दो डस्टबिन, चार चेहरे, छह मीडिया फोटोग्राफर, आठ पोस्टर. गंगा पथ के राज्यों में जारी गंगा स्वच्छता अभियान का कुल हासिल यही है. चुनावी साल में बिहार और उत्तर प्रदेश के गंगा घाटों को स्थानीय नगर निगम या नगर परिषद या एनजीओ को उनके क्षेत्र में आने वाले घाटों की ज़िम्मेदारी दी गई है. इन संस्थाओं को बजट देकर कहा गया है कि वे अपने घाट की साफ-सफाई का ध्यान रखें.
इस बजट से स्टील फिनिश के लटकने वाले दो डस्टबिन खरीदे जाते हैं. एक गीले कचरे के लिए दूसरा सूखे कचरे के लिए. निगम की राजनीति करने वाले चार नेता अपने साथ मीडिया फोटोग्राफरों की टीम लेकर घाट पर जाते हैं और पूरे घाट को नमामि गंगे और प्रधानमंत्री के पोस्टर से पाट देते है. हो गया गंगा स्वच्छता अभियान. इसके कुछ दिन बाद वह डस्टबिन या तो चोरी हो जाता है या फिर एक घाट से उठकर दूसरे घाट पर फोटो खिंचवाने के काम आता है.
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गंगा सफाई के इसी गंभीर प्रयास की छत्रछाया में सत्ता आत्मबोधानंद को न तो देखना चाहती है, नाही उन्हें सुनना चाहती है और न ही कुछ बोलना चाहती है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे चार माह से अनशन पर हैं और उनकी मांगें खुद के लिए नहीं गंगा के लिए है. लेकिन लाली – लिपिस्टिक कुंभ का चौतरफा श्रेय लेने वाली सत्ता जानती है कि यह साफ-सफाई सिर्फ महाशिवरात्रि तक ही है. उसके बाद कानपुर की टैनरीज़ सहित सभी केमिकल वेस्टेज वाली फैक्ट्रियां दोबारा शुरू हो जाएगी.
जो आस्थवान लोग कुंभ में डुबकी लगाकर आए हैं. इसे यूं समझें – कुंभ के पहले सीसामऊ जैसे विशाल नाले को दीवार उठाकर बंद कर दिया गया लेकिन उसका कोई वैकल्पिक इंतज़ाम नहीं किया गया. अब यह नाला दीवार के ऊपर से यानी ओवरफ्लो होकर बह रहा है. दूसरे सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से प्रदूषित पानी लगातार इस नाले में ही डाला जा रहा है. इसके अलावा कुंभ के पहले कानपुर के कत्लखानों से कहा गया कि वे कुंभ तक अपना काम बंद कर दें.
इसका मतलब है कि कुंभ के बाद वे दोबारा गंगा में जानवरों का खून मिला पानी बहा सकते हैं. इस तरह इलाहाबाद में एक तरह का होली डिप स्विमिंग पुल तैयार किया गया. शाही स्नान संपन्न हुआ और अखाड़े भी खुश, उनके महामंडलेश्वर भी खुश, और आस्थावान जनता भी खुश. राजनीतिक फायदा यह कि सुदूर दक्षिण से आई महिला भी सरकार का प्रचार यह कह कर करेगी कि गंगा साफ हो गई.
इस खूबसूरत और सरकारी प्रचार की सफलता का कुछ श्रेय पर्यावरण प्रेमियों को भी जाता है. यह गंगा आंदोलन से जुड़े लोगों का इंटेलेक्चुअल फेलियर भी है. गंगा की वास्तव में चिंता करने वाले लोग अपनी बात सार्थक तरीके से समाज और सरकार तक पहुंचाने में विफल रहे हैं. बेशक सरकार सिर्फ दो ही आवाज़े सुनती है – धमाकों की और नारों की. और गंगा पर चिंतिनशील लोग इन दोनों ही गुणों से दूर हैं. लेकिन फ्री टॉक टाइम के दौर में समाज तक अपनी बात न पहुंचा पाने का बहाना यह नहीं हो सकता कि हम संसाधनविहीन हैं.
सत्ता, अंहकार के चलते आत्मबोधानंद से बात नहीं कर रही और बात टालने का बेहतर तरीका यह इजाद किया गया है कि आत्मबोधानंद के अस्तित्व को ही अनदेखा कर दिया जाए. जीडी अग्रवाल के साथ हुई फोन वार्ता लीक होने के बाद गडकरी आंदोलनकारियों को फोन करने से भी कतरा रहे हैं जबकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि वह फोन वार्ता अग्रवाल या उनके किसी साथी ने लीक नहीं की थी.
इसमें राजनीति का दूसरा पहलू भी शामिल है. दरअसल, जब से नितिन गडकरी ने गंगा मंत्रालय संभाला है वे खुद को नमामि गंगे का चेहरा बनाने से बचते आए हैं जबकि इसके उलट वे राजमार्ग परियोजनाओं के पोस्टरों पर होना पसंद करते हैं. इसका कारण है कि गडकरी गंगा के साथ मोदी के नाम और उनके द्वारा दिखाई उम्मीदों को ज़िंदा रखना चाहते हैं, ताकि गंगा सफाई की असफलता का ठीकरा उनके सर न फूटे या कम से कम इसमें प्रधानमंत्री की बराबरी की हिस्सेदारी रहे.
आत्मबोधानंद उन्ही चार मांगों पर अनशन कर रहे हैं जिन पर अडिग अग्रवाल ने शहादत दे दी. और पिछली वार्ता में ही गडकरी ने वार्ताकारों को कह दिया था कि इस संबंध में फैसला लेने का अधिकार प्रधानमंत्री का है. ये मांगे हैं – गंगा एक्ट पास हो, प्रस्तावित और निर्माणाधीन बांधों पर काम रोका जाए. खनन नीति बनाई जाए और गंगा परिषद का गठन किया जाए.
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आत्मबोधानंद के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित लोग सरकार से अपील कर रहे हैं कि वो कम से कम बात तो करें और सरकार अपना ही पहाड़ा पढ़ने में व्यस्त है. सत्ता जानती है कि आगाज़ में ज़ोरदार नारा होना चाहिए, रास्ते और अंजाम की फिक्र कोई नहीं करता. कोई यह नहीं पूछेगा कि झारखंड में गंगा किनारे लगाए गए लाखों पौधे कहां गए या फिर वाराणसी-हल्दिया मार्ग में जहाज़ क्यों नहीं चल रहे या स्टीमर खराब क्यों हैं और सोलर वाली नावे कहां चली गईं. सत्ता का पहाड़ा जारी है जब तक आपके ध्यान कोई सवाल आएगा, एक नई योजना की शुरुआत हो चुकी होगी. एक गगनभेदी नारे के साथ.