने से अधिकारियों को टेस्टिंग क्षमता का तेज़ी से विस्तार करने में मदद मिल सकती है, जैसा कि पिछले कुछ दिनों में हमने दिल्ली में देखा है. राज्य सरकारों को इन परीक्षणों की मूल्य सीमा निर्धारित करने के प्रलोभन से बचना चाहिए.
वास्तव में, भारतीय स्वास्थ्य तंत्र की असलियत स्वदेशी विनिर्माण क्षमता और बाज़ार में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा पर गौर करते हुए कोविड-19 टेस्टिंग को पूरी तरह नियंत्रण मुक्त करना ही स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए सर्वश्रेष्ठ नीति होगी; एकमात्र शर्त टेस्ट रिजल्ट को आईसीएमआर के डेटाबेस में अनिवार्य रूप से दर्ज कराने की रहनी चाहिए. यदि कोई भी व्यक्ति किसी जांच लैब में जाकर कोविड-19 का परीक्षण करा सके और कुछेक घंटों के भीतर उसकी रिपोर्ट पा सके, तो अपर्याप्त टेस्टिंग की समस्या तेज़ी से खत्म हो जाएगी. इसके परिणामस्वरूप सरकार के संसाधन ज्ञात रोगियों के संपर्कों को ढूंढने, संक्रमित लोगों को अलग-थलग रखने और उनके उपचार के लिए उपलब्ध हो सकेंगे.
(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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