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Friday, 22 November, 2024
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ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने तो Google की जेब से पैसे निकलवा लिए, क्या भारत में ऐसा हो पाएगा

गूगल या फेसबुक ट्रेंड पर क्लिक होने वाले सर्च में 40 फीसदी न्यूज के होते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में दुनिया भर में गूगल ने न्यूज डिस्ट्रीब्यूशन बिजनेस से 4.7 अरब डॉलर की कमाई की.

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देर-सवेर यह होना ही था. हालांकि यह एक बड़ी लड़ाई का छोटा सा हिस्सा है लेकिन विशालकाय टेक्नोलॉजी कंपनियों को समझ में आ रहा है कि वे दुनिया को भले ही बदल रही हों लेकिन उन्हें, इसे चलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. शायद इसीलिए ऑस्ट्रेलिया में आखिरी वक्त तक अड़े रहने के बावजूद गूगल ने रूपट मर्डोक की कंपनी न्यूजकॉर्प की खबरें दिखाने के बदले उसे पेमेंट करना मंजूर कर लिया है. हालांकि फेसबुक अब तक न सिर्फ अड़ा हुआ है बल्कि उसने ऑस्ट्रेलियाई सरकार के दबाव का जवाब भी देना शुरू कर दिया है. फेसबुक ने दो दिन पहले वहां अपने प्लेटफॉर्म पर पब्लिशर्स के न्यूजलिंक को रोक कर एक तरह से न्यूज ब्लैकआउट कर दिया. साथ ही मौसम विभाग, हेल्थ डिपार्टमेंटफायर सर्विस, इमर्जेंसी और क्राइसिस सर्विसेज के पोस्ट भी डिलीट कर दिए. हालांकि फेसबुक पर दबाव बढ़ता जा रहा है और लगता है उसे भी गूगल की राह पकड़नी पड़ेगी.

कंटेंट की कीमत के लिए पब्लिशर्स की लंबी लड़ाई

पिछले कई साल से न्यूज पब्लिशर्स गूगल और फेसबुक समेत तमाम इंटरनेट दिग्गजों से अपने कंटेंट की कीमत मांगते आ रहे हैं. चूंकि गूगल और फेसबुक ही इंटरनेट में सबसे बड़े न्यूज डिस्ट्रीब्यूटर्स हैं. इसलिए उन पर पब्लिशर्स को पैसा देने का दबाव ज्यादा है. न्यूज साइट्स का लगभग 80 फीसदी ट्रैफिक यहीं से आता है. इसलिए गूगल और फेसबुक का तर्क था कि ये न्यूज पब्लिशर्स को मैक्सिमम रिच दे रहे हैं, इसलिए पब्लिशर्स को अपने कंटेंट की कीमत नहीं मांगनी चाहिए. जबकि पब्लिशर्स का कहना है कि न्यूज प्रोड्यूस करने का सारा खर्चा वे करते हैं. यह उनका प्रोडक्ट होता है लेकिन उनकी खबरों के लिंक अपने यहां डाल कर विज्ञापन से अरबों डॉलर की कमाई करने वाले गूगल और फेसबुक उन्हें एक पैसा भी नहीं देते. इस मामले में पिछले कुछ साल से न्यूज पब्लिशर्स और इंटरनेट कंपनियों के बीच सौदेबाजी भी चल रही थी.

आखिरकार न्यूज पब्लिशर्स और यूरोपियन यूनियन के देशों में इस मामले में कानून बनाए जाने के दबाव को देखते हुए गूगल और फेसबुक के तेवर थोड़े ढीले पड़े और उन्होंने एक साल पहले ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया जर्मनी जैसे देशों में कुछ पब्लिशर्स को पैसा देना स्वीकार किया लेकिन इसमें भी गूगल ने अपने ही प्रोडक्ट गूगल न्यूज शोकेस और फेसबुक ने न्यूज टेब फीचर को आगे किया. दोनों ने इसके तहत कुछ पब्लिशर्स से समझौता किया और कहा कि उनके इन प्रोडक्ट्स के तहत जिनकी खबरें दिखाई जाएंगीं, उन्हें ही पेमेंट मिलेगा.

इसके साथ ही फ्रांस और स्पेन दोनों जगह गूगल अपनी शर्तों पर चीजें चलाना चाह रहा था. ऐसे में फ्रांस में रेगुलेटर्स को सामने आना पड़ा और स्पेन की सरकार को भी गूगल के तेवरों के बाद कड़ा रुख अपनाना पड़ा. अब गूगल फ्रांस के पब्लिशर्स को सरकार की शर्तों पर पैसा देने वाला है.


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ऑस्ट्रेलिया का कानून क्या दुनिया के लिए नजीर बनेगा?

ऑस्ट्रेलिया में गूगल अड़ा हुआ था लेकिन ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने कड़ा रुख अपनाया और विपक्ष की मदद से न्यूज बार्गेनिंग कोड लाने की तैयारी शुरू कर दी. इस कानून के तहत गूगल और फेसबुक अगर किसी पब्लिशर्स का कंटेंट यूज करते हैं तो उन्हें इसकी कीमत देनी होगी. ऑस्ट्रेलिया सरकार को दबाव में लाने के लिए पहले तो गूगल ने देश छोड़ने की धमकी दी लेकिन बाद में उसे समझ में आ गया कि उसके ऊपर दबाव चौतरफा है और ऑस्ट्रेलियाई पीएम स्कॉट मॉरिसन, नरेंद्र मोदी समेत दुनिया के तमाम देशों के नेताओं से मिलकर इस मुद्दे पर उसके खिलाफ लामबंदी कर सकते हैं तो आखिरी लम्हों में उसने न्यूजकॉर्प. समेत तीन बड़े न्यूज पब्लिशर्स को उनके कंटेंट की कीमत अदा करना मंजूर कर लिया. अब छोटे पब्लिशर्स के साथ भी गूगल समझौता करेगा.

दरअसल, ऑस्ट्रेलियाई कानून में यह प्रावधान है कि गूगल या फेसबुक मीडिया कंपनियों से समझौता न करें तो मामला एक जज के पास जाएगा. वह यह तय करेगा कि उसे इन कंपनियों के कंटेंट का पैसा देना चाहिए या नहीं. यानी कुल मिलाकर गूगल को सभी न्यूज पब्लिशर्स से समझौता करना पड़ सकता है.

न्यूज कंटेंट की कीमत अदा करने के मामले में ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी, ब्राजील और स्पेन में जो हुआ उसका असर निश्चित तौर पर भारत में भी पड़ना तय है. तो क्या यहां भी सरकार गूगल और फेसबुक से पब्लिशर्स को पैसा दिलवाने का कानून लाएगी. क्योंकि इन पब्लिशर्स के न्यूज कंटेंट की बदौलत गूगल और फेसबुक भारी कमाई करते हैं. गूगल या फेसबुक ट्रेंड पर क्लिक होने वाले सर्च में 40 फीसदी न्यूज के होते हैं. हालांकि गूगल इससे इनकार करता है लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में दुनिया भर में इसने न्यूज डिस्ट्रीब्यूशन बिजनेस से 4.7 अरब डॉलर की कमाई की.

अर्नेस्ट एंड यंग के एक अनुमान के मुताबिक भारत में डिजिटल मीडियम में विज्ञापन पर 27,900 करोड़ रुपये खर्च किए. चीन के बाद भारत में इंटरनेट पर न्यूज कंटेंट देखने वाले सबसे ज्यादा लोग हैं. तो आप समझ सकते हैं कि न्यूज पब्लिशर्स के कंटेंट से गूगल और फेसबुक कितनी कमाई करते हैं.

क्या भारत में भी न्यूज पब्लिशर्स गूगल पर दबाव बना पाएंगे?

अब सवाल यह है कि क्या भारत में भी गूगल और फेसबुक को उनके प्लेटफॉर्म पर न्यूज कंटेंट यूज करने के लिए पैसे देने के लिए बाध्य किया जा सकता है. अभी जिन देशों में इस मामले में सौदा हुआ उसकी तर्ज पर ऐसा निश्चित रूप से किया जा सकता है. लेकिन इसका फायदा सिर्फ बड़े पब्लिशर्स को होगा. क्योंकि भारत इतना बड़ा देश है और यहां इंटरनेट पर इतने ज्यादा पब्लिशर्स मौजूद हैं कि गूगल और फेसबुक सभी पब्लिशर्स को पैसा नहीं देगा. अगर ऐसा हुआ तो ये कुछ बड़े ग्रुप को पैसा देंगे और बाकियों को ब्लैकआउट कर देंगे. इससे इंटरनेट डेमोक्रेसी का सपना टूट जाएगा. इंटरनेट डेमोक्रेसी के तर्क पर ही फेसबुक फ्री बेसिक सर्विस लाने का दम भरता रहा है. अगर कुछ ही पब्लिशर्स का न्यूज कंटेंट दिखेगा तो लोगों के सूचना पाने के अधिकार पर भी चोट पड़ेगी.

अगर गूगल या फेसबुक ने कुछ चुनिंदा पब्लिशर्स को पैसे देने शुरू किए तो यह इंटरनेट पर मीडिया मोनोपोली की स्थिति होगी, जिसमें छोटे पब्लिशर्स मार्केट से बाहर हो जाएंगे. भारत में डेलीहंट और इनशॉर्ट्स जैसे न्यूज एग्रीगेटर्स ने कुछ पब्लिशर्स को पैसे देने शुरू किए थे लेकिन सौदों की शर्तों में बदलाव के बाद ये पब्लिशर्स यहां से हटना शुरू हो गए. लिहाजा, यह बिल्कुल सही वक्त है कि भारत के पब्लिशर्स गूगल और फेसबुक से अपने कंटेंट के लिए पैसे मांगना शुरू करें और सरकार उनका साथ दे. अगर सरकार इंटरनेट कंपनियों से न्यूज पब्लिशर्स को उनके कंटेंट के एवज में पैसे दिलवाने के लिए कानून बनाती है तो उसे छोटे पब्लिशर्स का भी ध्यान रखना होगा. वरना कंटेंट की कीमत हासिल करने के चक्कर में इंटरनेट डेमोक्रेसी के खात्मे की शुरुआत हो सकती है.

ऑनलाइन मीडिया को मिल सकता है जीवनदान

कोरोना संक्रमण की वजह से दुनिया भर के साथ भारतीय मीडिया अपने वजूद के संकट से जूझ रहा है. ट्रेडिशनल मीडिया के साथ ही ऑनलाइन मीडिया की कमाई के स्रोत लगभग खत्म हो गए हैं. बड़े पैमाने पर मीडियाकर्मियों की छंटनी हुई है और कई ऑनलाइन मीडिया आउटलेट बंद हो गए हैं. ऐसे वक्त पर कंटेंट की कीमत उन्हें नया जीवनदान दे सकती है. यह मीडिया और लोकतंत्र दोनों के लिए बड़ी राहत की बात साबित होगी.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है. व्यक्त विचार निजी है)


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